कल्पना करो कि संसार में सबसे प्रथम आज एक विवाह हुआ। किंतु सवाल यह है कि उसी वक्त विवाह शब्द कहां से आ गया, जो इस पहलेपहल आज ही आरंभ होने वाले विवाह के लिए प्रकट किया गया? बात तो असल यह है कि विवाह तब से है जब से विवाह शब्द का अस्तित्व है-युद्घ तब से है जब से युद्घ शब्द का अस्तित्व है इत्यादि।
इसके पूर्व हम वेद में आए हुए ऐसे अनेक शब्दों का विवेचन कर आए हैं, जिन शब्दों का व्यवहार लोक में राजाओं, ऋषियों और नदियों आदि के नामों के लिए होता है। पर सोचना चाहिए कि उन राजाओं, ऋषि, नदी, ग्राम तथा देश-देश के पूर्व वे शब्द मौजूद थे या नही। राजा पुरूरवा और राजा इक्ष्वाकु के नाम रखते समय ये शब्द मौजूद थे। गंगा और यमुना के नाम रखते समय से गंगा, यमुना शब्द मौजूद थे। विश्वामित्र, जमदग्नि के नाम रखते समय ये शब्द मौजूद थे। काम्पील, अयोध्या आदि नाम रखते समय ये नाम मौजूद थे और व्रज, अर्व तथा गांधार आदि नाम रखने के समय भी ये नाम मौजूद दथे। यदि मौजूद न होते तो ये नाम न रखे जाते। इसलिए हमें अब यह स्वीकार करना चाहिए कि जिस समय नाम रखे गये, उस समय के पूर्व ये शब्द उन राजाओं, ऋषियों, नदियों ग्रामों और देशों को सूचित करने वाले न थे। न उस समय पुरूरवा शब्द से चंद्रवंशी पुरूरवा का बोध होता था और न गंगा शब्द से इस हरद्वार वाली गंगा का ही बोध होता था। उस समय इन शब्दों का कुछ दूसरा ही अर्थ था। इन शब्दों का उस समय जो अर्थ था, वही इनका असली अर्थ है। उसी को धात्वर्थ कहते हैं। पीछे से जहां-जहां उस अर्थ के से लक्षण दिखलाई पड़े, उन नवीन पदार्थों के भी वही नाम रख दिये गये।
अभी भी तो यही होता है। जब हम अपने लडक़े या अपने अन्य किसी पदार्थ का नाम रखना चाहते हैं, तो हमारे पास पहले से ही हजारों नाम मौजूद मिलते हैं और उन्हीं में से चुनकर हम कोई नाम रख देते हैं। इस तरह से किसी शब्द को देखकर यह नही समझ लेना चाहिए कि यह शब्द अमुक व्यवहार के बाद बना। प्रत्युत यह समझना चाहिए कि प्रत्येक शब्द व्यवहार से पहले का है। वह शब्द तब का है जब उस व्यवहार का संसार में पहले पहल जन्म हुआ था। अर्थात नाम तब का है जब का पदार्थ है, क्योंकि संज्ञा और पदार्थ की उत्पत्ति एक ही साथ होती है।
जिस समय मनुष्य उत्पन्न नही हुआ था, उस समय भी मनुष्य को छोडक़र शेष समस्त संसार वर्तमान था। पशु, पक्षी, तृण, पल्लव, नदी, पहाड़, जल, वायु, सूर्य, चंद्र, विद्युत, मेघ और आकाश तथा लाखों तारे मौजूद थे। इनके व्यवहार भी मौजूद थे। वृष्टिका समुद्र और समुद्र की वृष्टिका व्यवहार उस समय भी जारी था। उस समय में भी सूर्य की प्रदक्षिणा पृथ्वी करती थी। रात को सूर्य छिप जाता था और दिन को निकल आता था। सरदी में धूप कोमल और गर्मी में धूप तीक्ष्ण होती थी। सूर्य और चंद्र की किरणें उस समय भी पानी खींचती थीं और वनस्पति को आप्यायित करती थीं। कहने का मतलब यह कि लेना, देना, घूमना, बरसना, सूखना और तेज, नरम आदि सभी कर्म और गुण मौजूद थे।
अर्थात द्रव्य के साथ गुण और कर्मों का नित्य संबंध होने से जहां जहां उस प्रकार का लक्षण दृष्टिगोचर आ जाता था, वहां उन लक्ष्णों से वह संज्ञा आप ही उत्पन्न हो जाती थी।
क्रमश:
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।