भारतीयों के विषय में प्रो. मैक्समूलर ने लिखा है:-‘‘मुस्लिम शासन के अत्याचार और वीभत्सता के वर्णन पढक़र मैं यही कह सकता हूं कि मुझे आश्चर्य है कि इतना सब होने पर भी हिंदुओं के चरित्र में उनके स्वाभाविक सदगुण एवं सच्चाई बनी रही।’’
यहां मैक्समूलर ने मुस्लिम अत्याचारों की तो पुष्टि की ही है, साथ ही उन्हें भारतीयों की देशभक्ति, धर्मभक्ति, संस्कृति प्रेम और अन्य मानवीय गुणों के बने रहने पर भी आश्चर्य हो रहा है, कि जब अत्यंत विषम परिस्थितियों से भारत का जनमानस आंदोलनरत था, तब भी उसने पराजय स्वीकार नही की, और वह अपने राष्ट्रीय मूल्यों के लिए सदा संघर्षरत रहा।
प्रो. मैक्समूलर कहते हैं-‘‘जब आप मुस्लिम विजेताओं द्वारा किये गये अत्याचारों के विषय में पढ़ते हैं (1000ई. से अंग्रेजों के आगमन तक) द्वेषी आलोचक चाहे जो कहें झूठी घटनाएं गढ़ लें, मानवता के सामान्य सिद्घांतों का भारत में सदैव आदर रहा है और मुझे आश्चर्य है कि इतना नारकीय व्यवहार सहन करने के उपरांत भी कोई राष्ट्र कैसे जीवित रह सका और स्वयं भी राक्षस नही बन गया।’’
यहां प्रो. मैक्समूलर अपने शब्दों में उसी बात को कह रहे हैं जो कालांतर में इकबाल ने यूं कहकर उठायी थी ‘‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी।’’
प्रो. मैक्समूलर की इस बात का मानो मि. एलफिन्स्टन ने उत्तर देते हुए ही लिखा है-‘‘जब दुर्भाग्य अपरिहार्य होता है, तब निम्नतम स्तर का हिंदू भी उसका सामना ऐसी शांति के साथ करता है, जिसकी यूरोप में भी बड़ी प्रशंसा होती है।’’
इसका अभिप्राय है कि भारतवासियों ने कभी ऐसी उग्र देशभक्ति को अंगीकृत नही किया, जिसमें मानवता तार-तार हो जाए या दानवता का दावानल अनियंत्रित होकर मानवता का संहारक बन जाए। इसके स्थान पर भारत वासियों ने विवेकपूर्ण शांत और गंभीर देशभक्ति का परिचय दिया। यह सत्य है कि ‘विवेकपूर्ण शांत और गंभीर देशभक्ति’ ही किसी देश को जीवित रखने में सहायक हुआ करती है। ऐसी देशभक्ति जिसमें हर व्यक्ति को दीख रहा है कि अब मृत्यु निकट है, परंतु इसके उपरांत भी गले मिलकर अंतिम युद्घ के निवाले को भी ‘अमृतरस’ समझकर गटक लिया। यह जीवित रहने वाली जातियां ही किया करती हैं।
अकबर के नवरत्नों में से एक रहे अबुलफजल ने भारतीयों के विषय में एक स्थान पर लिखा है-‘‘विपत्ति के समय उनके चरित्र का उज्ज्वल पक्ष प्रकट होता है। उनके सैनिक युद्घ स्थल से पलायन करना नही जानते हैं, और जब उन्हें अपनी विजय संदिग्ध लगती है तो वे अपने घोड़े से उतरकर साहसपूर्वकअपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं।’’
बर्नियर नामक विदेशी यात्री ने भी कहा है-‘‘राजपूत युद्घ स्थल में एक दूसरे को गले लगाते हैं, मानो मरने के लिए तैयार हों।’’
अल्तमश को करना पड़ा शौर्य का सामना
अल्तमश को भी भारत में भारतीयों के ऐसे ही शौर्य और पराक्रम का सामना करना पड़ा था। भारतवासी अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे और उसे हर मूल्य व हर स्थिति-परिस्थिति में प्राप्त कर लेना चाहते थे। जिस दीये को इस्लामिक तुर्क सुल्तान जलाकर बैठता उसे ही भारत के स्वतंत्रता सैनानियों का कोई तीव्र अंधड़ आता और समय मिलते ही बुझा डालता। ऐसा ही एक उदाहरण ये है कि अल्तमश के काल में 1217 ई. में लाहौर के सूबेदार नासिरूद्दीन महमूद ने मण्डोर पर अधिकार कर लिया था, किंतु कुछ दिनों पश्चात यह मुसलमानों के हाथ से निकलकर उदयसिंह चौहान के हाथ में चला गया। (संदर्भ रैवर्टी खण्ड 1, पृष्ठ 611 विश्वेश्वर नाथ रेऊ) तब 1226 में अल्तमश ने मण्डोर पर फिर आक्रमण किया। ‘तबकाते-नासिरी’ के लेखक मिनहाज ने इस आक्रमण के विषय में जिस शब्दावाली का प्रयोग किया है उससे स्पष्ट होता है कि यहां राजपूतों के हाथों तुर्क सेना को भारी क्षति उठानी पड़ी थी। किले पर अल्तमश का अधिकार थोड़ी देर के लिए हो गया।
फिर लहराया केसरिया
परंतु हिंदू वीरों का उत्साह और पराक्रम हार मानने वाले नही थे, भारी क्षति उठाने के उपरांत भी हिंदू वीरों ने अपना साहस नही खोया और अपने शक्ति संचय के देश भक्ति पूर्ण कार्य में लगकर उचित अवसर की प्रतीक्षा करते रहे। इतिहासकारों में थोड़ा मतभेद काल निर्धारण पर तो है, परंतु इस पर सभी सहमत हैं कि अल्तमश की मृत्यु के उपरांत हिंदू वीर सोनेगरा चौहानों ने मण्डोर पर फिर केसरिया लहराकर भारत के शौर्य का परिचय दे दिया था।
ग्वालियर नरेश मलयवर्मन का बलिदान
अल्तमश के समय ग्वालियर का शासक मलयवर्मन नाम का हिंदू वीर राजा था। यह राजा अपनी गौरवमयी संस्कृति के प्रति पूर्णत: समर्पित था, और वह तुर्क सुल्तान की ना तो अधीनता ही स्वीकार करना चाहता था और ना ही तुर्क सुल्तान की किसी अपमानजनक शर्त को ही मानने को उद्यत था।
‘तबकाते नासिरी’ का लेखक मिनहाज हमें बताता है कि ग्वालियर पर चढ़ाई करने के पश्चात अल्तमश को इस दुर्ग का 11 माह तक घेराव करना पड़ा था, पाठक तनिक विचार करें कि जिस देश के छोटे-छोटे शासक किसी विदेशी को अपने किले का लगभग एक वर्ष तक घेरा डालने के लिए विवश कर दें, तो वे कितने रणकुशल होंगे? क्योंकि एक तो इस प्रकार के घेरों से विदेशी तुर्कों को देश के अन्य भागों पर अपना विस्तार करने का अवसर नही मिलता था, दूसरे वे लोग लंबे घेरों से कई बार जन धन की हानि उठाकर ही रह जाते थे। दूसरी बात इस प्रसंग में यह भी विचारणीय है कि इन घेरों का सामना करने के लिए पर्याप्त धैर्य और साहस की भी आवश्यकता होती थी, विशेषत: तब जब कि विदेशी शत्रु भीतर किले में किसी भी प्रकार की खाद्य सामग्री को न जाने देने के हर उपाय को अपनाता रहा हो। मिनहाज हमें बताता है कि ग्वालियर दुर्ग का घेरा सुल्तान के जीवन का सबसे लंबा घेरा था। मिनहाज इस घटना का अधिक उत्साह के साथ वर्णन नही करता है। जिसका अर्थ यही लगाया जाता है कि ग्वालियर दुर्ग के घेरे के समय तुर्क सेना के लिए पर्याप्त विषमताएं उत्पन्न हो गयी थीं।
खडगराय क्या कहता है
ग्वालियर के घेरे के विषय में शाहजहां कालीन लेखक खडगराय ने भी वर्णन किया है। यद्यपि यह लेखक ग्वालियर दुर्ग के घेरे से पर्याप्त समय पश्चात हुआ, परंतु उसका वर्णन कुछ रोमांच तो उत्पन्न करता ही है, साथ ही सत्य की कुछ स्वाभाविक परतों को भी खोलने में सहायता करता है।
खडगराय अपनी पुस्तक ‘गोपाचल आख्यान’ (भालेराव संग्रह, हस्तलिखित ग्रंथ संख्या 126, श्रीनट नागर शोध संस्थान सीतामऊ) में हमें बताता है कि लंबे घेरे के पश्चात भी अल्तमश का जब ग्वालियर दुर्ग पर अधिकार नही हो सका तो सुल्तान ने अपने अमीरों की बैठक ली, और उस बैठक में यह निर्णय लिया गया कि हैबत खां चौहान को दूत बनाकर मलयवर्मन के पास भेजा जाए, जो कि वहां जाकर राजा से उसकी पुत्री का डोला मांग ले, और यदि हैबत खां की यह शर्त राजा स्वीकार कर ले तो घेरा उठा लिया जाएगा।
मलयवर्मन ने नही माना प्रस्ताव
दूत ने मलयवर्मन से ऐसा ही प्रस्ताव रखा, परंतु मलयवर्मन यह जानता था कि पुत्री के इस प्रकार ‘डोला’ देने का अर्थ क्या होता है? इसलिए उसने बड़ी वीरता के साथ अल्तमश के इस अपमानजनक प्रस्ताव को अस्वीकार का परिणाम भी जानता था कि अब क्या होगा? इसलिए उन्होंने सहर्ष युद्घ को स्वीकार कर लिया। बात स्पष्ट थी कि जब सम्मान और राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रश्न आए तो इनके लिए किसी भी प्रकार का समझौता ना करना ही वीरों के लिए श्रेयस्कर और किसी वीर जाति के लिए हितकर होता है। अत: युद्घ की तैयारियों में दोनों पक्षों का जुट जाना अब आवश्यक हो गया था। हैबत खां चौहान ने भी राजा का उत्तर ज्यों का त्यों अपने लोगों को आकर बता दिया। तब मुसलमानों ने दुर्ग पर अचानक आक्रमण बोल दिया।
हिंदू सैनिकों ने ऊपर से पत्थर मार-मार कर बड़ी संख्या में मुस्लिम सैनिक हताहत कर डाले। कहा जाता है कि इस युद्घ में पांच हजार तीन सौ साठ मुस्लिम सैनिक तथा लगभग डेढ़ हजार हिन्दू सैनिक हताहत हुए थे।
ग्वालियर के लिए और उसकी पावन भूमि के लिए यह परीक्षा की और जीवन मरण की घड़ी थी। मलयवर्मन और उसकी सेना को आज अंतिम युद्घ के लिए निकलना था और उनकी वीरांगनाओं को आज ‘जौहर’ रचाना था। इसलिए मलयवर्मन स्वयं अपने दुर्ग से बाहर आकर युद्घ करने लगे। उनके साथ उनकी सेना के अनेक शूरमा भी थे। हजारों की संख्या में मुस्लिम सेना को गाजर, मूली की भांति काटकर फेंक दिया। राजा ने आज ‘केसरिया’ साफा पहन लिया था, जो बलिदान और त्याग का प्रतीक होता है। पुत्री के डोले के अपमान जनक प्रस्ताव का प्रतिशोध आज प्राणों की बाजी लगाकर राजा को लेना था। अत: उसी प्रतिज्ञा के साथ राजा युद्घ में आया और वीरता पूर्वक लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गया।
वीरांगनाओं ने किया जौहर
राजा की वीरगति का समाचार जब दुर्ग के भीतर बैठी हिंदू वीरों की वीरांगनाओं को पता चला तो उन्होंने जौहर कर लिया। आत्म सम्मान की रक्षार्थ वीरता की पराकाष्ठा को दर्शाने वाली यह जौहर परंपरा भारतीय इतिहास की बहुत ही रोमांचकारी घटनाओं में गिनी जाती है। जहां इन वीरांगनाओं ने जौहर किया था, वहां आजकल जौहरताल बना हुआ है। वास्तव में यह ‘जौहरताल’ राजा मलयवर्मन का उनके डेढ़ हजार शहीद सैनिकों का और इन हजार से अधिक हिंदू वीरांगनाओं का स्वतंत्रता के लिए प्राणोत्सर्ग करने का स्मारक है। जिसे हर भारतीय को इसी रूप में मान्यता प्रदान करनी चाहिए।
यह मलयवर्मन प्रतीहार वंशी शासक था। मलयवर्मन के बलिदान के उपरांत ग्वालियर दुर्ग पर अल्तमश का अधिकार हो गया। यह घटना 1233 ई. की है। अगले तीन वर्ष तक ग्वालियर अल्तमश के आधीन रहा। यद्यपि इस सुल्तान की मृत्यु के पश्चात भी ग्वालियर देर तक सुल्तानों के आधीन रहा, परंतु स्वाधीनता के लिए यह व्याकुलता निरंतर बनी रही और तुगलक काल में जाकर वह सफल हो गयी।
(संदर्भ सल्तनत काल में हिंदू प्रतिरोध लेखक:अशोक कुमार सिंह पृष्ठ 181)
कालिंजर को त्रैलोक्यवर्मन ने स्वतंत्र करा लिया था
कालिंजर के तत्कालीन शासक त्रैलोक्यवर्मन की वीरता का उल्लेख करना भी यहां समयोचित ही होगा। इस हिंदू राजा का राज्य इतिहसकारों ने कालिंजर, अजयगढ़, झांसी, सौगोर, बिजवार, पन्ना, छत्तरपुर इत्यादि क्षेत्रों पर स्वीकार किया है। इतने विशाल क्षेत्र को उसने मुस्लिमों के चंगुल से ही छीना था। 1205 ई. में ही उसने मुसलमानों को भगाकर कालिंजर हस्तगत कर लिया था। इसलिए तुर्क शासकों के लिए त्रैलोक्यवर्मन चिंता का कारण बन चुका था। (संदर्भ हिस्ट्री ऑफ द चंदेलस ऑफ जेजाकभुक्ति पृष्ठ 101-103 चंदेल और उनका राज्यकाल पृष्ठ 133)
1233 ई. में ग्वालियर के सूबेदार मलिक नुसरूद्दीन ने कालिंजर पर आक्रमण कर दिया। मुस्लिम लेखकों का मत है कि त्रैलोक्यवर्मन डर कर भाग गया, और कालिंजर पर पुन: मुस्लिमों का अधिकार हो गया। परंतु त्रैलोक्यवर्मन एक योजना के अंतर्गत पीछे हटा, ऐसा अनुमान है। क्योंकि उसने पीछे हटकर ना तो आत्मसमर्पण किया ना आत्महत्या की और ना ही कहीं दूर भागकर स्वयं को सदा के लिए छुपाने का प्रयास किया।
तत्कालीन प्रमाणों से सिद्घ होता है कि त्रैलोक्यवर्मन ने 1238 ई. में ही कालिंजर पर पुन: अधिकार करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। जानकारी मिलती है कि उसने कालिंजर सहित महोबा आदि से भी मुस्लिमों को खदेड़ दिया था। यह महान कार्य उसने मात्र पांच वर्ष में ही पूर्ण कर लिया। तब हमें उसे ‘देश-धर्म का परवाना’ स्वीकार करने में आपत्ति क्यों होनी चाहिए। संकटों से जूझना और एक दिन संकटों पर विजय प्राप्त करना देश धर्म के परवानों का ही तो काम होता है। अत: त्रैलोक्यवर्मन निश्चित रूप से एक ‘देशभक्त हिंदू वीर’ था। जिसे हमें इसी रूप में स्मरण करना चाहिए।
सब ओर मची थी स्वतंत्रता की धूम
1857 की क्रांति के समय का चित्र खींचते हुए कई इतिहासकारों ने हमें यह समझाने और बताने का प्रयास किया है कि उस समय अंग्रेजों के विरूद्घ सर्वत्र क्रांति की ज्वाला धधक उठी थी। पर यदि हम 1206 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा भारत में तुर्क सल्तनत की नींव रखने के 10-5 वर्ष पश्चात के काल पर ही दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि उस समय भी भारतवासियों ने तुर्क सल्तनत के विरूद्घ लगभग ऐसी ही क्रांति की धूम मचा रखी थी। इस काल का बड़ा ही तार्किक और संजीव चित्रण हमें ‘सल्तनत काल में हिंदू प्रतिरोध’ पुस्तक के पृष्ठ 184 पर मिलता है। पुस्तक के विद्वान लेखक लिखते हैं-‘‘उत्तरी भारत में जहां एक ओर हिन्दुओं के बड़े व शक्तिशाली राज्य अल्तमश के आक्रमणों के विरूद्घ निरंतर संघर्ष कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर अपदस्थ हिंदू राजवंशों के उत्तराधिकारी, वंशज एवं स्थानीय जातियों के मुखिया लोग भी मुस्लिम सूबेदारों के विरूद्घ समयोचित विद्रोह का झण्डा बुलंद किये रहे। इसी कारण सुल्तान इल्तुतमिश (अल्तमश) को तथा उसके द्वारा विभिन्न प्रांतों में नियुक्त मुस्लिम सूबेदारों को उन विद्रोही हिंदुओं के प्रति बारम्बार सेनाएं भेजनी पड़ती थीं। संभवत: राजस्थान में यदुवंशी लोगों ने तिहुनगढ़ और बयाना, चौहानों ने अजमेर, मेनाल आदि स्थानों पर उत्तर प्रदेश में कन्नौज और बनारस के आसपास, गहड़वालों ने बदायंू में, राष्ट्रकूटों ने आधुनिक रूहेलखण्ड में, कटेहरिया हिंदुओं ने अपने विद्रोहात्मक स्वरूप को बनाये रखा। इल्तुतमिश ने बड़ी ही कुशलता से इन स्थानों पर अपनी सेनाओं को भेजकर कुछ समय के लिए ही सही उन्हें दबाने का प्रयत्न किया। ऐसी प्रतीत होता है कि कन्नौज पर इसी समय अंतिम सफलता प्राप्त की गयी और बदायूं के राष्ट्रकूट शासक रायमान को भी पराजित किया गया।….. आधुनिकतम रूहेलखण्ड में कटेहरिया हिंदुओं के विरूद्घ अभियान चलाकर उन्हें दबाने का प्रयत्न किया गया, किंतु कुछ समय उपरांत ही वे पुन: विद्रोह हेतु मुखरित होने लगे।’
‘तबकाते नासिरी’ से हमें पता चलता है कि अल्तमश के काल में मिथिला के करनाट राज्य तथा गंगापार जाजनगर उड़ीसा के गंग राज्य पर हमला किया गया, परंतु ये राज्य अपनी स्वतंत्रता बचाये रखने में सफल रहे। उस समय कूटनाट राजवंश पर राजा नरसिंहदेव तथा उड़ीसा में अनंग भीम चतुर्थ का शासन था।
इस प्रकार अल्तमश ने यद्यपि 1210 ई. से 1236 ई. तक शासन किया, परंतु उसे इस सनातन आर्य राष्ट्र की हिंदू जनता ने एक दिन के लिए भी अपना शासक नही माना। फलस्वरूप उसे भारतीयों के स्वतंत्रता संघर्ष से संघर्ष करते हुए अपना समय और जीवन पूर्ण करना पड़ा। प्रचलित इतिहास इस तथ्य की उपेक्षा कर उसे संपूर्ण भारतवर्ष का सुल्तान मानने के लिए हमें बाध्य सा करता प्रतीत होता है। पाठक तथ्यों के आलोक में स्वयं निर्णय करें कि ‘सत्य’ क्या था और उसे क्यों लोगों की दृष्टि से ओझल किया गया?
मुख्य संपादक, उगता भारत