न्यायिक सक्रियता समय की आवश्यकता

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अनूप भटनागर

शीर्ष अदालत के कड़े रुख के बावजूद उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर विधानसभा के चुनावों के दौरान संदिग्ध छवि वाले ऐसे व्यक्तियों को उम्मीदवार बनाने का सिलसिला जारी रहा, जिनके खिलाफ गंभीर अपराधों के आरोप में मुकदमें लंबित हैं। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को राजनीतिक दल का प्रत्याशी बनाने का एक ही मकसद नजर आता है और वह है किसी न किसी तरह सत्ता हासिल करना और स्थानीय स्तर पर अपना दबदबा कायम रखना।

न्यायपालिका ने देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को धन और बाहुबल के वर्चस्व से मुक्त कराने के इरादे से समय-समय पर अनेक फैसले दिए। इनमें दो साल से अधिक की सज़ा पाने वाले पीठासीन सांसदों और विधायकों की सदस्यता तत्काल प्रभाव से खत्म होने जैसी न्यायिक व्यवस्था भी शामिल रही है। अब ऐसे दोषी नेताओं को पूरी उम्र के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित करने की मांग बढ़ रही है और इसे लेकर उच्चतम न्यायालय में 2016 से एक जनहित याचिका भी लंबित है।

इस याचिका पर न्यायालय लगातार महत्वपूर्ण व्यवस्था दे रहा है और उसके ही हस्तक्षेप का नतीजा है कि राज्यों में इन माननीयों के खिलाफ लंबित आपराधिक मुकदमों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतों का भी गठन हुआ है। लेकिन, विशेष अदालतों में लंबित मुकदमों की तेजी से सुनवाई नहीं होने की वजह से ऐसे मुकदमों की संख्या बढ़ रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार, सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित 4984 मुकदमों में से 1899 मुकदमें पांच साल से भी ज्यादा समय से लंबित हैं।

कानून निर्माताओं के खिलाफ लंबित आपराधिक मुकदमों का तेजी से निपटारा नहीं होने की वजह से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों की भूमिका बढ़ती जा रही है। वर्तमान और पूर्व सांसदों-विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मुकदमों की तेजी से सुनवाई और ऐसे मामलों में एक साल के भीतर फैसला सुनिश्चित करने के शीर्ष अदालत के हस्तक्षेप से विशेष अदालतें भी गठित की गईं। लेकिन ऐसा लगता है कि शीर्ष अदालत के प्रयासों को अपरिहार्य कारणों से अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है।

विडंबना है कि सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मुकदमों की संख्या में वृद्धि हो रही है। न्यायालय को सौंपी गई एक रिपोर्ट के अनुसार दिसंबर, 2018 में माननीयों के खिलाफ 4110 मुकदमें लंबित थे जो अक्तूबर, 2020 में बढ़कर 4,859 हो गए थे। यह इस बात का संकेत है कि संसद और विधानमंडलों में ऐसे व्यक्तियों की संख्या बढ़ रही है, जिनके खिलाफ अदालतों में आपराधिक मुकदमें लंबित हैं। उच्चतम न्यायालय की सख्ती के बावजूद राजनीतिक दल ऐसे व्यक्तियों को टिकट देने में तरजीह दे रहे हैं, जिनके खिलाफ आपराधिक मुकदमें लंबित हैं। दलील यह है कि ऐसे उम्मीदवारों को अभी तक अदालत ने दोषी नहीं ठहराया है। स्थिति यह रही कि इन राज्यों, विशेषकर उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दलों में आरोप-प्रत्यारोपों के दौरान होड़ लगी रही कि प्रतिद्वंद्वी की शर्ट से ज्यादा साफ हमारी शर्ट है। चुनाव में आपराधिक छवि वाले व्यक्तियों को टिकट देने की एक वजह ऐसे तत्वों के खिलाफ लंबित मुकदमों की तेजी से सुनवाई नहीं होना है।

स्थिति यह है कि सांसदों-विधायकों के खिलाफ लंबित मामलों की प्रगति पर निगाह रख रही शीर्ष अदालत से बार-बार गुहार लगाई जा रही है कि माननीयों के खिलाफ आपराधिक मुकदमों की सुनवाई तेज की जाए। साथ ही भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे इन माननीयों के खिलाफ केंद्रीय जांच एजेंसियों को अपनी जांच तेजी से पूरा करना सुनिश्चित कराया जाए।

केन्द्रीय जांच ब्यूरो के पास सांसदों और विधायकों की संलिप्तता वाले 37 मामलों की जांच लंबित है। इनमें 17 पीठासीन और पूर्व सांसद तथा 17 वर्तमान और पूर्व विधायक जांच के घेरे में हैं। इसी तरह, प्रवर्तन निदेशालय के पास माननीयों से संबंधित 48 मामलों की जांच लंबित थी।

लेकिन अब केन्द्र और राज्यों के बीच चल रही खींचतान की वजह से भी केंद्रीय जांच एजेंसियों को अपना काम तेजी से निपटाने में परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। कम से कम आठ राज्यों ने डीएसपीई कानून की धारा छह के तहत केंद्रीय जांच ब्यूरो को अपने यहां जांच के लिए पहले दी गई सामान्य सहमति वापस ले ली है। इसका नतीजा यह है कि भ्रष्टाचार के 150 से अधिक मामलों की जांच अधर में लटक गई है।

महाराष्ट्र, पंजाब, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड, पश्चिम बंगाल, केरल और मिजोरम द्वारा सहमति वापस लेने के कारण इन राज्यों को जांच के लिए भेजे गए 150 से अधिक मामले लंबित हैं।

उम्मीद की जानी चाहिए कि देश की राजनीति को आपराधिक तत्वों से मुक्त कराने के प्रयासों में राज्य सरकारें भरपूर सहयोग करेंगी और आवश्यकता पड़ने पर विशेष अदालतों की संख्या भी बढ़ाएंगी। तभी वर्तमान और पूर्व सांसदों-विधायकों के खिलाफ लंबित मुकदमों का तेजी से निपटारा हो सकेगा।

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