जिस प्रकार इन थोड़े से शब्दों का नमूना दिखलाया गया, उसी तरह सभी ऐतिहासिक शब्दों पर प्रकाश डाला जा सकता है। किंतु हम वेद भाष्य करने नही बैठे। हमें तो केवल थोड़ा सा नमूना दिखलाकर पाठकों से यह निवेदन करना है कि वे थोड़ी देर के लिए अपने मगज में जमे हुए इस विचार को निकाल दें कि वेदों में ऐतिहासिक सामग्री है। वे प्रत्येक ऐतिहासिक नाम के के आसपास वाले शब्दों पर साधारण दृष्टि डालें, तथा उन ऐतिहासिक शब्दों को मंत्रों के अन्य शब्दों के साथ मिलावें, तो तुरंत ज्ञात हो जाएगा कि वेदों में न तो ऐतिहासिक मनुष्यों का वर्णन है और न उनसे संबंध रखने वाले पदार्थों का जिक्र है।
ऋ 1 । 16 । 2 में ‘इमं नरो मरूत:’ और 3 । 7 । 7 में ‘अध्वर्युभि: सप्त विप्रा:’ कहा गया है। यहां मरूत को नर मनुष्य को पांच अध्वर्यु अर्थात पांच ज्ञान इंद्रियों को सात विप्र कहा गया है। आंख, कान, नाक, मुख और चर्म के पांच अध्वर्यु हैं और इनमें दो आंख दो कान, दो नाक और एक मुख ये सात छिद्र विप्र हैं। जब मनुष्य संबंधी शब्दों से भी अन्य पदार्थों का ग्रहण किया गया है, तब भला आकाशीय पदार्थों के इतिहास के लिए कहां ठिकाना है?
वेदों में वेदों का वर्णन
चारों वेदों में ऋक, यजु:, साम और अथर्ववेद का वर्णन आता है, तो क्या इन वेदों के पहले और कोई चार वेद थे? जिस ऋग्वेद में ऋग्वेद का वर्णन आता है, क्या वह वर्णित ऋक कोई अन्य था? यदि कल्पना करें कि हां, कोई अन्य ऋग्वेद था, तो इस प्रचलित ऋग्वेद का नाम कुछ और होना चाहिए था, पर वैसा नही है। यही ऋग्वेद अपने से पूर्व ऋग्वेद का वर्णन करता है। वह पूर्व ऋग्वेद और कुछ नही है, वह यही वर्तमान ऋग्वेद ही है। इस तरह से भूत और वर्तमान दोनों काल में ही एक ही वेद अव्याहत गति से चले आ रहे हैं।
जिस प्रकार वर्तमान ऋग्वेद में ऋग्वेद ही का वर्णन आ जाने से यह वर्तमान ऋग्वेद उस वर्णित ऋग्वेद से नवीन सिद्घ नही होता, इसी तरह अब तक कहे हुए समस्त ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम आ जाने से वेद उनके पश्चात के बने हुए सिद्घ नही होते।
वेदों की यह विचित्र शैली है, जो बड़े मार्मिक ढंग से भूत, भविष्य और वर्तमान पदार्थों का वर्णन एक ही रीति से करती है। इसका कारण वेदों की नित्यता है। नित्य पदार्थ, नित्य और अनित्य पदार्थों को एक समान ही अनुभव करता है। तद्वत नित्यसिद्घ वेद भी नित्य और अनित्य पदार्थों का वर्णन एक ही समान करते हैं।
वेदों में अन्य ऐतिहासिक वर्णन
वेदों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि उनमें इंद्र और वृत्त के युद्घ, विवाह के नियम, यज्ञ के विधान, वर्णाश्रम, सदाचार आदि की शिक्षा का वर्णन है। ये सब मनुष्य समाज के व्यवहार हैं। इन व्यवहारों से ज्ञात होता है कि वेद तब लिखे गये, जब इस प्रकार के व्यवहार आर्यों में प्रचलित होकर बद्घमूल हो चुके थे। ऐसी दशा में संभव नही है कि वेदों में ऐतिहासिक वर्णन न हो। व्यक्ति विशेष का वर्णन भले न हो, पर सामूहिक रीति से समाज के व्यवहारों का वर्णन सही है? सामाजिक व्यवहारों के लिए तो वेदों का प्रादुर्भाव ही हुआ है। सामाजिक व्यवहारों का वर्णन यदि उनमें न हो-यदि वेदों में समाज को क्या करना चाहिए और क्या न करना चाहिए, न बतलाया गया हो-तो फिर संसार में उनका उपयोग ही क्या? किंतु इस व्यावहारिक वर्णन से यह अर्थ नही निकल सकता कि वेद व्यवहार के बाद बने अर्थात जब विवाह हो चुके थे, तब विवाह का ज्ञान हुआ। और जब युद्घ हो चुके थे तब युद्घ की शिक्षा आरंभ हुई। प्रश्न तो यह है कि जब शादी का प्रचार ही नही था तो पहली शादी हुई कैसे? जब युद्घ जैसी वस्तु का ज्ञान ही नही था तो युद्घ हुआ कैसे? कोई भी सामाजिक व्यवहार ऐसा नही कहा जा सकता कि जब से यह व्यवहार हुआ तभी से इसका अस्तित्व है, इसके पहले से नही। इस विषय को जरा खुलासा रीति से समझना चाहिए।
क्रमश: