हिन्दू तत्व जागरण अभियान
*** हिन्दू तत्व जागरण अभियान ***
*** रामकृष्ण परमहंस पुण्यतिथि 16/8/2014 ***
कोलकाता भारत
रामकृष्ण परमहंस भारत के एक महान संत एवं विचारक
थे। इन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया।
उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन
हो सकते हैं अतः ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने
कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया।
स्वामी रामकृष्ण मानवता के पुजारी थे। साधना के
फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के
सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे
ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं।
जीवनी
जन्म
कामारपुकुर मेँ स्थित इस
छोटी सी घर मेँ श्रीरामकृष्ण रहते थे
मानवीय मूल्यों के पोषक संत रामकृष्ण परमहंस
का जन्म १८ फरवरी, १८३६ को बंगाल प्रांत स्थित
कामारपुकुर ग्राम में हुआ था। इनके बचपन का नाम
गदाधर था। पिताजी के नाम खुदिराम और
माताजी के नाम चन्द्रमणीदेवी था ।
इनकी बालसुलभ सरलता और मंत्रमुग्ध मुस्कान से हर
कोई सम्मोहित हो जाता था।
परिवार
सात वर्ष की अल्पायु में ही गदाधर के सिर से
पिता का साया उठ गया। ऐसी विपरीत
परिस्थिति में पूरे परिवार का भरण-पोषण कठिन
होता चला गया। आर्थिक कठिनाइयां आईं।
बालक गदाधर का साहस कम नहीं हुआ। इनके बडे भाई
रामकुमार चट्टोपाध्याय कलकत्ता(कोलकाता) में
एक पाठशाला के संचालक थे। वे गदाधर को अपने
साथ कोलकाता ले गए। रामकृष्ण का अन्तर्मन अत्यंत
निश्छल, सहज और विनयशील था। संकीर्णताओं से
वह बहुत दूर थे। अपने कार्यो में लगे रहते थे।
दक्षिणेश्वर आगमन
दक्षिणेश्वर काली मंदिर
सतत प्रयासों के बाद भी रामकृष्ण का मन अध्ययन-
अध्यापन में नहीं लग पाया। कलकत्ता के पास
दक्षिणेश्वर स्थित भवतारिणी काली माता के
मन्दिर में अग्रज रामकुमार ने उन्हेँ पुरोहित
का दायित्व सोँपा, रामकृष्ण इसमें नहीँ रम पाए।
वैराग्य और साधना
कालान्तर में बड़े भाई भी चल बसे। इस घटना से वे
व्याथित हुए।संसार की अनित्यता को देखकर उनके
मन मेँ वैराग्य का उदय हुआ। अन्दर से मन ना करते हुए
भी श्रीरामकृष्ण मंदिर की पूजा एवं अर्चना करने
लगे। दक्षिणेश्वर स्थित पंचवटी मेँ वे ध्यानमग्न रहने
लगे।ईश्वर दर्शन के लिए वे व्याकुल हो गये। लोग उन्हे
पागल समझने लगे।
चन्द्रमणी देवी ने अपने बेटे की उन्माद की अवस्था से
चिन्तत होकर गदाधर का विवाह शारदा देवी से
कर दिया। इसके बाद
भैरवी व्राह्मणी का दक्षिणेश्वर मेँ आगमन हुआ।
उन्होंने उन्हेँ तंत्र की शिक्षा दी । मधुरभाव मेँ
अवस्थान करते हुए ठाकुर ने श्रीकृष्ण का दर्शन
किया। उन्होंने तोतापुरी महाराज से अद्वैत
वेदान्त की ज्ञान लाभ की और जीवन्मुक्त
की अवस्था को प्राप्त किया । सन्यास ग्रहण करने
के वाद उनका नया नाम हुआ श्रीरामकृष्ण परमहंस।
इसके बाद उन्होंने ईस्लाम और क्रिश्चियन धर्म
की भी साधना की।
भक्तों का आगमन
समय जैसे-जैसे व्यतीत होता गया, उनके कठोर
आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार
तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान
शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील
संन्यासियों का प्रिय आश्रयस्थान हो गया। कुछ
बड़े-बड़े विद्वान एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक
साधक जैसे- पं. नारायण शास्त्री, पं. पद्मलोचन
तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण
आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते रहे। वह
शीघ्र ही तत्कालीनन सुविख्यात विचारकों के
घनिष्ठ संपर्क में आए जो बंगाल में
विचारों का नेतृत्व कर रहे थे। इनमें केशवचंद्र सेन,
विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के
नाम लिए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त साधारण
भक्तों का एक दूसरा वर्ग था जिसके सबसे महत्त्वपूर्ण
व्यक्ति रामचंद्र दत्त, गिरीशचंद्र घोष, बलराम
बोस, महेंद्रनाथ गुप्त (मास्टर महाशय) और दुर्गाचरण
नाग थे।[1]
बीमारी और अन्तिम जीवन
रामकृष्ण परमहंस जीवन के अंतिम दिनों में
समाधि की स्थिति में रहने लगे। अत: तन से शिथिल
होने लगे। शिष्यों द्वारा स्वास्थ्य पर ध्यान देने
की प्रार्थना पर अज्ञानता जानकर हँस देते थे। इनके
शिष्य इन्हें ठाकुर नाम से पुकारते थे। रामकृष्ण के
परमप्रिय शिष्य विवेकानन्द कुछ समय हिमालय के
किसी एकान्त स्थान पर तपस्या करना चाहते थे।
यही आज्ञा लेने जब वे गुरु के पास गये तो रामकृष्ण ने
कहा-वत्स हमारे आसपास के क्षेत्र के लोग भूख से तडप
रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है।
यहां लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय
की किसी गुफा में समाधि के आनन्द में निमग्न
रहो क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी। इससे
विवेकानन्द दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये।
रामकृष्ण महान योगी, उच्चकोटि के साधक व
विचारक थे। सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रशस्त मानकर
अनेकता में एकता का दर्शन करते थे। सेवा से समाज
की सुरक्षा चाहते थे। गले में सूजन को जब डाक्टरों ने
कैंसर बताकर समाधि लेने और वार्तालाप से
मना किया तब भी वे मुस्कराये। चिकित्सा कराने
से रोकने पर भी विवेकानन्द इलाज कराते रहे।
चिकित्सा के वाबजुद उनका स्वास्थ्य
बिगड़ता ही गया।
मृत्यु
अंत मेँ वह दुख का दिन आ गया।1886 ई. 16 अगस्त,
सवेरा होने के कुछ ही वक्त पहले आनन्दघन विग्रह
श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को त्याग कर
महासमाधि द्वारा स्व-स्वरुप में लीन हो गये।
रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय बेलुड़ मठ
मेँ स्थित श्रीरामकृष्ण की मार्वल
प्रतिमा है
श्रीमहन्त नारायण गिरि
दुधेश्वर पीठाधीश्वर गाजियाबाद
अन्तर्राष्ट्रीय मंत्री
श्रीपंचदशनाम जुना अखाड़ा
वाराणसी उत्तर प्रदेश