शिव, शिव की पूजा और महाशिवरात्रि का क्या है रहस्य ?

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( महाशिवरात्रि पर विशेष आलेख)

जो मूढ होते हैं वह गूढ़ को न समझ कर रूढ़ की बात करते हैं, ऐसे मूढ लोगों से क्षमा चाहते हुए विचारवान  विद्वान , सत्यान्वेषी, सत्यपारखी  ,सत्याग्रही, लोगों के समक्ष
एक प्रकरण  उद्धत करना चाहूंगा।गूढ को यदि समझ लें तो मूढ़ता, अज्ञानता , अविद्या, अविवेकता,  मूर्खता समाप्त होती है।
लेकिन मूढ़ गूढ़ को समझने का प्रयास नहीं करते, उससे दूर दूर रहते।
गूढ के रहस्य को समझो तो विद्वान हो जाओगे। महाशिवरात्रि के पर्व पर शिव की पूजा में पूरी पूरी रात निकाल देने वाले लोग मूढ होते हैं। मूढ़ इसलिए होते हैं कि उनको  सत्य का एवं सत्य विद्या का ज्ञान नहीं होता और अविवेकता और अज्ञानता उन पर छाई होती है। ऐसे ही अज्ञानी लोगों को सत्य को स्वीकार करने में संकोच होता है क्योंकि जन्म जन्म के संस्कार अज्ञानता के उन पर पड़े होते हैं।
शिव किसको कहते हैं?
शिवलिंग क्या है?
कैलाशपति क्या है?
शिव के पर्यायवाची क्या क्या है?
शिवनाद और डमरु क्या है?
भस्मासुर की वास्तविक कथा क्या है?
ऐसे ही अनेक प्रश्न जो शिव से जुड़े हैं उनका समाधान करते हैं।
प्रश्न :  शिव किसको कहते हैं?
उत्तर :  शिव परमात्मा को कहते हैं।ईश्वर के नाम कहीं गौणिक, कहीं कार्मिक और कहीं स्वाभाविक अर्थों के वाचक हैं ।इसलिए ईश्वर का एकमात्र सही निज नाम केवल ओ३म हैं। शेष नाम उसके कार्मिक, स्वाभाविक एवम् गौणिक हैं
उदाहरण के तौर पर विराट, पुरुष ,देव ,आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, विश्वंभर, विष्णु ,शिव, यह नाम लौकिक पदार्थों के और मनुष्यों के भी होते हैं और यही नाम ईश्वर के भी होते हैं।
प्रश्न :  इनमें अंतर कैसे करें ?
उत्तर :  जहां-जहां उत्पत्ति ,स्थिति, प्रलय,अल्पज्ञता ,जड़ता, दृश्य आदि विशेषण भी हो वहां- वहां परमेश्वर का अर्थ नहीं होता।अर्थात जहां उत्पन्न, एक आकार में स्थित  हो करके और प्रलय अथवा नष्ट होता हो वह ईश्वर नहीं है।
जैसे शंकर अर्थात जो सुख का करने हारा है ,उस ईश्वर का नाम शंकर है।दूसरी तरफ आप किसी व्यक्ति का नाम भी शंकर देखते हो।लेकिन जो शंकर ईश्वर का नाम है वह नष्ट नहीं होता परंतु जो व्यक्ति का नाम शंकर है वह नष्ट होने वाला है।
    इसी प्रकार जो कल्याण करने वाला है उसको शिव कहते हैं । कल्याण केवल परमात्मा करता है ,इसलिए परमात्मा कल्याणकारी है। अत:परमात्मा शिव है।

(महर्षि दयानंद कृत अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास  का अध्ययन करें)

शिव आत्मा को कहते हैं।जैसे त्रेता युग  में एक राजा शिवजी हुए हैं वह एक आत्मा थीं।जैसे आपने व्यक्तियों के नाम शिवकुमार, शिवराज, शिवपाल अपने जीवन में देखे और सुने होंगे। ऐसे ही वह शिव एक व्यक्ति थे। एक राजा थे। एक योगी थे। एक सद्गगृहस्थी थे, दक्ष की पुत्री पार्वती उनकी पत्नी थी, इसलिए गृहस्थी थे। उनके संतान भी थी।अर्थात वे ईश्वर नहीं थे।

शिव सूर्य को कहते हैं।शिव राजा को कहते हैं।त्रेता युग में अब से करीब 1269000 वर्ष पहले रामचंद्र जी हुए थे। उन्हीं के समकालीन थे राजा रावण, राजा शिव,  ऋषि श्रृंग, भारद्वाज मुनि, सोनक मुनि एवं अन्य ऋषि गण।इस सृष्टि को चलते हुए करीब एक अरब 97 करोड़ अर्थात दो अरब वर्ष हो चुके हैं।
इस सृष्टि का यह 28 वां कलि काल चल रहा है। शिव राजा की उत्पत्ति एवं विनाश त्रेता काल में हो चुका है। जिसको 1269000 वर्ष हुए हैं। इसका तात्पर्य हुआ कि 12 69000 वर्ष से पहले भी यह सृष्टि चल रही थी। जिसमें कोई शिव उस समय भी था, तो वह केवल परमात्मा ही था।

राजा शिव के विषय में जानकारी

हमने जाना कि वैदिक साहित्य में शिव के नाना पर्यायवाची शब्द अर्थ हैं। जैसे शिव नाम परमात्मा का, शिव नाम राजा का, शिव नाम आत्मा का और शिव नाम सूर्य का।श्रंग ऋषि की आत्मा ब्रहम ऋषि कृष्ण दत्त ब्रह्मचारी में आती थी। इसलिए
दिनांक 18 अक्टूबर 1964 को अपने उपदेश में  श्री कृष्ण दत्त ब्रह्मचारी अर्थात पूर्व जन्म के श्रृंग ऋषि महाराज कहते हैं कि उन्होंने राजा शिव के दर्शन किए थे। जब शिवजी एक राजा थे। जो रावण के गुरु कहलाते थे।
हिमाचल के राजा दक्ष की कन्या पार्वती के साथ उनका संस्कार हुआ था। लेकिन बहुत ही सुंदर, बहुत ही विवेकी पुरुष थे।
मूढ लोग जान लें कि राजा शिव नीले या काले रंग के नहीं थे क्योंकि उनके समकालीन जो प्रत्यक्षदर्शी श्रृंग ऋषि हुए उन्होंने बताया कि शिव बहुत ही सुंदर और विवेकी पुरुष थे।
जिस राजा के राज में प्रजा का आचरण बहुत उच्च कोटि का होता हो, जिस राजा के राज्य की प्रजा बहुत ऊंचे विचारों की सदाचरण करने वाली होती है, उस राजा को शिव कहते हैं। उसी राजा को कैलाशपति  की पदवी दी जाती थी अर्थात ऊंचे शिखर वाली प्रजा कैलाश कही गई और उसका स्वामी कैलाशपति कहलाता था।
महाराजा शिव कैलाश पर्वत पर तपस्या किया करते थे। कैलाश कहते हैं बहुत उच्च शिखर वाला पर्वत। एक संसार का रचयिता स्वामी है, जो शिव है, जो लिंग अर्थात प्राण में संसार को धारण कर रहा है। आज हम उस लिंगमय ज्योति वाले शिव की याचना करते चले जाएं जिसने महत्व देकर इस संसार को विलक्षण बनाया। शिव नाम उस द्रव्य पति का भी है जो अपने द्रव्य को यथाशक्ति संसार के शुभ कार्यों में लगाता है ।राष्ट्र के कार्यों में लगाता है। रक्षा के कार्यों में लगाता है। धर्म के कार्यों में लगाता है ।उस द्रव्य को भी लिंग मय ज्योति कहा जाता है।
प्रश्न : अब प्रश्न पैदा हुआ कि शिवलिंग क्या है ?
प्रश्न :  इसमें से कैसे ज्योति प्रस्फुटित होती है?
प्रश्न :  शिव ने संसार को लिंग में कैसे धारण कर रखा है?

इसके लिए शिव लिंग के वास्तविक वैदिक अर्थ एवं महत्व को समझना होगा।

शिवलिंग

इससे पहले कि हम वास्तविक शिवलिंग की बात करें हम लोक में प्रचलित एक  रूढ़ कथा का उदाहरण ले लेते हैं । लेकिन उसका गूढ़ अर्थ कुछ और है उसको भी समझने का प्रयास करेंगे।कहते हैं कि एक बार महाराजा शिव नग्न होकर ऋषि पत्नी के द्वार पहुंच गए तो ऋषियों ने शाप  दिया कि तेरा लिंग पृथ्वी में स्थापित हो जाए। इस प्रकार उनका लिंग पृथ्वी में स्थापित हो गया और अपनी क्रीड़ा करने लगा। तीनों लोकों में ‘त्राहिमाम त्राहिमाम’ मच गया। देवताओं ने याचना की तो विष्णु ने कहा कि तुम पार्वती की याचना करो। वह अपनी “भग: लिंगों धारणा अचेत “करके इसको शांत कर देगी।

प्रश्न :  इसका दार्शनिक रूप क्या है ?
प्रश्न :  इसका गूढ़ अर्थ क्या है?
प्रश्न :  इसका वैदिक साहित्य में क्या अर्थ है?
उत्तर :  शिव नाम परमात्मा का है।  पार्वती नाम प्रकृति का है ,तथा प्राण लिंग को भी कहते हैं।
शिव ,पार्वती और लिंग का समायोजन देखें ।

संसार में जब प्राण अर्थात लिंग बिना प्रकृति के आता है अर्थात बिना पार्वती के होता है तो वह ‘त्राहिमाम त्राहिमाम’ कर देता है, जैसे मनुष्य के शरीर में जब अपान और प्राण दोनों की एक गति हो जाती है तो मानव मृत्यु को प्राप्त हो जाता है ,अर्थात ‘त्राहिमाम त्राहिमाम’ हो जाती है।
इसी प्रकार जब प्राण रूपी लिंग इस संसार में बिना प्रकृति के आता है तो ‘त्राहिमाम त्राहिमाम’ मच जाती है।
यहां प्रासंगिक है कि प्राणों का पान का अर्थ क्या है? इसको समझ लेते हैं।अपान प्राणवायु को अंदर लेने की प्रक्रिया है, तथा प्राण प्राणवायु को बाहर छोड़ने की प्रक्रिया है।

(यह बात केवल विद्वान लोग ही समझ सकते हैं। दुर्भाग्यवश जब भारतवर्ष में वेद की विद्या लुप्त हुई तो शिव पार्वती और लिंग के वास्तविक अर्थ को समझाने वाले नहीं रहे)

देवता उस समय याचना किया करते हैं आवाहन करते हैं  कि हे! माता पार्वती अर्थात प्रकृति तू आ । उस समय यह प्रकृति माता पार्वती आती है ।भग नाम ही इस प्रकृति का है ।वह लिंग रूपी प्राण को अपने में धारण कर शांत किया करती है।
जब प्राण और अपान दोनों की गति विषम चलती हो तो आयुर्वेद का कोई महान आचार्य किसी औषधि अथवा सोमलता को देकर उनकी संधि कराता है। जिससे वह प्राणधारी यथार्थ गति पर आ जाता है। अर्थात उसमे वापस प्राण लौट आता है।
इससे सिद्ध होता है कि अपान और प्राण जब तक है तभी तक जीवन है।इसी प्रकार जब प्राण को प्रकृति (यानी लिंग को पार्वती) धारण करती है तो सृष्टि प्रारंभ हो जाती है और जो इस प्रकार की सृष्टि का सृजन कर प्रारंभ करता है उसका नाम शिव है। सृष्टि का प्रारंभ करने वाला तो केवल एक परमात्मा ही तो है उसी का नाम शिव  है।
(इसी सच्चे शिव की खोज के लिए महर्षि दयानंद घर से निकले थे, महर्षि दयानंद का जन्म काठियावाड़ की रियासत के ग्राम टंकारा, गुजरात प्रांत में 12 फरवरी 18 24 को पिता श्री कृष्ण दत्त तिवारी और माता श्रीमती अमृत बाई के ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
जब वह 14 वर्ष के थे तो उनके माता-पिता ने उनको शिवरात्रि के अवसर पर व्रत रखने का निर्देश दिया था रात्रि के समय शिव जी की मूर्ति के पास वह बालक मूल शंकर बैठा हुआ था । उसने देखा कि कुछ चूहे शिव जी की मूर्ति पर चढ़कर उसको मल मूत्र से गंदा कर रहे हैं और शिव जी पर चढ़ाई गई मिठाई को खा रहे हैं। उन्होंने ऐसा देखा कि यह शिवजी अपनी रक्षा नहीं कर सकते। चूहों को नहीं भगा सकते ।अपने चढ़ावे को बचा नहीं सकते तो यह कैसे शिव हैं। माता-पिता से संतोषजनक जवाब नहीं मिलने के कारण उन्होंने सच्चे शिव की खोज करने के लिए प्रण किया और वह प्रत्येक तपोवन ,तपस्थली में साधु, संतों ,सिद्ध पुरुषों , त्यागीजनों, ब्राह्मणों ,तपस्वी मनस्वी ,ज्ञानियों , ध्यानियों, अक्कड़ , फक्खड़ से , अक्खड़ों में , मंदिरों में ,जंगल में ,झाड़ियों में मिलकर ऐसे गुरु को ढूंढते फिरते रहे जो सच्चे शिव के दर्शन करा सके। लेकिन कोई भी ऐसा उनको नहीं मिला। जिससे वह काफी हताश हुए , लेकिन बाद में स्वामी पूर्णानंद ने उनको सन्यास दिलाकर स्वामी दयानंद नाम दिया और यही शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी योगाभ्यास और तपश्चर्या में रत रहने लगे। फिर मथुरा में प्रज्ञा चक्षु गुरु विरजानंद जी के किससे बने जो बाद में भारत के भविष्य बने तथा वामन से विराट बने जो बहुत ही बुद्धिशाली थे। जो अपने गुरु के आदेश पर भारत मां की दुर्दशा और दयनीय स्थिति से उभारने के लिए भारत भ्रमण पर निकले। जब भारत भ्रमण पर निकले तो उन्होंने चारों तरफ घूम करके अपना वतन भी देखा और वतन में लोगों का पतन भी देखा। आपस की फूट, पाखण्ड की भीषण चक्की में पिसती जनता, कुरीतियों की कारा सारा समाज बंदी देखा, संस्कृति के रक्षकों को भक्षक के रूप में देखकर उनको बहुत कष्ट हुआ।
ऐसे लोगों को भी देखा जो मगरमच्छ की तरह धर्म सरोवरो को गंदा कर रहे थे। मक्कारों के जकड़ में सारा समाज आया हुआ था।
महर्षि दयानंद ने देखा कि भक्ति अज्ञानी लोगों  के मजबूत शिकंजा में फंसी हुई है । आर्यों की सभ्यता समाप्त प्राय: होती जा रही है।  भक्ति पापियों के पंजों में फंसी हुई है। ईश्वर के नाम पर व्यापार होता है। ईश्वर खुले बाजारों में बिकता है ।भारत की जनता के विचारों में भारी परिवर्तन आ चुका था ।लोगों के आचरण और व्यवहार में चालाकी समा गई थी। मंदिरों में धर्म अधिकारियों की आरती रमणियां उतारा करती थी। जो छिप छिप कर लंपट रासलीला करते थे।
महर्षि दयानंद ने देखा कि वेदों की ऋचाएं लुप्त हो रही थीं। धर्म क्षीण हो रहा था। धर्म के स्थान पर अधर्म और पराक्रम के स्थान पर प्रमाद सर्वत्र छाया हुआ था। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में महर्षि दयानंद ने समाज सुधार का कार्य किया और इस देश की दिशा और दशा बदलने का सफल और सार्थक प्रयास किया। वेद की विद्या को पुन: स्थापित किया। अछूतों का उद्धार किया। नारी को सम्मान दिलाया। शूद्रों और नारी को वेद को पढ़ने का अधिकार दिया।
हम इससे समझें कि महर्षि दयानंद एक ब्राह्मण तिवारी परिवार में पैदा हुए थे और उन्होंने उन ब्राह्मणों का ही विरोध किया जो धर्म के नाम पर पाखंड कर रहे थे और भक्ति के नाम पर लोगों को बहकाकर टका बटोरी कर रहे थे। उदर पूर्ति उनका केवल एक उद्देश्य रह गया था।  केवल अन्य मय कोष के प्राणी बनकर रह गए थे। कमोबेश आज भी वही परिस्थितियां भारतवर्ष के समक्ष है। क्योंकि आज भी मूर्खों की संख्या अधिक ही है।
जो शिव के सच्चे स्वरूप को नहीं समझ पाते हैं।
     अब  पुन:मूढ़ एवं रूढ़ की बात करें। त्रेता युग में माता पार्वती उसका नाम भी था जो दक्ष राजा हिमाचल की कन्या थी और जिसको देखने का सौभाग्य श्रृंगऋषि महाराज को समकालीन होने के नाते मिला था ।कुछ अज्ञानी लोगों ने यह घटना उस शिव राजा और पार्वती से जोड़ करके देखा ।जो इसके वास्तविक अर्थ को नहीं समझ पाए। 
प्रश्न  :  वैदिक और आर्ष साहित्य में  उसका आध्यात्मिक क्या अर्थ है?
उत्तर : यह आपके समक्ष प्रस्तुत किया गया।
शिव नाम आत्मा का भी है। जब मनुष्य अर्थात आत्मा शिव संकल्प धारण करता है और शिव का पुजारी बनता है तो उस समय यह आत्मा अपने प्रभु को अर्थात शिव को पाकर शिव कहलाता है ।
(जैसे लोहा अग्नि के गुणों को धारण करने वाला हो जाता है उसी प्रकार शिव अर्थात् परमात्मा  के संपर्क में आने से आत्मा शिव हो जाता है)
जिस प्रकार राजा अपने प्रजा को ऊंचा बनाने से शिव कहलाता है ।ऐसी यह आत्मा उस प्रभु की गोद में अर्थात् शिव की गोद में जाने से शिव कहलाता है। परंतु ध्यान रहे कि एक शिव होता है और दूसरा महाशिव होता है ।यह आत्मा महाशिव नहीं होता केवल शिव कहलाता है।
हमारे वेदों में वह अनुपम विद्या ,व दार्शनिक विचार हैं। जिनको धारण करता करता मानव गदगद हो जाता है। परंतु हमारी बुद्धि की सूक्ष्मता है। हम बुद्धि को संकुचित बना लेते हैं ।बुद्धि से इस वेद वाणी का विस्तार नहीं लेते ।वेद में शिव के नाना मंत्र आते हैं ।
(यज्ञ  करते समय भी शिव संकल्प मन में बना लेने के अनेक मंत्र महर्षि दयानंद ने एक जगह एकत्र करके प्रस्तुत किए हैं। जो दैनिक यज्ञ की पुस्तक से देखे जा सकते हैं)

शिव का नाद एवं डमरु क्या है?
हमारे आचार्यों ने ऐसा कहा है कि जब महर्षि पाणिनि थे महाराजा शिव ने डमरू बजाया और गान गाया। उस डमरु में से 14 सूत्रों का विकास हुआ ,उसको व्याकरण कहते हैं।  व्याकरण में प्रत्येक वेद मंत्र बंध जाता है।
क्या यह यथार्थ है कि शिव ने डमरू बजाया ,पार्वती ने नृत्य किया ,शिव ने गाना गाया ,और महर्षि पाणिनि ने इन सूत्रों को ले लिया?
परंतु महर्षि पाणिनि तो अब हुए हैं और इस सृष्टि को लगभग एक अरब 97 करोड़ 29,56,064 वर्ष(यह गणना  श्रृंग ऋषि  वर्तमान जन्म में कृष्ण दत्त ब्रह्मचारी द्वारा उस समय की  गई है जब   व्याख्यान कर रहे थे) प्रारंभ हुए हो रहा है तो क्या पाणिनी ऋषि महाराज से पूर्व यह वेद मंत्र क्रमबद्ध नहीं थे? उस समय कोई व्याकरण नहीं था?
यह एक जटिल प्रश्न है।
इस विषय में हमारे ऋषियों ने और आचार्यों ने कहा है कि यह तो यथार्थ है कि शिव ने डमरू बजाया और पार्वती ने नृत्य किया परंतु इसको वैदिक ग्रंथों से एवं आर्ष साहित्य के अध्ययन से समझने व जानने की आवश्यकता है।
शिव नाम परमात्मा का है। पार्वती नाम इस प्रकृति का है ।सृष्टि के प्रारंभ में जब संसार का प्रादुर्भाव हुआ उस समय परमपिता परमात्मा या शिव ने इस महत्व रूपी डमरु को बजाया और डमरु बजने से यह माता पार्वती रूपी प्रकृति नृत्य करने लगी ।यह नाना रूपों में रची गई।
महत रूपी डमरु प्रकृति रूपी पार्वती और शिव रुपी परमात्मा को इस वास्तविक वैदिक साहित्य के अनुरूप   माना जाना चाहिए। उन्होंने डमरू बजाया तो संसार रच गया ,जो आज हमें दृष्टिगोचर हो रहा है।

यह है शिव का नाद एवं डमरु

इस वाक्य को इस प्रकार जान और मान लेना चाहिए।
मैं यह नहीं कहता कि महर्षि पाणिनी मुनि महाराज ने भी संसार का अधिक कल्याण किया, उन्होंने 14 सूत्रों को प्रकृति के महत्त्व से या डमरु से किसी प्रकार स्वीकार कर लिया परंतु उपरोक्त तथ्य ही सही है।
हमारे यहां सृष्टि के प्रारंभ में इस व्याकरण को हमारे आदि ऋषि ब्रह्मा ने जाना।जो  योग से जाना ।महर्षि पाणिनि ने भी इन 14 सूत्रों को अपने योग से जाना।

डमरु अग्रणी अनाद  से जाना

ब्रह्मा ने सृष्टि के आदि में पूर्व की भांति अर्थात् पुनः की भांति( कहने का अर्थ यह है कि प्रत्येक सृष्टि के प्रारंभ में एक ब्रह्मा होता है और वह प्रलय के बाद हर सृष्टि के प्रारंभ में योग से पहली सृष्टि के ज्ञान को आगे बढ़ाता है) योगाभ्यास किया अर्थात  सिद्ध होता है कि ब्रह्मा पहले से भी  योगाभ्यास करते रहे थे। प्राण ,अपान, उदान, समान और व्यान इन पांचों प्राणों को जाना ।
उन पांचों को एकाग्र किया, और ब्रह्मरंध्र में ले जाया गया। जहां एक चक्र होता है। उस चक्र का विस्तार रूप हुआ।
प्रत्येक मानव के मस्तिष्क में एक अनहद नाम का नाद बजता है। उस अनहद से नाना प्रकार के स्वर चलते हैं। उन स्वर  को जाना स्वरों को जानकर इन अक्षरों को जाना ,और इन अक्षरों से यह प्रत्येक वेद मंत्र क्रमबद्ध होते चले गए। यह वेद मंत्र ऋचा कहलाती है।  उन्हीं शब्दार्थ   से संसार की भाषाओं का विकास हुआ। वही शब्दार्थ परंपरा से चले आ रहे हैं ।उन्ही शब्दों को मनुष्य अपनी कल्पना से कुछ परिवर्तन करता रहता है । इस प्रकार नाना प्रकार की भाषाओं का विकास हो जाता है, तो यह व्याकरण सृष्टि के आदि से चला आ रहा है ।महर्षि पाणिनि ने इसको कुछ सरल रूप में लिया है ।उनमें अक्षरों की व्याहृतियों  करते हुए उन्होंने भिन्न-भिन्न रूपों से इस का प्रतिपादन किया है।
इसका अभिप्राय यह है कि हमारे मस्तिष्क में एक अनहद नाम का बाजा बजता होता है ,एक नाद होता है, एक सिंहनाद होता है ,रिद्धि नाद होता है ,डमरू जैसा नाद होता है , वहींं नृत्य भी होता है ।इस नाद को जानकर हम वास्तव में वैज्ञानिक बनते हैं। और उससे नाना प्रकार की व्याहृतियों को जानने वाले और अपने मानवत्व का विकास करने वाले बनते हैं।
(यह पुष्प दिनांक 21 दस 1964 को कृष्ण दत्त ब्रह्मचारी द्वारा अपने संबोधन में प्रस्तुत किया गया था)

अब यह भस्मासुर की काल्पनिक कथा क्या है ?
वास्तविक कथा क्या है?

इस पर विचार करते हैं। यह काल्पनिक है कि एक समय महाराजा भस्मासुर को इच्छा जागृत हुई कि मैं तपस्वी होऊं ।कुछ काल पश्चात उन्हें देव ऋषि नारद के दर्शन हुए तो नारद ने कहा अवश्य तपस्वी बनो। वह शिव की तपस्या करने लगे तो शिव आ पहुंचे। शिव ने कहा कि भस्मासुर क्या चाहते हो?
भस्मासुर ने कहा कि भगवान आपके द्वारा यह जो कंगन है इस कंगन को मुझे अर्पित कर दीजिए। अब भगवान शिव ने वह कंगन दे दिया। उस कंगन में यह विशेषता थी कि यदि वह मस्तिष्क के ऊपरले भाग में हो तो वह मानव भस्म हो जाता है।
महाराजा शिव तो कैलाश पर जा पहुंचे और भस्मासुर को  अभिमान आ गया। जिसको भस्म करने की इच्छा होती उसे कंगन द्वारा भस्म कर देते ।एक समय वह भ्रमण करते हुए कैलाश जा पहुंचे ।जब मानव के विनाश का समय आता है तो इसी प्रकार की बुद्धि बन जाती है ।उसी प्रकार के कारण बन जाते हैं ।भस्मासुर के जब विनाश का समय आया तो वह भ्रमण करते हुए कैलाश पर  जा पहुंचा। माता पार्वती के दर्शन करते ही पार्वती पर मोहित हो गए और मोहित होकर के महाराजा शिव से कहा कि या तो मुझे पार्वती को अर्पित करो अन्यथा इस कंगन से मैं आप को भस्म कर दूंगा ।
अब महाराजा शिव ने यह विचारा कि यह तो एक मर्यादा का उल्लंघन होने चला ।क्या करना चाहिए? उसी काल में उन्होंने कहा कि अरे भस्मासुर मुझे कुछ समय प्रदान किया जाए। उन्होंने कहा कि ,-  बहुत अच्छा।
समय लेकर के शिव कैलाश को त्याग करके ब्रह्मा के द्वार जा पहुंचे। ब्रह्मा ने उनकी बात को सुना लेकिन सहायता करने से इंकार कर दिया। इसी प्रकार विष्णु के यहां पहुंचे तो विष्णु ने भी सुन करके इनकार कर दिया।इंद्र के पास पहुंचे तो इंद्र नहीं भी सहायता नहीं की।
अंत में निराश होकर भ्रमण करते हुए पुन: कैलाश पर आ गए और पार्वती से कहा कि देवी अब क्या करना चाहिए ?यह तो मर्यादा का विनाश होने चला है।  यदि मर्यादा का विनाश हो गया तो देवी हमारा जीवन व्यर्थ हो जाएगा ।
उस समय पार्वती ने कहा कि प्रभु यदि आप मेरे कहे वाक्य को स्वीकार कर लें तो मैं आपको कुछ कह रही हूं ।महाराज शिव ने कहा कि कहो, देवी उच्चारण करो।
देवी ने कहा कि भस्मासुर से कह दो और आप मेरा और भस्मासुर का नृत्य करा दीजिए ।जब नृत्य होगा तो जहां जहां मेरा हाथ जाएगा , वहीं वहीं भस्मासुर का हाथ जाएगा। और जब भस्मासुर का हाथ मस्तिष्क के ऊपर के विभाग में जाएगा तो कंगन से भस्मासुर समय नष्ट हो जाएगा ।
माता पार्वती के इस वाक्य को शिव  ने स्वीकार कर लिया। अब महाराज शिव ने भस्मासुर से कहा कि हे भस्मासुर! तुम पार्वती के साथ नृत्य करो। भस्मासुर ने प्रसन्न होकर के यह बात
स्वीकार कर लिया और दोनों का नृत्य होने लगा । इस प्रकार योजना के तहत भस्मासुर का अंत उसी कंगन से करा दिया गया।
यह तो  अज्ञानियों की कहानी थी ।क्योंकि विचार करो कि यदि शिव परमात्मा थे ,अर्थात सर्वशक्तिमान थे, तो उनके पृथ्वी पर उत्पन्न होने की आवश्यकता नहीं थी और न ही वह नष्ट होते।  ईश्वर तो अजन्मा और अनादि एवं नित्य है । वह जन्म मरण में आता ही नहीं।  न हीं वह अवतार धारण करता। ना हीं पार्वती के साथ विवाह संस्कार करते ,तथा नहीं संतानोत्पत्ति करते ।
पार्वती के कारण ब्रह्मा विष्णु और इंद्र से सहायता नहीं मांगते ,क्योंकि ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है । यह तो थी काल्पनिक कथा जिसको अज्ञानी लोग अधिकतर संसार में सुनाते हैं । इस पर विश्वास करते हैं। अब इसकी वास्तविक कथा को जान लीजिए।
         भस्मासुर का वास्तविक, वैदिक और अभिप्राय क्या है?
देखिए भस्मासुर वही होता है जो संसार में अभिमानी होता है ।आज भौतिक विज्ञानवेत्ता जो समाज में हैं जिसमें अणु,महा अणु, त्रिसरेणु इत्यादि नाना प्रकार के कंगन रूपी यंत्र एकत्र किए जाते हैं ।जैसे अग्नियास्त्र हैं ।कहीं ब्रह्मास्त्र हैं ,तो वहां आत्मा का ज्ञान नहीं होता ।वह केवल अनीति से भिन्न भिन्न प्रकार के कंगनों को, अर्थात् यंत्रों को एकत्रित करता है ।नाना कंगन रूप यंत्रों को बनाता है और परमात्मा शिव को तथा उसकी सृष्टि को नष्ट करना चाहता है, तो उस काल में जब मर्यादा का उल्लंघन होता है तो माता पार्वती का नृत्य होता है। अर्थात प्रकृति नाचती है।नृत्य करके यह जो भौतिक विज्ञानवेत्ता समाज है ,यह तो परमाणु वाद का समाज है ।यह स्वयं उस भयंकर अग्नि में भस्म हो जाता है। भौतिक विज्ञानवेत्ता में जब अभिमान हो जाता है तो अभिमान को हमारे यहां भस्मासुर कहते हैं।
जब श्रावण का महीना चल रहा होता है तो प्रतिदिन प्रत्येक समाचार पत्र में शिव जी के भक्त वास्तविक शिव के चित्रण को प्रस्तुत नए करके त्रेता काल में उत्पन्न हुए योगी शिव को, जो एक आत्मा थी, को भांग पिला कर मस्त पड़ा हुआ दिखाते हैं ।उनके अनुचर बनके अपने आप भी नाना प्रकार के शिवजी के नाम पर नशा करते हैं ।ऐसे ही लोगों ने शिवजी को नशेड़ी बनाकर कलंकित किया है । अपने महा योगियों को, अपने महापुरुषों को बदनाम करने का कार्य भी ऐसे ही अज्ञानी लोगों का है।
इसीलिए महर्षि दयानंद के सच्चे शिव की खोज करने का प्रण लिया था। संसार के समक्ष सत्य को स्थापित किया था। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए आर्य समाज की स्थापना की थी।
आर्य समाज के लोग वास्तविक एवं सही अर्थों को प्रकट करते रहेंगे यह बात अलग है कि उसकी मान्यता कितने लोगों में आएगी।

(दिनांक 26 अक्टूबर 1967 को प्रस्तुत पुष्प)
प्रस्तोता : देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत समाचार पत्र

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