इतिहास सकारात्मक लोगों के रचनात्मक कृत्यों का प्रचारक है:प्रो. राजेन्द्र सिंह
जब उन लोगों पर नजर दौड़ाई जाती है जो आजाद भारत में भी किसी कठोर हृदयी तानाशाह की सी गुलामी का अनुभव कर रहे हैं, और उस तानाशाह के क्रूर कारावास में देश के धर्म, संस्कृति और इतिहास को असीम यातनाओं के बीच कैद पड़ा देख रहे हैं, तो उन मेधासंपन्न लोगों में प्रो. राजेन्द्र सिंह का नाम भी सम्मान के साथ लिया जाएगा। श्री
प्रो. राजेन्द्र सिंह ‘उगता भारत’ के चेयरमैन श्री देवेन्द्र सिंह आर्य को अपना विशेष शोधकार्य दिखाते हुए। साथ में हैं पत्र के संरक्षक सूबेदार मेजर, वीर सिंह आर्य। छाया : अजय आर्य
सिंह यद्यपि व्यवसाय से किसी शैक्षणिक उपाधि के आधार पर प्रोफेसर नही हैं। बस, उनके शिक्षा के प्रति समर्पण, अध्यवसाय, उद्यम और पुरूषार्थी स्वभाव ने उन्हें लोगों की दृष्टि में प्रोफेसर बना दिया।
प्रो. राजेन्द्र सिंह फरीदाबाद सेक्टर-16 में निवास करते है। वह इतिहास के मर्मज्ञ हैं। प्रो. सिंह स्वतंत्र भारत में देश की संस्कृति धर्म और इतिहास के साथ हुए क्रूर उपहास पूर्ण व्यवहार के दृष्टिगत मानो मासूम गाजियाबाद का ये शेर कहकर अपनी पीड़ा शांत करने का प्रयास करते हैं:-
बहारो ने चमन में देखकर फूलों के फक चेहरे।
कहा रोकर चमन वालों निगहबानी किसे दे दी।।
पिछले दिनों 3 अगस्त को प्रो. सिंह से हमारी वार्ता हुई। उनके विचारों में सादगी, वाणी तथ्यात्मक और तर्कपूर्ण है, शब्दों में पीड़ा के बीच देश के भविष्य के प्रति आशा वैसे ही झलकती है जैसे रात्रि भर के अंधकार को चीरकर प्रात: कालीन अरूणोदय होता है।
प्रो. सिंह से हमारी वार्ता आगे बढ़ी तो इतिहास के आसपास ही सिमटकर रह गयी। बातों का क्रम यद्यपि घंटों चला, पर घंटे मिनटों में सिमट गये। यहां प्रस्तुत है प्रो. सिंह से ‘उगता भारत’ की विशेष बातचीत के कुछ प्रमुख अंश।
उगता भारत: प्रो. साहब आपने राम जन्मभूमि के केस में मा. उच्च न्यायालय इलाहाबाद की लखनऊ खण्डपीठ के सामने साक्ष्य दिया था, उसमें आपका नाम साक्षी के रूप में कैसे आया?
प्रो. राजेन्द्र सिंह: यह केस आज भी मा. सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन है, इसलिए इस पर माननीय न्यायालय की गरिमा का ध्यान रखते हुए अधिक चर्चा उचित नही होगी। परंतु जहां तक आपके प्रश्न का संबंध है, तो मेरे द्वारा पूर्व में लिखी गयी तत्संबंधी एक पुस्तक ‘सिख इतिहास में श्रीराम रामजन्म भूमि’ के उद्वरण मेरे से पूर्व बार-बार निर्मोही अखाड़ा के अधिवक्ता श्री रंजीत लाल वर्मा के द्वारा न्यायालय के संज्ञान में लाये गये थे, तब मा. न्यायालय को यही उचित लगा कि क्यों न इस व्यक्ति को ही तलब कर लिया जाए। तब मुझे बुलाया गया और मुझसे ऐतिहासिक प्रमाणों, साक्ष्यों एवं तथ्यों को लेकर एक दिसंबर 2005 से लेकर 20 जनवरी 06 तक प्रत्येक कार्यदिवस में प्रति परीक्षा की गयी।
उगता भारत: आपका गुरू नानक जी के विषय में भी अच्छा अध्ययन है। क्या गुरूजी ने ‘सिक्ख धर्म’ की स्थापना वैदिक धर्म की सुरक्षार्थ की थी, या ऐसा नही है, और क्या आपके पास कोई इसका प्रमाण है?
प्रो. सिंह: देखिए, गुरू नानक जी को भारत के सत्य सनातन वैदिक धर्म को तत्कालीन निर्मम मुगल सत्ता से बचाने की ही आवश्यकता अनुभव हुई थी।
गुरू पंथ प्रकाश 3/101-102, 110-111 में आया है :-
सय्यद सेख मुगल पठान। आये तज तज तुरकसतान।
जो आवै सो लूटै मारे। हिंदू करे अधक दुख्यारे।।
या विध पांच चार सौ साल। दुख हिंदुन को दयो बिशाल।
धरम विहीन धरा सब होई। यावन हि धरम न छाडय़ो कोई।
भई अंधक जब ऐसी बिरायी। तब बीचार ईश्वर स्वामी।।
पालन हेतु सनातन नेत। वैदक धरम बिथारन हेत।
आप प्रभु गुरू नानक रूप। प्रगट भये जग में सुख भूप।।
इसका अभिप्राय है कि सैय्यद, शेख, मुगल और पठान जाति के मुस्लिम आक्रांता अपने-अपने मुस्लिम देश त्यागकर हिंदुस्तान में आ धमकते रहे। जो आवे वही लूटे और मारे। सबने हिंदुओं को अधिकाधिक पीडि़त किया। इस विधि से आक्रांताओं ने चार पांच सौ वर्ष तक हिंदुओं को बड़े बड़े दुख दिये। इस प्रकार भारत की सारी धरा धर्म विहीन हो गयी। यवनों ने कोई धर्म ही नही छोड़ा। जब यह अवरोध अधिक बढ़ गया तब जगत के स्वामी ईश्वर ने सोच विचार किया। फिर सनातन नीति, राजधर्म के पालन और वैदिक धर्म के विस्तार हेतु प्रभु स्वयं गुरू नानक के रूप में भारतभूमि में अवतरित हुए।
इससे स्पष्ट है कि गुरू नानक जी के जीवन का मुख्य उद्देश्य वैदिक धर्म की शिक्षाओं का प्रचार प्रसार करना था इसीलिए उन्होंने गुरूशिष्य परंपरा को इस देश में पुनर्जीवित किया।
उगता भारत: यह यवन शब्द कहां से और किसके लिए प्रयुक्त किया गया है?
प्रो. सिंह : यवनों के मत के विषय में शुक्रनीति सार 4/3/61 में लिखा है-‘‘श्रुति स्मृति बिना धर्मा धर्मो स्वस्तच्च यावनम्। श्रुत्यादि भिन्न धर्मोअस्ति यत्र तद्यावनं मतम् अर्थात जिसमें श्रुति-वेद और स्मृति के बिना धर्म, अधर्म का वर्णन किया गया हो, उसे यावन ग्रंथ कहते हैं जिसमें वेदादि शास्त्रों से भिन्न धर्म का प्रतिपादन किया गया हने उसे यावन मत कहते हैं। इस परिभाषा के अनुरूप ही मुसलमानों को यवन बताया गया है।
उगता भारत: आज समाज में हिंसा, आतंकवाद, चोरी, तस्करी आदि का वर्चस्व है। कानून के शिकंजे से अपराधी निकलने में सफल हो रहे हैं, इस से समाज में कानून का भय समाप्त हो रहा है, वध्य पुरूषों के प्रति समाज और व्यवस्था को कैसा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? आप इतिहास के प्रमाणों के आधार पर स्पष्ट करें।
प्रो. सिंह : आर्य जी! संक्षेप में कहूं तो वध्य पुरूष को न मारना अधर्म है। मनुस्मृति 9/254 में कहा गया है कि चोर तस्कर आदि को बिना दण्ड दिये जो राजा प्रजा से कर लेता है, उसका राज्य बिगड़ जाता हन्ै, और उसे स्वर्ग अर्थात उत्तम गति प्राप्त नही हो पाती। स्वर्ग कैसे मिलता है? इस संदर्भ में 9/253 में कहा है कि सदाचारी लोगों की रक्षा करने तथा कण्टकों अर्थात दुष्टजनों का शोधन करने वाले प्रजा पालक राजा स्वर्ग में जाते हैं। 9/263 में स्वायंभुव मनु का कथन है कि चोर, पाबुद्घि तथा गुप्तरीति से राष्ट्र में बिचरने वाले चोरों दुष्टों के पाप को रोकना बिना दण्ड दिये अपने आप संभव नही हो सकता। इन धर्मशास्त्रीय निर्देशों से स्पष्ट है कि दुष्टजनों का धात पशुवध के समान हिंसा कर्म नही है। गीता के ज्ञान से प्रभावित गाण्डीव अर्जुन कहते हैं कि लोकयात्रा का निर्वाह करने के लिए ही धर्म का प्रतिपादन किया गया है। सर्वथा अहिंसा का पालन हो अथवा दुष्ट की हिंसा की जाए-यह प्रश्न उपस्थित होने पर जिसमें धर्म की रक्षा हो, वही कार्य श्रेष्ठ मानना चाहिए। (महाभारत शांति पर्व 15/49)
उमापति महादेव की दृष्टि में दुष्टजनों को दण्ड न देना हिंसाकर्म है। मनुस्मृति 7/249 में स्पष्ट कहा है कि राजा को अवध्य के मारने में जितना पाप लगता है, उतना ही अधर्म वध्य पुरूष को छोड़ देने में भी लगता है, अत: शास्त्र के अनुसार दुष्टजनों को दण्ड देना राजा का धर्म है।
उगता भारत: भारत के प्रचलित इतिहास के विषय में आपके क्या विचार हैं?
प्रो. सिंह : भारत के प्रचलित
इतिहास में सचमुच तथ्यों और सत्यों को समुचित स्थान न देकर उनकी धोर अवहेलना की गयी है। जिससे हमारे युवा वर्ग को अपना सही इतिहास पढऩे को नही मिल पा रहा है। इतिहास को आज की युवा पीढ़ी ने केवल मरे गिरों’ का लेखा जोखा मान लिया है, जबकि इतिहास कोई बोझ नही है, अपितु वह तो उन सकारात्मक दिशा में कार्य करने वाले लोगों के रचनात्मक कृत्यों को यथावत लोगों तक पहुंचाने का एक माध्यम है, जिनके ऐसे कार्यों से मानवता लाभान्वित हुई है। इसप्रकार युद्घों के माध्यम से मानवता का अहित करने वालों को इतिहास उपेक्षित करता है और शांति व्यवस्था से वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को बलवती करने वालों को इतिहास सम्मानित करता है। इस दृष्टिकोण से भारतीय इतिहास में व्यापक परिवर्तन संशोधन और परिवद्र्वन की आवश्यकता है। नकारात्मकता के महिमा मण्डन से नई पीढ़ी पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
(हम पूर्व से ही प्रो. राजेन्द्र सिंह की लेखमाला का प्रारंभ कर चुके हैं। आगे भी उनके सहज सरल किंतु सारगर्भित और तथ्यपूर्ण लेख पाठकों को पढऩे को मिलते रहेंगे, जो भारतीयता से ओतप्रोत होंगे और हमें सोचने के लिए विवश करेंगे कि सचमुच कुछ होना चाहिए। -संपादक)