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स्वतंत्रता, स्वाधीनता, आजादी और ऎसे ही खूब सारे शब्दों को हमने इतना संकीर्ण बना डाला है कि अब आजादी की बातें कहने का न कोई धरम रहा है, न मायना। विराट अर्थों और व्यापक गहराइयों से भरे इन शब्दों की असलियत जानने की हम कोशिश करें तो हमारे नीचे से जमीन ऎसे खिसक जाएगी जैसे कि अचानक भूकंप के भारी झटके ही आ गए हों।
जिन लोगों ने अपना यौवन, किशोरावस्था, घर-परिवार मानवीय आनंद, धन-सम्पत्ति, समय और श्रम देश को आजादी दिलाने के लिए कुरबान कर दिया, पूरी की पूरी पीढ़ी खप गई, बलिदान हो गई हमारे लिए, सदियों की गुलामी के बाद जो लोग हमें आजादी सौंप गए, उन लोगों से पूछने की जरूरत है कि आजादी दिलाने के लिए उनके मन में क्या संकल्पनाएं थीं, कैसे-कैसे सपने संजोये थे और आज की हालत देख कर उन्हें कैसा लगता है? तब इनकी बातें हमारी आजादी की कलई खोल देने के लिए काफी होंगी। हमारे अमर शहीद आज होते तो शायद दुःखी ही होते।
आजादी का पर्व मनाते हुए हमें अब कभी गौरव नहीं होता, गर्व की बात नहीं, सिर्फ औपचारिकता का निर्वाह ही होकर रह गया है। आजाद होने के इतने वर्षों बाद भी हम कितने आजाद हैं, इस बारे में किसी और से कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं है, अपना अन्तर्मन इसकी सटीक जवाब देगा और साफ-साफ व्याख्या करते हुए अपने आप सब कुछ कह देगा।
सच्चे अर्थों में आजादी पाने के बाद से लेकर अब तक के कालखण्ड का निरपेक्ष मूल्यांकन किया जाए तो हम सभी लोगों में ऎसा अपराध बोध पसरने लग सकता है जिसे विस्मृत करने का कोई उपाय संभव न हो। लेकिन वह भी तब जबकि हमारे मन में देश के प्रति ज़ज़्बे का कोई सा कतरा जेहन के किसी कोने में शेष बचा हो। आजकल तो हम सभी अपने ही आप में इतने रमे हुए हैं कि हमारी हलचलों और हरकतों के बारे में कोई कुछ भी कहता रहे, हम नशल्लों पर कुछ भी फरक नहीं पड़ता क्याेंंकि हमने अपने आपको ही देश मान लिया है और अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति को देशभक्ति।
समाज और देश की फिकर हममें से कितने लोगों में रह गई है, यह बताने की जरूरत नहीं है क्योंकि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। राष्ट्रीय चरित्र, वास्तविक आजादी, देशभक्ति और देश के लिए मर मिटने जैसी बातें करने वाले तो अनगिनत हैं मगर देश के लिए पूरी वफादारी और निष्ठा से काम करने वाले कितने?
दुर्भाग्य यह भी है कि हम लोग मानवीय मूल्यों, राष्ट्रीयता, स्वाभिमान, देशभक्ति और चाल-चलन-चरित्र और संस्कारों की दुहाई देते हुए भारतवर्ष को परमवैभव पर पहुँचाने की बातें तो करते हैं, लेकिन हममें से कितने लोग ऎसे हैं जिनके बारे में स्पष्ट और खुले तौर पर यह कहा जा सकता है कि हम जो कहते हैं, वही करते हैं?
आजादी पाने का तब तक कोई अर्थ नहीं है जब तक हममें देश के लिए सर्वस्व समर्पण के साथ जीने-मरने का माद्दा न हो, देश सर्वोपरि न हो। देश की सारी समस्याओं का खात्मा एक झटके में हो जाए यदि हमारे प्रत्येक कर्म में देश को सामने रखा जाए।
आज हम सभी लोग अपने ही अपने लिए जी रहे हैं, अपने ही घर भर रहे हैं, खुद ही को बुलंद करने में प्राणों की आहुति दे रहे हैं। हममें से खूब सारे ऎसे होंगे जिनके मन में यह संकल्पना है कि देश में जो कुछ है वह उन्हीं के खाते में दर्ज होना चाहिए। फिर चाहे बात दीमक लगी कुर्सियों की हो, रंगीन बत्तियों की हो, या फिर देश की धन-सम्पदा की अथवा किसी भी प्रकार के मुफतिया आनंददायी मार्ग की।
आजादी पाने के इतने वर्ष बाद भी समझदार लोग आप में चर्चा करते हुए कहते हैं कि अंग्रेज चले गए पर काले अंग्रेज रह गए, इससे तो पुराना समय ही ठीक था …. मुखर होकर लोग और भी न जाने क्या-क्या बोल जाते हैं। यह इस बात को साफ इंगित करता है कि हमने आजादी तो पा ली है मगर पूरी तरह आजाद नहीं हुए हैं। असली आजादी तभी मानी जा सकती है जबकि हर देशवासी के मन में देश पहले हो, हर देशवासी को रोजी-रोटी-मकान मिले, प्रत्येक नागरिक सम्मान और स्वाभिमान के साथ निर्भीक होकर जीवनयापन कर सके, देश में कहीं भी निर्बाध और सुरक्षित आवागमन कर सके। किसी भी इंसान को कहीं भी लाईन में न लगना पड़े चाहे वह अस्पताल, राशन की दुकान हो या और कोई सा रोजमर्रा का काम। हर इंसान को इतनी सुख-सुविधा और सुकून मिले कि वह शोषण मुक्त रहकर आनंद के साथ अपने काम कर सके, कोई अपने आपको हीन, शोषित और दुःखी न समझे और राम राज्य की परिकल्पना साकार हो।
यह सब करने के लिए हम सभी को आगे आने की जरूरत है। आम जन से लेकर खास जन मिलकर ही यह काम कर सकते हैं। पर्वतों को अपने शिखरों और आसमान के सामीप्य का अहंकार छोड़ने की जरूरत है और घाटियों को अपनी आत्महीनता त्यागने की। अपना घर भरने की मनोवृत्ति और साम्राज्यवादी सोच को छोड़कर देश भरने की मानसिकता अपनाने की जरूरत है।
निरंकुश बने बैठे लोगों, भ्रष्ट, बेईमान, चोर-उचक्के और डकैतों, रिश्वतखोरों, हरामखोरों, मुफत का माल उड़ाने वालों, शोषकों, सामाजिक सरोकारों के प्रति उदासीनों और निर्वीर्य लोगों को आजादी पर्व पर कुछ भी बोलने का अधिकार नहीं है।
खासकर उन लोगों को आजादी का मर्म समझने की जरूरत है जो अपने पद-मद और कद के इन्द्रधनुषों में रमे रहकर त्रिशंकु बने हुए आसमान और जमीन दोनों का पट्टा अपने नाम लिखाने को आतुर रहते आये हैं। उन लोगों को भी समझने की जरूरत है जो देश को अपनी जागीर समझते हैं और कुर्सियों को अपने दालान के मुड्डे।
मुर्दाल और बीमारू जिस्म को ढो रहे, श्मशान की राह तकते लोगों को भी चाहिए कि वे वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम के उद्देश्य को एक बार पढ़ लें, कुछ नहीं तो जीते जी एक बार गरुड़ पुराण ही पढ़ लें और मुख्य धाराओं को छोड़कर नई जवानी को आगे आने के लिए प्रेरित, प्रोत्साहित एवं निर्देशित करें।
देश अब नयेपन की डगर पर है, सब कुछ अच्छा और कल्याणकारी होने के रास्ते खुलते ही चले जा रहे हैं। ऎसे में हम सभी देशवासियों का फर्ज है कि अपने स्वार्थ, ऎषणाएं और नालायकियां भुलाकर देश के लिए समर्पण भाव दर्शाएं, जो कुछ करें देश के लिए करें। ऎसा आज नहीं सोचा गया तो यह तय है कि देश अब वैसा सुरक्षित नहीं है जैसा कि समझा जा रहा है।
यह तो ठीक है कि देश का नेतृत्व आज ऎसे सक्षम हाथों में है जिनके भरोसे निश्चिन्त रहा जा सकता है। इसके बावजूद हम अपने कत्र्तव्य से बरी नहीं हो सकते। आतंकवादियों और अपने भीतर घुसे बैठे असुरों व देशघातियों को बेपर्दा करें और उन लोगों को आईना दिखाएं जो समाज और देश को भ्रमित कर रहे हैं। इन सब में हमारी भी भागीदारी जरूरी है ताकि अमन-चैन बना रहे। भारतमाता की आराधना और रक्षा के लिए सच्चे देशभक्त साधक, सेवाव्रती और परोपकारी बनना ही आजादी पर्व का मूल पैगाम है।
सभी को आजादी दिवस पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ ….. वन्दे मातरम्।
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