राष्ट्र जागरण के पुरोधा कवि मासूम गाजियाबादी जी से ‘उगता भारत’ की एक विशेष बातचीत
जो लोग इस (नीचे Photo में) शेर से परिचित है, वो इसके शायर से भी परीचित होंगे। एक आम आदमी की संवेदना को इतनी बारीकी से उकेरने वाली वह कलम सचमुच किसी परिचय की मुंहताज नही है, जिसे लोग मासूम गाजियाबादी के नाम से
‘‘मेरी औकात से बढक़र न शौहरत दे मेरे मालिक,
जरूरत से जियादा रोशनी अंधा बनाती है।’’
वह अपने निर्माण में जिन लोगों ने सहयोग दिया है, उनका धन्यवाद करना और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना भी नही भूले। इसलिए बड़ी सहजता से कह दिया-
‘‘दरो दीवार तक यूं ही नही पहुंचा मेरे हमदम,
मैं वो छप्पर हूं जिसको सबने मिल जुलकर उठाया है।’’
मासूम साहब हमें बताते हैं कि अभी तक उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। जिनके नाम हैं-‘देखा कभी आपने’, ‘अहसास के पर, और ‘तुम्ही से तो गिला है’।
अपने ही विचारों के संसार में मस्त रहने वाले गंभीर प्रकृति के धनी श्री मासूम जी जनपद गौतमबुद्घ नगर के ग्राम चिपियाना बुजुर्ग के मूल निवासी हैं। जनपद गौतमबुद्घ नगर के निर्माण से पूर्व यह गांव जनपद गाजियाबाद में आया करता था, इसलिए मासूम साहब के नाम के पीछे ‘गाजियाबादी’ लग गया। वैसे उनका अपना बचपन का माता-पिता के द्वारा दिया गया नाम नरेन्द्र है। वह अपनी कविता के विषय में बताते हैं कि उन्हें कविता का शौक बचपन से ही था और जब मैं कक्षा पांच में पढ़ता था, तब गाजियाबाद के घंटाघर पर जाकर महेन्द्र पाल सिंह नामक व्यक्ति से उर्दू शेरो-शायरी की पुस्तक खरीदता था। उन्हें पढ़ता था और उनके कठिन शब्दों के अर्थ कभी शब्दकोश से तो कभी किसी शेर के नीचे लिखी तालिका में खोजता, या किसी जानकार व्यक्ति से उसका अर्थ पूछता। वह कहते हैं कि मुझे उर्दू लिपि का ज्ञान तो नही था परंतु उर्दू भाषा का ज्ञान अवश्य होने लगा और मेरी जबान में उर्दू छाने लगी। अपनी यात्रा के शुरूआती दिनों की ओर जाते हुए मासूम साहब फरमाते हैं कि तब मेरी कवितायें ‘मुक्तिद्वीप’ नामक एक समाचार पत्र में छपा करती थीं। जिन्हें जमील हापुड़ी साहब ने पढ़ा और अपनी सकारात्मक प्रोत्साहन से भरी हुई प्रतिक्रिया दी। परंतु उन कविताओं में जो कमी रह जाती थी उन्हें दूर करने के लिए जमील साहब ने एक शर्त रख दी कि यदि उस्ताद मानोगे तो हम इन्हें दूर कर सकते हैं। उनका यह प्रस्ताव मेरे सामने चौधरी जसवंत सिंह नामक एक व्यक्ति के माध्यम से आया, तो मैंने जमील साहब से मुलाकात की और अपनी कविता के लिए उनका आशीर्वाद प्राप्त किया।
एक जनवरी 1953 को जन्मे 61 वर्षीय मासूम जी के पिता का नाम श्री बनवारीलाल तथा माता का नाम श्रीमती परमेश्वरी देवी था। वह बताते हैं कि अपने पिता की हम केवल दो ही संतानें हैं, मेरा एक अन्य भाई भी है। अपने मासूम नाम के दिये जाने का रहस्य बताते हुए वह कहते हैं कि लोकगीतों के सुप्रसिद्घ गायक पीरू जी के द्वारा उन्हें यह नाम दिया गया।
….और सचमुच मासूम साहब ने हर व्यक्ति को निर्दोष (मासूम) बनाने के लिए अपनी कविता को जो बुलंदियां दीं, उन्हें देखकर लगता है कि उन्होंने यथानाम तथागुण वाली कहावत को चरितार्थ करने का सार्थक और गंभीर प्रयास किया है। वह कहते हैं-
‘‘उसे किसने इजाजत दी गुलों से बात करने की।
सलीका तक नही जिसको चमन में पांव रखने का।’’
मतलब साफ है कि गुलों से यदि बात करना चाहते हैं सपने यदि ऊंचे लेना चाहते हो तो इस दुनिया रूपी चमन में और कुदरत के इस विशाल बगीचे में पांव रखना पहले सीखो।
शायद इसीलिए मासूम जैसा कवि दिलों को बदलने की ताकत केवल कविता में देखता है। जिसके माध्यम से बात दिल से निकलकर दिल में ही जाती है, और आदमी को गहराई से सोचने के लिए प्रेरित और बाध्य करती है। उनकी ये पंक्तियां बहुत कुछ कहती हैं-
‘‘वतन क्या हम वतन क्या है, ये लगता है सियासत से,
कि जैसे कातिलों की परवरिश का काम सौंपा था।’’
मासूम साहब कहते हैं कि वर्तमान में राजनीति जिस दिशा में जा रही है, वह चिंता का विषय है। राजनीति को वह सबसे बड़ा धर्म मानते हैं और यदि इस धर्म में गिरावट आ गयी तो सारा सामाजिक परिवेश ही दूषित प्रदूषित हो जाएगा। इसलिए उनका मानना है कि राजनीति में व्यवस्था परिवर्तन होना चाहिए। ऊपरी परिवर्तन को वह अपर्याप्त समझते हैं, इसलिए उनका कहना है-
कभी सय्याद के डर से कभी मौसम से घबराकर,
परिन्दों ने नशेमन और कभी बागात बदले हैं।
गुलों की खैर चाहो तो निजामे गुलसितां बदलो,
निगेहबां के बदलने से कहीं हालात बदले हैं?
मासूम जी जैसे कवि वक्त की धरोहर होते हैं, समय को ये निरपेक्ष भाव से देखते हैं और अपना काम करते जाते हैं, जबकि वक्त इनकी ‘वक्त’ करता है और इनके प्रति सापेक्ष भाव प्रदर्शन करता है। वह ऐसे व्यक्तियों को अपने कैमरे की जद में और हद में कैद करके चलता है और इन्हें अपनी एक बेशकीमती धरोहर समझकर इतिहास के हवाले कर देता है। ये सादगी भरे लिबास को ओढ़े चलने वाली खूबसूरत जिंदगियां ही इतिहास के पन्नों पर जगह पाती हैं और जो लोग इनकी कीमत नही समझ पाये होते हैं वो इतिहास के पन्नों पर इनके नामों को देखकर इतिहास पर खीजते हैं और अपने कर्म पर पछताते हैं कि ‘या हुसैन हम ना हुए।’ मुझे एक प्रसंग स्मरण आ रहा है, जो मासूम जी जैसी शख्सियतों पर खरा उतरता है। प्रसंग ये है कि एक ब्राहमण गौतमबुद्घ से दीक्षा लेकर भिक्षु हो गया। उसका एक संबंधी इससे बड़ा बिगड़ा और तथागत को गालियां देने लगा। जब थककर चुप हो गया तो तथागत ने पूछा-‘‘क्या भाई! तुम्हारे घर कभी अतिथि आते हैं?’’
‘‘आते हैं।’’
‘‘तुम उनका सत्कार करते हो?’’
‘‘अतिथि का सत्कार कौन मूर्ख नही करेगा?’’
‘‘मान लो तुम्हारी दी हुई चीजें अतिथि स्वीकार न करे तो वे कहां जाएंगी?’’
‘‘वे जाएंगी कहां अतिथि नही लेगा तो मेरे पास ही रहेंगी?’’
‘‘तो भद्र! तुम्हारी दी हुई गालियां मैं स्वीकार नही करता।’’
ब्राह्मण का मस्तक लज्जा से झुक गया।
मासूम साहब इस आदर्श व्यवस्था को और तथागत जैसी गंभीरता को भारतीय धर्म और संस्कृति का एक अनमोल हीरा मानते हैं और इसी को समाज के हर व्यक्ति द्वारा स्वीकार कर तदानुसार अपने जीवन व्यवहार को सुधारने और संवारने की अपेक्षा करते हुए कहते हैं कि भारतीय संस्कृति महान है, और उसे हर व्यक्ति के दिल में कविता के माध्यम से उतारने की आज आवश्यकता है। इसलिए कविता में हास-परिहास और श्रंगार के वह एक सीमा तक तो पक्षधर है, पर हर समय और हर स्थिति परिस्थिति में कविता को केवल इन्हीं नकारात्मक बिंदुओं के इर्द-गिर्द घुमाते रहने को समाज के लिए ‘खतरे की घंटी’ मानते हैं। समाज में अश्लीलता परोसने वालों को वह आड़े हाथों लेते हुए कहते हैं-
‘‘ये कैसे लोग हैं खुद को बचा लेने की कोशिश में,
दुपट्टा अपनी ही बेटी के सिर से खींच लेते हैं।’’
मासूम जी मर्यादित जीवन शैली को ही व्यक्ति का धर्म मानते हैं और अमर्यादित जीवन शैली को आज के समाज के कोलाहल का महत्वपूर्ण कारण मानते हैं, समाज के अमर्यादित आचरण पर उनकी दमदार लेखनी क्या व्यंग्य करती है-
‘‘ये क्या आंखों पे तुम अपनी अभी से हाथ रख बैठे।
हमारे नंगेपन की इंतिहां को कौन देखेगा?’’
अत: जो लोग मर्यादा को तार-तार करने में मर्यादा की हदों को पार कर रहे हैं, उन्हें मासूम साहब पसंद नही करते। उनकी कविता प्रेरणा के लिए बनती है, और उसी पर खत्म होती है। मासूम जी कहते हैं कि वह संत मुरारी बापू के मुरीद हैं। बापू जी अपने प्रवचनों में मेरे शेरों को यदा कदा बोल देते हैं, तो उनके इस आशीर्वाद को पाकर मैं कृत कृत्य हो जाता हूं कि एक संत ने मेरी कलम को आशीर्वाद दिया है। अंत में वह कहते हैं कि लक्ष्य निर्धारित करो और आगे बढ़ो मंजिल अवश्य मिलेगी। वह जोर देकर कहते हैं कि मंजिल मिलती ही उनको है जो मंजिल की ओर बढ़ते हैं, इसलिए कदम-कदम बढ़ते रहो, मंजिल अपने दर पर तुम्हारा इस्तकबाल खुद करेगी।
– संपादक