चली आ रही थी जनता। चारों दिशाओं से, बल्कि दशों दिखाओं से चली आ रही थी। तांगों के पीछे तांगे, बैलगाडिय़ों के पीछे बैलगाडिय़ां। कारों में। ट्रकों में। रेलगाडिय़ों से, बसों से। लोग छतों पर बैठकर आये। खिड़कियों से लटककर आए। साइकिलों पर आए और पैदल भी। दूर देहात के ऐसे लोग भी आऐ जिन्हें गुमान तक नही था कि भारत देश पर अंग्रेजों का शासन अब तक था….और अब नही है। लोग गधों पर चढ़े, घोड़ों पर चढ़ें। मर्दों ने नई पगडिय़ां पहनीं, औरतों ने नई साडिय़ां बच्चे बां-बाप के कंधों पर लद गये। छोटे बच्चों को टोकरों में डालकर स्त्रियों ने सिर पर रख लिया। स्त्रियों ने गहने निकाले….लोग चले दिल्ली।
आजादी के पहले दिन अर्थात 15 अगस्त 1947 के विषय में यह आंखों देखा हाल है आधी रात को आजादी के लेखक द्वारा दॉमिनिक लैपियर तथा लैटी कालिन्स का।
15 अगस्त 1947 को सबसे पहले लार्ड माउंटबेटन की ताजपोशी स्वतंत्र भारत के प्रथम गर्वनर जनरल के रूप में की गयी थी, उसका एक भव्य कार्यक्रम दिल्ली के वायसराय हाउस (राष्ट्रपति भवन) में संपन्न हुआ था। लेखक द्वय का मानना है कि इस अवसर पर भारत के लोगों का दिल्ली में इतना भारी जमावाड़ा हुआ कि इतना अब से पूर्व के इतिहास में कभी नही हुआ होगा। लॉर्ड माउंटबेटन को उम्मीद थी कि तीस हजार लोग उपस्थित हो सकते हैं। परंतु उसी दिन शाम को जब इंडिया गेट पर शहीदों को श्रद्घांजलि देने और झण्डारोहण करने लॉर्ड माउंटबेटन और नेहरू पहुंचे तो भीड़ की अनुमानित संख्या 5-6 लाख थी। आने वालों के लिए की गयी व्यवस्था एकदम तार-तार हो गयी थी और सारा रेला एक मेला सा लगता था। लेखक द्वय का कहना है कि इस भीड़ में ऐसे लोग भी थे जो आजादी का अर्थ भी नही समझते थे। एक भिखारी विदेशी राजनीतिज्ञों के लिए आरक्षित सीटों की ओर लपक रहा था। एक पुलिस वाले ने उसे रोका, और पूछा कि क्या तुम्हारे पास आमंत्रण पत्र है? तो वह चकित हो गया। ‘‘आमंत्रण?’’ उसने कहा-‘अब कैसा आमंत्रण? हम आजाद हो गये हैं-समझे?
इंडिया गेट पर शाम पांच बजे भारत के नये प्रधानमंत्री नेहरू को स्वतंत्र भारत का झण्डा फहराना था। इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए जनसैलाब जिस प्रकार उमड़ा था-उसमें माउंटबेटन की 17 वर्षीय बेटी पामेला फंसकर रह गयी थी जिसे नेहरू की पहल पर बड़ी कठिनता से निकाला गया था। लेकिन किसी भीी व्यक्ति ने कोई अभद्रता नही की थी। माउंटबेटन और उनकी पत्नी जिस बग्गी से इंडिया गेट पहुंचे वहन् भी भीड़ को भारी मशक्कत के बावजूद पार नही पा रही थी। लेडी माउंटबेटन ने ऐसी तीन वृद्घ भारतीय महिलाओं को अपनी बग्घी में पीछे बैठा लिया था जो भीड़ में कही न दब जाने वाली थी। ये तीनों वृद्घ महिलाएं बग्घी में बैठकर बड़ी खुश थीं और खुशी के उन्न क्षणों को अपनी हंसी के माध्यम से प्रकट करने में भी नही चूकती थीं।
माउंटबेटन ने अपनी बग्घी में से कुछ दूर से ही नेहरू को आवाज लगायी-झण्डा यों ही फहरा दीजिए। बैंड भीड़ में फंस गया है, आगे नही आ सकता। जहां फंसा है वहां भी बज नही सकता। गार्ड्स भी हिलने डुलने की स्थिति में नही हैं।
भीड़ के शोर के बावजूद वे शब्द मंच के लोगों तक पहुंच गये। आजाद भारत के झण्डे ने अपनी केसरिया सफेद और हरी धारियों के साथ ध्वज दण्ड पर चढऩा आरंभ किया।
रानी विक्टोरिया के प्रपौत्र ने अपनी बग्घी में ही चुस्ती से खड़े होकर चढ़ते ध्वज को सलामी दी।
लेखक द्वय लिखते हैं-‘‘ध्वज ज्यों ही लहराया, त्यों ही पांच लाख से ज्यादा लोगों की उस भीड़ ने अद्भुत हर्ष ध्वनि की। वह क्षण इतना गौरवपूर्ण था कि भारत प्लासी की लड़ाई को भूल गया, सन 1857 की क्रांति और अमृतसर के नरसंहार को भूल गया। मार्शल ला ने जनता को कैसे-कैसे अपमानित किया…उन दिव्य क्षणों में भारत की कुछ भी याद न रहा। तीन तीन शताब्दियों की कठिनाईयों को देश ने ताक पर रख दिया ताकि उस एक क्षण की विलक्षणता पूरी पूरी ग्रहण की जा सके।
लगता था कि देवताओं ने भी उस ऐतिहासिक पल को अपने आशीर्वाद से विभूषित करने का फेेसला कर लिया है। भारत का राष्ट्रध्वज ज्यों ही फहराया, त्यों ही आकाशा ममें एक सुंदर इंद्रधनुष खिल उठा। भारतीय जनता जो कि मानव के प्रत्येक कदम को नियति द्वारा पूर्व निश्चित मानती है, और छींकने से भी पहले सगुन अपसगुन स्वीकार करन्ती है उस इंद्रधनुष को ईश्वरीय संकेत के रूप में देख सकती थी। चमत्कार यहन् कि राष्ट्रीय झण्डे के केसरिन्या सफेद और हरे रंगों के साथ उस इंद्रधनुष के रंग बिलकुल मेल खाते थे। इंद्रधनुष में ज्यों ज्यों प्रखरता आती गयी, त्यों-त्यों मंच को घेरकर बैठे उस जिंदा समुद्र में हर्षध्वनि की लहरें उठने लगीं।
‘‘यह इंद्रधनुष भगवान (राजा इंद्र ने स्वर्ग से) ने भेजा है।’’ लोगों ने कहना आरंभ कर दिया था-‘‘अब देखते हैं कि कौन हमारे सामने टिकता है?’’
यह था भारत की आजादी का पहला दिन और पहले दिन का लोगों का जोश।
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