“ऋषि-बोधोत्सव पर ऋषि दयानन्द जी को सादर नमन”
ओ३म्
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आज मंगलवार दिनांक 1 मार्च, 2022 को ‘ऋषि-बोधोत्सव’ का पर्व आर्यसमाजों व आर्य संस्थाओं में सर्वत्र मनाया जा रहा है। आज से 183 वर्ष पूर्व टंकारा के एक शिवमन्दिर में शिवरात्रि का व्रत-उपवास करते हुए ऋषि दयानन्द को चूहे की एक घटना से बोध प्राप्त हुआ था। उन्हें बोध हुआ था कि मन्दिर मे शिवलिंग सच्चे शिव वा ईश्वर का साक्षात् चेतनस्वरूप नहीं है। उस जड़मूर्ति से हमें किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये। मूर्ति में जड़ता का गुण होता है। वही गुण शिव व अन्य सभी मूर्तियों व जड़ पदार्थों में समान रूप से होता है। यह तर्कपूर्ण वचन हैं। व्यवहार में ही यही दृष्टिगोचर होता है। यदि हमें किसी से प्रार्थना करनी है तो वह हमें चेतन पदार्थों ईश्वर व मनुष्य आदि से ही करनी चाहिये। तभी वह प्रार्थना पूरी व आंशिक पूर्ण होने की सम्भावना हो सकती है, अन्यथा नहीं। संसार में चेतन जीवात्माओं से भिन्न सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर की एक ही सत्ता है जो सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, दयालु, कृपालु, न्यायकारी, अनादि, नित्य, अविनाशी, जीवों को कर्मों की फल-प्रदाता है। उसी ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर परिश्रमपूर्वक सत्कर्मों को करके प्रार्थना करने पर ईश्वर से कार्य की सफलता होने की सम्भावना होती है। शिवरात्रि के दिन बोध होने के बाद स्वामी दयानन्द, जिनका बाल्यकाल का नाम मूलशंकर था, जीवन बदल गया था। इसके बाद उन्होंने ईश्वर के सत्यस्वरूप, उसकी उपासना की यथार्थ पद्धति वा विधि तथा मृत्यु के स्वरूप पर विचार व चिन्तन किया। घर का त्याग कर वह इन्हीं प्रश्नों के समाधान के लिये देश के अनेक भागों में विद्वानों के सम्पर्क में आये और अन्ततः मथुरा के स्वामी विरजानन्द सरस्वती से तीन वर्ष संस्कृत व्याकरण का अध्ययन कर अपनी समस्त शंकाओं का उत्तर प्राप्त किया। इसके साथ ही वह स्वामी विरजानन्द जी से अध्ययन से पूर्व ही योगाभ्यास कर समाधि का लाभ भी प्राप्त कर चुके थे। गुरु विरजानन्द जी की प्रेरणा से सन् 1863 में उन्होंने देश से अविद्या वा अज्ञान दूर करने का संकल्प लेकर जीवनपर्यन्त अविद्या दूर करने का उपाय वेद प्रचार का कार्य किया। शिवरात्रि का यही सन्देश है कि सभी मनुष्य योग्य गुरुओं से शिक्षा प्राप्त करें। स्वयं को अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियों तथा अहितकर कार्यों से दूर रखें। ईश्वर की उपासना तथा परोपकार के कार्य करते हुए जीवन व्यतीत करें। सदा देशहित के कार्यों से युक्त होकर सज्जन पुरुषों की ही संगति करें। अपने स्वार्थों का त्याग कर देश व समाज में सत्पुरुषों को आगे बढ़ायें तथा देश व समाज के हितों के विपरीत स्वार्थ से प्रेरित होकर कार्य करने वाले लोगों का विरोध करें। दूसरों को भी ऐसा ही करने की प्रेरणा सभी ऋषिभक्तों को करनी चाहियें।
स्वामी दयानन्द जी ने शिवरात्रि पर बोध होने के बाद अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये जिससे देश में परिवर्तन व क्रान्ति आई। स्वामी जी ने गुरु विरजानन्द जी से सन् 1863 में विदा लेकर समाज सुधार, राष्ट्रीय एकता के लिए प्रयत्न, विद्या व शिक्षा का प्रसार, धर्म वा सत्य प्रचार, शुद्धि की प्रेरणा आदि अनेक कार्य किये। उन्होंने अप्रैल, 1875 में मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। उन्होंने धर्म प्रचार व अविद्या दूर करनेके लिये सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, ऋग्वेद (आंशिक) तथा यजुर्वेद सम्पूर्ण वेदभाष्य संस्कृत व हिन्दी में किया। पंचमहायज्ञ विधि, गोकरुणाविधि, व्यवहारभानु, संस्कृत व्याकरण के वेदांग-प्रकाश आदि अनेक लघु ग्रन्थों की रचना व प्रचार किया। उन्होंने विधर्मी व वेदविपरीत मतों के विद्वानों से सत्यासत्य के निर्णय के लिये प्रायः सभी व अनेक मतों के विद्वानों से शास्त्रार्थ किये और सभी वार्तालापों वा शास्त्रार्थों में उनकी विजयी हुई। उन्होंने अपने जीवन में सभी जिज्ञासु व विद्वानों की सभी शंकाओं का समाधान भी किया। कोई व्यक्ति व विद्वान उन्हें किसी विषय में निरुत्तर नहीं कर पाया।
देश की स्वतन्त्रता व स्वराज्य का विचार भी ऋषि दयानन्द जी ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के संशोधित संस्करण द्वारा सन् 1883-1884 में दिया था। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में लिखा था कि कोई कितना ही कहे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उततम होता है। अथवा मत-मतान्तरों के आग्रह रहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य, माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। इन्हीं विचारों से असंख्य लोगों ने देश को आजाद कराने की प्रेरणा व शिक्षा प्राप्त की थी। इन्हीं विचारों के परिणामस्वरूप ऋषि के कुछ मुख्य अनुयायियों स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद भगत सिंह जी आदि ने अपना जीवन देश की आजादी के लिए समर्पित किया था और स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिये महान कार्य किये। शिक्षा के क्षेत्र में भी आर्यसमाज के अनुयाययियों ने क्रान्तिकारी कार्य किये। ऋषि दयानन्द जी के प्रमुख अनुयायी स्वामी श्रद्धानन्द जी ने हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी शिक्षा संस्थान की स्थापना सन् 1902 में की थी। आज आर्यसमाज देश भर में कन्याओं व बालकों के सैकड़ों गुरुकुल संचालित कर रहा है जहां वैदिक विद्वान तैयार किये जाते हैं। ऋषि दयानन्द के प्रमुख शिष्य महात्मा हंसराज जी ने दयानन्द ऐंग्लो वैदिक स्कूल एवं कालेज (डीएवी स्कूल एवं कालेज) स्थापित कर देश से अविद्या व अज्ञान दूर करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। आज भी यह आन्दोलन वा शिक्षा संस्थान लाखों लोगों को आधुनिक सभी विषयों की शिक्षा से अलंकृत कर रहा हैं।
अनाथों की रक्षा के लिये भी आर्यसमाज ने देश भर में अनाथाश्रमों का संचालन किया व अब भी कर रहा है। आर्यसमाज प्रत्येक सप्ताह अपने मन्दिरों व सभागारों में साप्ताहिक सत्संग कर वायु-जल प्रदुषण दूर करन एवं परोपकार के श्रेष्ठतम कार्य ‘अग्निहोत्र यज्ञ’ को करने सहित अविद्या दूर करने तथा वेद प्रचार व प्रचचनों पर आधारित सत्संगों का आयोजन कर अपने सदस्यों व अन्यों की अविद्या को भी दूर करता है। आर्यसमाज ने अनेक स्थानों पर वानप्रस्थ तथा सन्यासाश्रम भी स्थापित व संचालित किए हैं व अब भी कर रहा है। गोपालन व गोरक्षा का भी महान कार्य समाज ने किया व कर रहा है। महर्षि दयानन्द का लिखा ‘गोकरूणानिधि’ ग्रन्थ लघु ग्रन्थ होने पर भी उनके जीवन काल में लिखा गया अत्युत्तम लाभप्रद एवं प्रेरक ग्रन्थ है। यदि कोई व्यक्ति इस ग्र्रन्थ को पढ़ ले तो अवश्य गोरक्षक बनने के साथ मांसाहार का त्याग कर सात्विक जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा ग्रहण करता है। स्वामी दयानन्द ने समाज से सभी प्रकार के अन्धविश्वास एवं सामाजिक दोषों को दूर किया। उन्होंने अस्पर्शयता पर भी प्रहार किया था। एक दलित बन्धु द्वारा उन्हें दी गई सूखी रोटी खाकर उन्होंने हिन्दू समाज को जातिवाद व छुआछूत दूर करने का सन्देश दिया था। स्वामी दयानन्द जी के विचारों से प्रभावित होकर लोगों ने जन्मना जाति का प्रयोग छोड़कर श्रेष्ठ गुणों के प्रतीक ‘‘आर्य” शब्द का प्रयोग करना आरमभ किया था तथा अपने परिवारों में जन्मनाजाति का त्याग कर गुण, कर्म तथा स्वभाव पर आधारित अपनी सन्तानों के विवाह सम्पन्न किये थे। स्वामी दयानन्द जी का जीवन अनेक प्रेरक प्रसंगों से भरा पढ़ा है जिसे पढ़कर और आचरण में लाकर मनुष्य महात्मा, महाशय तथा श्रेष्ठ मनुष्य बनता है। मनुष्य स्वस्थ जीवन व्यतीत करने एवं दीर्घायु प्राप्त करने सहित सम्मानित एवं प्रसन्नतायुक्त जीवन व्यतीत करता है। उसकी इस जन्म तथा परजन्म में उन्नति भी होती है।
आज स्वामी दयानन्द जी के बोध दिवस पर हम उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। हम अपने एक बाल्यकाल के मित्र श्री धर्मपाल सिंह जी की प्रेरणा से आर्यसमाज के सम्पर्क में आये थे और इसके अनुयायी बने थे। आज 70 वर्ष की आयु में हमें इस बात का सन्तोष है कि हमने आर्यसमाज का अनुयायी बनकर अपने जीवन को स्वाध्याय व लेखन आदि कार्य करके उपयोगी बनाया है। हम ऋषि दयानन्द जी और आर्यसमाज के ऋणी हैं। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के अविद्या के नाश तथा विद्या की उन्नति के प्रतीक वेद-प्रचार कार्य की सफलता का स्वप्न साकार हो। वेद के शब्दों ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ को सफलता प्राप्त हो। देश व समाज से अज्ञान व अविद्या दूर हो। हमें लगता है कि वेदानुयायी एवं वेद-प्रचारक मनुष्य तो केवल प्रयत्न ही कर सकते हैं परन्तु इस कार्य में सफलता तो परमात्मा की लोगों को अन्तःप्रेरणा से ही प्राप्त हो सकती है। ईश्वर सब मनुष्यों के हृदयों में वेदाध्ययन की प्रेरणा एवं वेदों को ग्रहण एवं धारण करने की प्रेरणा करें। ऋषि दयानन्द को बोध दिवस पर हमारा बारम्बार नमन है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य