समय की पुकार यही है
मौलाना अबूल कलाम आजाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस के एक महत्वपूर्ण नेता रहे। वह नेहरू, गांधी और पटेल की तिक्कड़ी में से नेहरू के अधिक निकट थे, गांधीजी को पसंद करते थे, और पटेल को समझने का प्रयास करते थे। उन्होंने भारत के स्वाधीनता संग्राम को लेकर एक पुस्तक लिखी, जिसका नाम था-‘आजादी की कहानी’। आजादी केदस वर्ष पश्चात उन्होंने यह पुस्तक लिखी थी, जो उनकी मृत्यु के तीस वर्ष पश्चात प्रकाशित की गयी।
इस पुस्तक में उन्होंने कई बातों को अच्छे ढंग से रखने का प्रयास किया है। आजाद साहब भारतीय उपमहाद्वीप के बंटवारे के ‘विरोधी’ थे। इसलिए नेहरू जी उन्हें ‘राष्ट्रवादी मुसलमान’ कहा करते थे। इस बिंदु पर आजाद साहब के आलोचकों का मानना है कि वे बंटवारे के विरोधी इसलिए थे कि वे उन मुसलमानों की सुरक्षा और भविष्य को लेकर चिंतित थे, जो बंटवारे के पश्चात भारत में रह जाने वाले थे और जिन्हें फिर यहां अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना था। वह चाहते थे कि मुसलमान यहां ही रहें और एक दिन संपूर्ण भारत में ‘मुगल साम्राज्य’ की स्थापना करें।
मौलाना साहब मुस्लिम लीग की बंटवारे की योजना को मूर्खतापूर्ण मानते थे और उसे ‘अपनी योजना’ पर लाना चाहते थे। इसलिए वह कांग्रेस और लीग दोनों को ही देश के बंटवारे का जिम्मेदार मानते थे। उन्होंने अपनी उक्त पुस्तक में स्पष्टकिया है कि-‘कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने ही देश का विभाजन स्वीकार कर लिया था।…मैंने पहले ही कहा था कि मुस्लिम लीग को अनेक हिंदुस्तानी मुसलमानों का समर्थन प्राप्त था, परंतु उनका एक बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा भी था जिसने सदैव लीग का विरोध किया था। देश के विभाजन के निर्णय से स्वाभाविक रूप से उनके बीच बड़ी गहरी खाई बन गयी थी। जहां तक हिंदू और सिखों का प्रश्न है, उनका तो बच्चा-बच्चा विभाजन के विरूद्घ था।’ आजाद साहब की ये मान्यता सही है कि हिंदू और सिखों का बच्चा-2 विभाजन के विरूद्घ था। यहां तक कि कांग्रेस ने विभाजन को अपनी स्वीकृति देकर भी उसे पूर्ण स्वीकृति नही दी थी। कांग्रेस के बड़े हिस्से में विभाजन पर कांग्रेस की नीति का विरोध था। इसलिए कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष आचार्य कृपलानी ने 14 अगस्त 1947 को एक वक्तव्य जारी कर कह दिया था कि यह दिन हिंदुस्तान के लिए शोक और विनाश का दिन है। उनका यह वक्तव्य कांग्रेस के भीतर लोगों के विद्रोही तेवरों को शांत करने के लिए तो दिया ही गया था, साथ ही कांग्रेस के नेताओं की अन्तर्दशा को भी झलकाता था। परंतु फिर भी कांग्रेस ने अपेक्षा से अधिक शीघ्रता दिखाते हुए विभाजन को स्वीकार कर लिया था।
कलाम लिखते हैं :-‘‘मैंने भरसक प्रयास किया, परंतु दुर्भाग्य की बात थी कि मेरे मित्रों और साथियों ने मेरा साथ नही दिया। यदि मैं इन तथ्यों के प्रति उनके नकारात्मक दृष्टिकोण की व्याख्या करूं तो यही कहूंगा कि रोष अथवा निराशा ने उनकी दृष्टिको धुंधला कर दिया था। शायद एक तारीख 15 अगस्त निश्चित कर देने से भी जादू का सा प्रभाव हुआ था और उसने सबको इतना सम्मोहित कर लिया कि जो कुछ ‘लार्ड माउंटबेटन’ कहें, वे उसे चुपचाप स्वीकार कर लें।’’ कांग्रेस देश के विभाजन को लेकर अंतद्र्वद्व में क्यों फंसी पड़ी थी? इस प्रश्न की समीक्षा यदि की जाये तो उस समय की कांग्रेस में एक गुट पं. नेहरू जैसे लोगों का था, जिन्हें सत्ता प्राप्ति की शीघ्रता थी। यह गुट नही चाहता था कि स्वतंत्रता प्राप्ति में और अधिक विलंब किया जाए। इसलिए उनके लिए राजतिलक प्राथमिकता थी, देश की सीमाएं कैसे-2 निर्धारित होंगी? कौन-कौन से क्षेत्र भारत या पाकिस्तान को मिलने वाले हैं, खजाने और सेना का बंटवारा कैसे होगा? पाकिस्तान से आने वाली हिंदू आबादी और भारत से पाकिस्तान जाने वाली मुस्लिम आबादी की अदला बदली कैसे होगी? इत्यादि प्रश्न कांग्रेस के इस नेहरू गुट के लिए अधिक महत्व नही रखते थे। इस गुट के लिए यह बात विचारणीय थी कि अभी ‘लेडी माउंटबेटन’ की कृपा से हमें राजतिलक के माध्यम से यथाशीघ्र सत्ता मिल सकती है। यदि ‘माउंटबेटन’ जोड़ी को वापस ब्रिटेन बुला लिया गया तो स्थितियां हाथ से निकल भी सकती है। क्योंकि इस गुट को यह पता था कि यदि सुभाष देश में कहीं से आ गये तो क्या होगा, या लोगों से सीधे मतदान से प्रधानमंत्री चुनने की अपील भी कर दी गयी और पटेल सामने रहे तो परिणाम क्या होगा? इसलिए कांग्रेस के इस गुट को सत्ता चाहिए थी उससे अलग कुछ नही।…कांग्रेस का एक दूसरा गुट था, जिसे पटेल गुट कहा जा सकता है। इस गुट की नीतियां व्यावहारिक थीं, यद्यपि उनमें रोष भी था। अंतरिम सरकार में वित्तमंत्री के रूप में लीग के लियाकत अली ने सरदार पटेल और अन्य लोगों की नाक में दम कर दिया था। कांग्रेस जिस प्रस्ताव को भी लाती, उसके लिए सरकार का वित्तमंत्री और वित्त मंत्रालय उसकी योजनाओं को सफल होने देने से रोकने के लिए ‘आर्थिक नाकाबंदी’ करने का काम करता था। इसलिए उस स्थिति से तंग आकर पटेल रोष में थे और वह ये मानने लगे थे कि यदि विभाजन ही अनिवार्य है तो इसे यथाशीघ्र पूरा कर लिया जाए। परंतु यह गुट चाहता था कि इस विभाजन जैसी त्रासदी के लिए सारा ‘होमवर्क’ पहले कर लिया जाए। जिससे कि किसी प्रकार की व्यावहारिक समस्या का सामना करने से बचा जा सके। पटेल मानते थे कि सत्ता प्राप्ति से पूर्व जनसंख्या का शांतिपूर्ण परिवर्तन पूर्ण हो जाए। पटेल की मान्यता ये भी थी कि पाकिस्तान अधिक देर तक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में कार्य नही कर पाएगा और वह शीघ्र ही भारत के साथ विलय के लिए तैयार हो जाएगा। पता नही, पाकिस्तान को लेकर पटेल जैसे नेता से भी ये चूक कैसे हो रही थी?
कांग्रेस में एक तीसरा गुट थी था, जिसका नेता कोई नही था, परंतु आचार्य कृपलानी जैसे लोग उस गुट की आवाज को मुखर अवश्य करते थे। ये वो कांग्रेसी थे जो पाकिस्तान बनने पर सीधे सीधे प्रभावित हो रहे थे, या उजड़ रहे थे। जैसे बंगाल के कांग्रेसी जो उजडऩे के कगार पर थे और उन्हें ज्ञात था कि यदि विभाजन हुआ तो उन्हें किस प्रकार की विषमताओं और साम्प्रदायिक दंगों का सामना करना पड़ेगा? आचार्य कृपलानी ऐसे ही एक ‘पाकिस्तानी’ क्षेत्र से आते थे, इसलिए वह स्वयं और उनकी मान्यता के अन्य कांग्रेसी लोग विभाजन के दिन के ‘शोक का दिन’ मान रहे थे।
जब कांग्रेस ने हिंदू महासभा के साथ छल करते हुए और देश की हिंदू जनता का मूर्ख बनाते हुए 3 जून 1947 को देश के बंटवारे पर अपनी सहमति दी, तो उस समय ‘नेहरू गुट’ बाजी मार गया था। उससे अलग कांग्रेस के राष्ट्रवादी लोग और स्वस्थ चिंतन रखने वाले कांग्रेसियों को पूर्णत: उपेक्षित कर दिया गया। इस ‘उपकार’ के बदले में ‘माउंटबेटन’ नेहरू को भारत का प्रधानमंत्री बना देने को आतुर थे। नेहरू भी जानते थे कि उन्हें क्या मिलने वाला है और उनकी ‘कृतज्ञता’ किस प्रकार सम्मानित होने वाली है? इसलिए उन्होंने भी अपने ‘आका’ को प्रसन्न करने का उपाय खोज लिया।
पंडित नेहरू ने सत्ता प्राप्ति के पहले दिन ही दो बड़ी भूलें कीं-एक तो इस देश के पहले ‘गर्वनर जनरल’ के रूप में ‘माउंटबेटन’ नामक एक विदेशी का शपथ ग्रहण कराया। यह हमारी बौद्घिक क्षमताओं पर प्रश्नचिन्ह था। क्या इतने विशाल देश के पास एक भी ऐसा नेता नही था जो इस अति महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वाह कर सके। ‘माउंटबेटन’ का गर्वनर जनरल के रूप में 15 अगस्त 1947 को शपथ ग्रहण समारोह स्वतंत्रता की बेला में परतंत्रता का महिमामण्डन था, जो अनपेक्षित, अवांछित और अनुचित था। दूसरी बात ये थी कि नेहरू ने पहला झण्डा इंडिया गेट के उस ‘शहीदी स्मारक’ को नमन करके चढ़ाया जिस पर भारत के उन शहीदों के नाम लिखे थे जो कि ब्रिटिश शासकों के लिए काम करते-करते शहीद हुए और इसीलिए ब्रिटिश लोग उन्हें शहीद मानते थे। वे लोग भारतीय थे, इसलिए हम उनका सम्मान कर सकते हैं परंतु प्रश्न तो भारत की स्वतंत्रता के लिए काम करने वाले शहीदों को नमन करने का था। जिन्हें पहले दिन ही भुला दिया गया था। इन दोनों भूलों से एक बात तय हो गयी थी कि भारत ब्रिटेन की ‘छायाप्रति’ के रूप में काम करने को तैयार है।…और यही हुआ भी। 67 वर्षों के बीते काल में हमारी कार्यशैली ने यह सिद्घ भी कर दिया है। पर स्मरण रखना चाहिए कि हमारे शेष जीवन का आज पहला दिन है। इसलिए बीते हुए को भूलकर आज से अपने आपको सुधारने की डगर पर डाल लें। 68वें वर्ष में हम निजता की स्थापना के लिए संघर्ष करना आरंभ करें और अपने शहीदों को वास्तविक श्रद्घांजलि दें। समय की पुकार यही है।