अनुच्छेद 370 के प्रयोग की त्रुटिपूर्ण प्रक्रिया
अनुच्छेद ३७० संघीय संविधान में एक अस्थायी और संक्रमणकालीन व्यवस्था थी । राज्य की संविधान सभा द्वारा जम्मू कश्मीर रियासत के भारत में अधिमिलन की पुष्टि कर दिये जाने के पश्चात् इस की उपयोगिता स्वत समाप्त हो गई थी । काल प्रवाह में जम्मू कश्मीर में संक्रमण काल भी समाप्त हो गया । इससे इस अस्थाई प्रावधान की प्रासांगिकता भी नहीं रही । लेकिन जम्मू कश्मीर में वहाँ की सरकार ने इस अनुच्छेद का सहारा लेकर अपने राज्य के लिये , अपवाद और उपांतरण शब्दावली का सहारा लेकर , भारत का नया संविधान निर्माण कर लिया , जिसकी मूल आत्मा वर्तमान संघीय संविधान की मूल आत्मा के बिल्कुल विपरीत जाती है । संघीय संविधान का मूल ढाँचा मौलिक अधिकारों के धरातल पर अवस्थित है जो कि किसी भी स्वस्थ्य लोकतंत्र की आधार भित्ति होते हैं । संघीय संविधान राज्य के सभी निवासियों के साथ बिना किसी भेद के समान व्यवहार पर अवस्थित है । लेकिन जम्मू कश्मीर की सरकार/विधान सभा ने राज्य के लिये भारत के जिस संविधान का निर्माण किया है और संविधान(जम्मू कश्मीर में लागू) आदेशों का सहारा लेकर अभी भी निरन्तरता में किया जा रहा है , वह संविधान राज्य के नागरिकों को ही दो भागों में विभाजित कर देता है । भारत के वे नागरिक जो जम्मू कश्मीर के स्थायी निवासी हैं , उन मौलिक अधिकारों से बंचित हैं जिनका लाभ शेष नागरिकों को मिल रहा है । वे नागरिक जो राज्य के स्थायी निवासी नहीं हैं , लेकिन पिछले साठ वर्ष से भी ज़्यादा समय से राज्य में रह रहे हैं , उनको उन सुविधाओं से बंचित किया जा रहा है जो स्थायी नागरिकों को मिल रहीं हैं ।
न्यायालय में अनुच्छेद ३७० को लेकर जो व्याख्याएँ हो रही हैं वे उस पृष्ठभूमि की व्याख्या नहीं करतीं जिस पृष्ठभूमि में इस अनुच्छेद की रचना की गई थी और इसे संघीय संविधान में जोड़ा गया था । यह व्यवस्था केवल अस्थायी नहीं है बल्कि एक विशेष प्रकार के संक्रमण काल के लिये उपयोग में लाई गई थी । अस्थायी का अर्थ कितना समय माना जाये , इस मुद्दे पर तो अलग मत और अलग राय संभव हैं लेकिन संक्रमण काल को तो साठ साल के लम्बे अरसे तक नहीं घसीटा जा सकता है । न्यायालयों को इस अनुच्छेद की व्याख्या करते समय संक्रमण काल के अर्थ का भी ध्यान रखना ही चाहिये । अनुच्छेद का अभिप्राय जम्मू कश्मीर राज्य में संघीय संविधान के प्रावधानों को लागू करना है न कि उसके रास्ते में बाधा उत्पन्न करना । यदि राज्य सरकार ऐसी संस्तुति करती है जिससे यह व्यवधान पैदा होता हो या फिर संघीय संविधान की मूल संरचना पर ही प्रहार होता हो तो उसे स्वीकारा नहीं जा सकता । अनुच्छेद ३७० की व्याख्या , इस अनुच्छेद के रचयिता गोपालस्वामी आयंगर के संविधान सभा में दिये गये भाषण को पढ़ कर ही की जा सकती है ।
लेकिन इन व्याख्याओं में एक महत्वपूर्ण बिन्दू छूट रहा है जिस पर न तो न्यायालय ध्यान दे रहा है और न ही विधानपालिका । यह ठीक है कि अनुच्छेद ३७० में राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि वह संघीय संविधान के विभिन्न प्रावधान अपवादों व उपांतरणों सहित जम्मू कश्मीर में लागू करने के लिये अधिसूचना जारी करे । राष्ट्रपति इसके तहत १९५० , १९५२ और १९५४ में अधिसूचनाएँ जारी कर भी चुके हैं । १९५४ की अधिसूचना में अभी तक दूसरी अधिसूचनाओं के माध्यम से लगभग पचास बार संशोधन भी किये जा चुके हैं । लेकिन मूल प्रश्न है कि संघीय संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों को जम्मू कश्मीर में लागू करने के लिये , यदि उनमें उपांतरण प्रस्तावित है , इस प्रक्रिया की शुरुआत कौन करेगा ? इसके बारे में कोई मत बनाने से पहले मूल उपबन्ध को देख लेना जरुरी है । इसके अनुसार–
३७०(१)(घ) इस संविधान के ऐसे अन्य उपबन्ध ऐसे अपवादों और उपांतरणों के अधीन रहते हुये , जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विनिर्दिष्ट करें, उस राज्य के सम्बंध में लागू होंगे ।
परन्तु ऐसा कोई आदेश जो उपखण्ड (ख) के पैरा(।) में निर्दिष्ट राज्य के अधिमिलन पत्र में विनिर्दिष्ट विषयों से सम्बंधित है , उस राज्य की सरकार से परामर्श करके ही किया जायेगा , अन्यथा नहीं ।
परन्तु यह और कि ऐसा कोई आदेश जो अंतिम पूर्ववर्ती परंतुक में निर्दिष्ट विषयों से भिन्न विषयों से सम्बंधित है , उस सरकार की सहमति से ही किया जायेगा ,अन्यथा नहीं ।
इसका अर्थ यह हुआ कि राष्ट्रपति पहले यह फ़ैसला करेगा कि संघीय संविधान के कौन से उपबन्ध जम्मू कश्मीर में लागू करने हैं और कौन से नहीं । यह फ़ैसला करने के पश्चात् वह राज्य सरकार से उस उपबन्ध को लागू करने या उपांतरणों सहित लागू करने के लिये , जैसी भी स्थिति हो , सलाह करेगा या सहमति प्राप्त करने का उद्यम करेगा । यदि राज्य सरकार राष्ट्रपति के उस प्रस्ताव को सहमति दे देती है तब राष्ट्रपति एक अधिसूचना द्वारा उसको राज्य में लागू कर देगा , यदि राज्य सरकार सहमति देने से इन्कार करती है तो राष्ट्रपति अधिसूचना जारी नहीं कर सकते । संविधान के अनुसार राष्ट्रपति ही इस प्रक्रिया को प्रारम्भ वकर सकता है । यह विशेष प्रक्रिया भी अनुच्छेद ३७० का ही हिस्सा है । यदि इस प्रक्रिया को छोड़ कर कोई और प्रक्रिया अपनाई जाती है तो या तो वह इस अनुच्छेद का दुरुपयोग माना जायेगा या फिर इस प्रक्रिया को त्यागकर किया गया कार्य ही असंवैधानिक हो जायेगा । राष्ट्रपति ने १९५० से लेकर अब तक लगभग पचास संविधान(जम्मू कश्मीर में लागू) आदेश इस अनुच्छेद के अन्तर्गत निकाले हैं । ये सभी आदेश जिनके माध्यम से संघीय संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में मूल चामूल परिवर्तन कर दिया गया है । लेकिन अपवाद या उपांतरण सहित संघीय अनुच्छेदों को राज्य में लागू करवाने की प्रक्रिया की शुरुआत राष्ट्रपति की ओर से नहीं हुई बल्कि राज्य सरकार की तरफ़ से हुई है । यह प्रक्रिया ही अपने मूल रुप में त्रुटिग्रस्त हैं । व्यवहार में क्या हो रहा है ? जम्मू कश्मीर सरकार अधिसूचना का प्रारूप बना कर राष्ट्रपति को भेज देती है , जिसमें अपनी सुविधानुसार संघीय संविधान में मनमाने परिवर्तन कर लिये जाते हैं । ये प्रारूप केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय के माध्यम से भेजे जाते हैं । राष्ट्रपति केवल उन अधिसूचनाओं को जारी करने के लिये रबड़ की मोहर का काम मात्र करता है ।
यह ठीक है कि राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल की सलाह से ही कार्य करना होता है , लेकिन अनुच्छेद ३७० में राष्ट्रपति को असाधारण ताक़त दी गई है । उसी का हिस्सा है कि उसे प्रक्रिया की शुरुआत स्वयं करनी होती है । यदि मंत्रिमंडल की सलाह के सिद्धान्त को और स्ट्रैच कर लिया जाये तो कहा जा सकता है कि यह प्रक्रिया केन्द्र सरकार का गृहमंत्रालय शुरु कर सकता है और उसे राष्ट्रपति के पास भेज सकता है । ऐसा प्रस्ताव मिलने पर राष्ट्रपति उसे सलाह या सहमति के लिये राज्य सरकार के पास भेज सकता है । प्रथम राष्ट्रपति डा राजेन्द्र प्रसाद ने उस समय के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु को लिखें पत्र में इस प्रक्रिया का प्रश्न उठाया था । तब शेख़ अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री थे । ( वैसे उन दिनों वहाँ मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था ।) जम्मू कश्मीर सरकार ने अनुच्छेद ३७० में ही उपांतरण के लिये राष्ट्रपति के पास जारी करने के लिये अधिसूचना का एक प्रारूप भेजा था । यह प्रारूप राष्ट्रपति को गृह मंत्रालय की मार्फ़त ही प्राप्त हुआ था । तब राष्ट्रपति ने इस प्रक्रिया पर ही आपत्ति जताते हुये प्रधानमंत्री को लिखे एक पत्र में इसका संकेत किया था । लेकिन बाद में किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया और वही त्रुटियुक्त प्रक्रिया अब तक चली हुई है । इस पृष्ठभूमि को देखते हुये जरुरी है कि राष्ट्रपति द्वारा जारी किये गये ऐसे सभी आदेशों पर पुनर्विचार किया जाये ।
लेकिन दुर्भाग्य से जम्मू कश्मीर में निहित स्वार्थी तत्वों ने इस अनुच्छेद ३७० के अस्थायी व संक्रमणकालीन प्रावधान को चिर स्थायी बनाये रखने का ही आग्रह नहीं किया बल्कि इसका दुरुपयोग भी शुरु कर दिया । इस दुरुपयोग के कारण यह प्रावधान अपनी प्रकृति व स्वरुप में जनविरोधी ही हो गया । यही कारण है कि अब स्वयं जम्मू कश्मीर के लोगों की ओर से ही माँग होने लगी है कि इस जनविरोधी प्रावधान को समाप्त किया जाये ।