*”जागना ही जीवन की ज्योति है- आचार्य चन्द्रशेखर शर्मा”*
केन्द्रीय आर्य युवक परिषद के तत्वावधान में “मानव जीवन में त्रिविध अवस्था” विषय पर ऑनलाइन गोष्ठी का आयोजन किया गया।यह परिषद का 364 वां वेबिनार था।
ओजस्वी मुख्य वक्ता वैदिक विद्वान आचार्य चंद्रशेखर शर्मा ने कहा कि जागना ही जीवन की ज्योति है।जागना ही जीवन की जीवंतता है और जागना ही जीवन का उत्थान है।इस मानवजीवन में जाग्रत्-स्वप्न -सुषुप्ति त्रिविध अवस्थाओं का आवागमन प्रतिदिन होता है।इन तीनों का क्या स्वरूप है?क्या रहस्य है?क्या बोध है? क्या जीवन में प्रभाव है?आदि प्रश्नों को शास्त्रीय वचनों एवं प्रमाणों से परिपुष्ट करते हुए सहज,सरस एवं सुबोध भाषा में दिव्य उपदेश दिया
1- *” जाग्रत् अवस्था का स्वरूप”*
जब जीवात्मा की चेतना शरीर के अंदर से बाहर की ओर आती है।तब शरीर की *” जाग्रत् अवस्था”* होती है और जीवात्मा का *” जाग्रत् स्थान”* है।यह जीवात्मा जाग्रत् स्थान में होने पर *” बहिःप्रज्ञ”* होता है।ये अपने सिर,आँख,कान,वाणी,फेफड़े,हृदय,पाद सात अंगों से क्रिया करता है।जीवात्मा जाग्रत् अवस्था में 19 साधनों से बाहर और अंदर भोग करता है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ,पाँच कर्मेन्द्रियाँ,पाँच प्राण,चार अन्तःकरण ये 19 भोग के साधन हैं।जाग्रत् स्थान में बैठा हुआ जीवात्मा एक-एक व्यक्ति के रूप में होने से *”वैश्वानर”* कहलाता है।जीवात्मा इस शरीर द्वारा संसार का भोग करने से *” स्थूलभुक्”* कहलाता है।अवस्थाएँ शरीर में घटित होती हैं।जीवात्मा तो एक ही अवस्था में है।
इसप्रकार से *” इन्द्रियजन्यज्ञानावस्था-जागरणम् “* विषय और इन्द्रिय संबंध से जब सुख-दुःख का अनुभव होता है,उस काल का नाम *”जाग्रत् अवस्था”* है।
श्री आचार्य जी ने विस्तार से विषय की विवेचना करते हुए कहा कि प्रातः जागना ही जीवननिर्माण का योग है।जागने का परम उद्देश्य है-ज्ञानयोग,बुद्धियोग,विज्ञानयोग,कर्मयोग,ध्यानयोग आदि के द्वारा आत्मयोग,आत्मकल्याण और आत्मबोध करना।
2- *” स्वप्न अवस्था का स्वरूप”* जिस समय इन्द्रियशक्ति का मन में लय हो जाता है,तब पूर्व में देखे,सुने या अनुभव किये हुए विषयों के संस्कारों जो मन में विद्यमान थे,उनका उद् भव हो जाना ही *”स्वप्नावस्था”* कहलाती है।
*” इन्द्रियाणां विलयत्वे दृष्टश्रुतानुभूतविषयाणां संस्कारवशात् मनसि उद् भवनं स्वप्नम् “*
इसप्रकार जाग्रत् और सुषुप्ति अवस्था की संधि का नाम *” स्वप्न”* है।
जब शरीर *”स्वप्न-अवस्था*” में होता है,तब जीवात्मा *”स्वप्न-स्थान*” में होता है। इससमय जीवात्मा *” अन्तःप्रज्ञ”* हो जाता है।बाहर के संसार के विषयों से उसका ध्यान हटकर अपने मन के विचारों में चला जाता है।
इस स्वप्न-अवस्था में वह सप्त अंगों और उन्नीस मुखों द्वारा सूक्ष्मशरीर की इन्द्रियों से विचारों का भोग करता है।इसकारण स्वप्न स्थान में जीवात्मा का शरीर *” तैजस”* कहलाता है।क्योंकि इससमय तेजोमय मन जाग उठता है।स्वप्न स्थान में जीवात्मा शरीर द्वारा *” प्रविविक्तभुक्”* कहलाता है।यह विवेक अथवा विचारों के द्वारा जगत् का भोग करता है।जाग्रत् का प्रकाश और सुषुप्ति का तम दोनों से मिलकर एक विचित्र काल्पनिक स्वप्न जगत की रचना होती है।स्वप्न सृष्टि अद्भुत है।स्वप्न सृष्टि मन का रचित संसार है।
समस्त स्वप्न-प्रपंच अविद्या का परिणाम और चेतन का विवर्त जाना जाता है।स्वप्न की विचित्र महिमा है।दिन में सोने वाला स्वप्न के अंदर रात्रि के अंधकार का सपना देख लेता है और रात के अंधेरे में सोने वाला सपने में दिन का उजाला देखता है।सपने में राजा रंक बनने और रंक राजा बनने का स्वप्न देखता है।सपने में जीव अपनी अतृप्त इच्छाओं की तृप्ति कर लेता है।अप्राप्त भोगों को भोग लेता है।वह सिद्ध-संकल्प हो जाता है।
अन्तःकरण में प्रसुप्त सूक्ष्म संस्कार स्वप्न में जागृत तथा स्थूलाकार हो जाते हैं।10 या 15 मिनट का लघुकाल का सपना अपने में दीर्घकालीन घटनाओं को घटित कर लेता है।
मन अपने प्रकाश में अनेक संस्कारजनित दृश्यों को सपने में देखकर कभी सुखी और कभी दुःखी होता है।सपनों की दुनियाँ निराली है।सपनों की गाथा अकथनीय है।सपनों में विविध घटनाओं का व्यतिक्रम होकर अर्थात् अनेक दृश्यों से एक विचित्रि दृश्य उपस्थापित हो जाता है।
*3- सुषुप्ति का स्वरूप”*
संसार में जितने दुःख हैं,उन सबसे वियुक्त अवस्था का नाम *” सुषुप्ति अवस्था”* है।
*” सर्वसंसारदुःखवियुक्तावस्था सुषुप्तिः इति”*
यह सुषुप्ति जाग्रत् और स्वप्न से सर्वथा भिन्न है।यह सुषुप्ति परमात्मा की महान महिमा की प्रत्यायक है।यह सुषुप्ति अवस्था सबके लिए लगभग समान है।
जैसे शिशु शैशव-अवस्था में अपनी माता की अमृत-गोदी में विश्रान्ति पाता है।उसीप्रकार जीवात्मा सुषुप्ति अवस्था में जगजननी की अमृतगोद में विश्रान्ति पाता है।
इस गाढ़ निद्रा में सुखी सुख को,धनी धन को,दुःखी दुःख को और ज्ञानी ज्ञान को भुलाकर अपनी गहनतम विश्रान्ति में चला जाता है।नियामक परमेश्वर के नियमानुसार सुषुप्ति में जीवात्मा नितान्त शान्त हो जाता है।
गाढ़निद्रा में दुःख के अभाव में सुख का आरोपमात्र है।
जब शरीर *” सुषुप्त-अवस्था”* में होता है,तब जीवात्मा *” सुषुप्त-स्थान”* में होता है।शरीर के पूर्ण सो जाने पर कोई कामना नहीं रहती है।किसीप्रकार का स्वप्न नहीं रहता है।शरीर की सुषुप्ति अवस्था को *”प्राज्ञ(प्र+अज्ञ)*”अत्यन्त अज्ञान की अवस्था कहा गया है।सुषुप्त-अवस्था में शरीर जड़-सा हो जाता है।
इससमय जीवात्मा अपने मूल स्वरूप में स्थित हो जाता है।जीवात्मा शरीर में शरीर रहते भी संबंध विच्छिन्न-सा हो जाता है। जीवात्मा अपनी चैतन्यशक्ति को शरीर में बिखेरने के स्थान पर अपने स्वरूप में खींचकर एकीभूत कर लेता है।
इस समय जीवात्मा तो *” प्रज्ञानघन(ज्ञान की घनावस्था)”* में आजाता है और शरीर *” प्राज्ञ ( अज्ञान की अवस्था)”* में आजाता है।जीवात्मा के सुषुप्त स्थान में आकर सब संस्कार शान्त हो जाते हैं।उस समय जीवात्मा के भोग का साधन अपनी चेतना मात्र रह जाती है।अतः जीवात्मा को *” चेतोमुख”* चेतना ही जिसके भोग का साधन है और कोई शारीरिक अंग नहीं है।
सुषुप्त-अवस्था में शरीर ज्ञानरहित हो जाता है।परन्तु जीवात्मा सुषुप्त स्थान में आकर ज्ञानरूप और आनन्दमय हो जाता है।यह आनन्द का ही उपभोग करता है।इसलिए सुषुप्ति में जीवात्मा को *” आनन्दभुक्”* कहते हैं।तभी मानव गहनतम निद्रा से उठकर कहता है कि *” मैं बड़े आनन्द से साेया हूँ।”*
इससमय जीवात्मा का संबंध शरीर और मन से छूटकर अपने रूप में आजाता है।यही जीवात्मा का अपने स्वरूप का आनन्द है।
*” ओ३म् में तीनों अवस्थाओं का स्वरूप”*
माडूक्य-उपनिषद् के अनुसार ओ३म् का अकार,उकार और मकार क्रमशः जाग्रत् ,स्वप्न और सुषुप्ति का स्वरूप तथा महाबोध है।
हम अपने दैनिक जीवन में जाग्रत्,स्वप्न और सुषुप्ति के सत्यस्वरूप और सत्यबोध को यथार्थरूप में जानकर और मानकर अपना सदैव सुमंगल करें।
राष्ट्रीय अध्यक्ष अनिल आर्य ने गोष्ठी का कुशल संचालन किया।
एवं मुख्य अतिथि श्री सतीश नागपाल एवं अध्यक्ष राजेश मेंहदीरत्ता ने भी इस विषय पर अपने विचार रखे।
गायक रविन्द्र गुप्ता,नरेंद्र आर्य सुमन,रचना वर्मा,वेद भगत,सुदेश आर्या,कमला हंस,प्रतिभा कटारिया,माता ईश्वर देवी,किरण शर्मा,कुसुम भंडारी आदि के मधुर भजन हुए।