डा. राधे श्याम द्विवेदी
अयोध्या हिंदुओं के प्राचीन व सात पवित्र तीर्थस्थलों (सप्तपुरियों) में एक है। अयोध्या को ईश्वर का नगर बताया गया है। इसकी सम्पन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है।अयोध्या को अथर्ववेद में ईशपुरी बताया गया है। इसके वैभव की तुलना स्वर्ग से की गई है। भगवान श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या त्रेतायुग की मानी जाती है। हालांकि, मौजूदा अयोध्या राजा विक्रमादित्य की बसाई हुई 2,000 साल पुरानी है। अयोध्या में दिवाली का वर्णन भी वेदों-पुराणों में है। प्रभु राम जब लंकाधिपति रावण का वध कर अयोध्या आए तो अयोध्या नगरी ने उनका स्वागत किया था। घर-घर दीप जलाए गए, पकवान बने और उल्लास छा गया था।
अथर्ववेद में यौगिक प्रतीक के रूप में अयोध्या का उल्लेख है-
अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।
तस्यां हिरण्मयः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः॥
(अथर्ववेद — 10.2.31)
रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना मनु ने की थी। यह पुरी सरयू के तट पर बारह योजन (लगभग १४४ कि.मी) लम्बाई और तीन योजन (लगभग ३६ कि.मी.) चौड़ाई में बसी थी। कई शताब्दी तक यह नगर सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी रहा। स्कन्दपुराण के अनुसार सरयू के तट पर दिव्य शोभा से युक्त दूसरी अमरावती के समान अयोध्या नगरी है। इसी भाव को इस प्रकार व्यक्त किया गया है–
” है अयोध्या अवनि की अमरावती।
इन्द्र हैं दशरथ विदित वीरब्रती।
वह मृतकों को मात्र पार उतारती।
यह जीवितों को यहीं से तारती।। ”
–स्वर्गीय राम धारी सिंह “दिनकर ”
अयोध्या मूल रूप से हिंदू मंदिरो का शहर है। यहां आज भी हिंदू धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं। जैन मत के अनुसार यहां चौबीस तीर्थंकरों में से पांच तीर्थंकरों का जन्म हुआ था। क्रम से पहले तीर्थंकर ऋषभनाथ जी, दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ जी, चौथे तीर्थंकर अभिनंदननाथ जी, पांचवे तीर्थंकर सुमतिनाथ जी और चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ जी। इसके अलावा जैन और वैदिक दोनों मतो के अनुसार भगवान रामचन्द्र जी का जन्म भी इसी भूमि पर हुआ। उक्त सभी तीर्थंकर और भगवान रामचंद्र जी सभी इक्ष्वाकु वंश से थे। इसका महत्त्व इसके प्राचीन इतिहास में निहित है क्योंकि भारत के प्रसिद्ध एवं प्रतापी क्षत्रियों (सूर्यवंशी) की राजधानी यही नगर रहा है। उक्त क्षत्रियों में दाशरथी रामचन्द्र अवतार के रूप में पूजे जाते हैं। पहले यह कोसल जनपद की राजधानी था।
अयोध्या नगरी की सीमा मौजूदा शहर के 3 से 4 किलोमीटर के दायरे तक सीमित नहीं है। अयोध्या 144 किलोमीटर तक पूर्व-पश्चिम में और उत्तर-दक्षिण में 36 किलोमीटर तक है।
मत्स्य आकार वाली अयोध्या का निर्माण भगवान राम के जन्म से बहुत पहले हुआ था। अयोध्या में भगवान राम का जन्म हो इसके लिए देवताओं और ऋषि- मुनियों ने इसकी चौरासी कोस की परिधि में सालों तक कठोर तप किया, जिसके परिणामस्वरूप भगवान विष्णु ने अवतार लिया। वैवसत् मनु ने कोसल देश बसाया और अयोध्या को उसकी राजधानी बनाया । मत्स्यपुराण में लिखा है कि अपना राज अपने बेटे को सौंप कर मनु मलयपर्वत पर तपस्या करने चले गये। यहाँ हजारों वर्ष तक तपस्या करने पर ब्रह्मा उनसे प्रसन्न होकर बोल “बर मांग” । राजा उनको प्रणाम करके बोले, “मुझं एक ही बर मांगना है। प्रलयकाल में मुझे जड़चेतन सब की रक्षा की शक्ति मिले” | इसपर ‘एवमस्तु’ कहकर ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये और देवताओं ने फूल बरसाये। इसके अनन्तर मनु फिर अपनी राजधानी को लौट आये । एक दिन पितृ तर्पण करते हुये उनके हाथ से पानी के साथ एक नन्ही सी मछली गिर पड़ी। दयालु राजा ने उसे उठाकर घड़े में डाल दिया। परन्तु दिन में वह नन्ही सी मछली इतनी बड़ी हो गयी कि घड़े में न समायी। मनु ने उसे निकाल कर बड़े मटके में रख दिया परन्तु रात ही भर में प्रलय की कथा हिन्दू, मुसल्मान, ईसाई सब के धर्मग्रन्थों में है।
जबमछली तीन हाथ की हो गयी और मनु से कहने लगी श्राप हम पर दया कीजिये और हमें बचाइये । तब मनु ने उसे मटके में से निकाल कर कुयें में डाल दिया । थोड़ी देर में कुआं भी छोटा पड़ गया तब वह मछली एक बड़े तलाव में पहुँचा दी गयी । यहाँ वह योजन भर लम्बी हो गई तब मनु ने उसे गंगा में डाला । वहाँ भी बढ़ी तो महासागर भेजी गयी, फिर भी उसकी बाढ़ न रुकी तब तो मनु बहुत घबराये और कहने लगे “क्या तुम असुरों के राजा हो ? या साक्षात् बासुदेव हो जो बढ़ते बढ़ते सौ याजन के हो गये । हम तुम्हें पहचान गये, तुम केशव हृषीकेश जगन्नाथ और जगद्धाम हो।”
भगवान् बोले “तुमने हमें पहचान लिया । थोड़े ही दिनों में प्रलय होने वाली है जिसमें बन और पहाड़ सब डूब जायेंगे । सृष्टि को बचाने के लिये देवताओं ने यह नाव बनायी है । इसी में स्वंदज, अण्डज, उद्भिज और जरायुज रक्खे जायेंगे । तुम इस नाव को ले लो और आनेवाली विपत्ति से सृष्टि को बचाओ। जब तुम देखना कि नाव बही जाती है तो इसे हमारे सोंग में बाँध देना । दुखियों को इस संकट से बचाकर तुम बड़ा उपकार करोगे । तुम कृतयुग में एक मन्वन्तर राज करोगे और देवता तुम्हारी पूजा करेंगे।”
मनु ने पूछा कि प्रलय कब होगी और आप के फिर कब दर्शन होंगे। मत्स्य भगवान् ने उत्तर दिया कि “ सौ वर्ष तक अनावृष्टि होगी, फिर काल पड़ेगा और सूर्य की किरणें ऐसी प्रचंड होंगी कि सारे जीव जन्तु भस्म हो जायेंगे फिर पानी बरसेगा और सब जलथल हो जायगा। उस समय हम सींगधारी मत्स्य के रूप में प्रकट होंगे। तुम इस नाव में सब को भर कर इस रस्सी से हमारे सींग में बाँध देना।
यह गंगा रामगंगा (सरयू ) है क्योंकि गंगा राजा भगीरथ की लाई हुई। और भगीरथ मनु से चौवालीसवीं पीढ़ी में थे। अयोध्या का इतिहास देना।” यह कह कर भगवान् तो अन्तर्धान हो गये और मनु योगाभ्यास करने लगे।
अयोध्यापुरी का वर्णन करते हुए कहा कि जिस प्रकार मत्स्य का आकार होता है। उसी प्रकार से अयोध्या का आकार है। अयोध्या 12 योजन लंबी और 3 योजन चौड़ी है।
ऐसा कहा जाता है कि अयोध्या में 10,000 मंदिर हैं , लेकिन सापेक्ष महत्व के लगभग 100 मंदिर हैं। प्राचीन उल्लेखों के अनुसार तब इसका क्षेत्रफल 96 वर्ग मील था। यहाँ पर सातवीं शाताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग आया था। उसके अनुसार यहाँ 20 बौद्ध मंदिर थे तथा 3000 भिक्षु रहते थे।
तुसली कृत रामचरित मानस की इस चौपाई में भगवान राम का अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम और पतित पावनी सरयू की महिमा का बखान है।
‘अवधपुरी मम पुरी सुहावनि,
दक्षिण दिश बह सरयू पावनि।’
अयोध्या हिंदुओं के प्राचीन और सात पवित्र तीर्थ स्थलों में एक है। यहां 10 हजार मंदिर हैं और इसे मंदिरों का नगर कहा जाता है। श्रीरामजन्मभूमि सहित 84 कोस की अयोध्या में 200 ऐसे तीर्थ स्थल हैं, जो ऐतिहासिक हैं। वैसे तो मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण सहित कई पुराणों में अयोध्या का उल्लेख है पर स्कंद पुराण में सरयू नदी, प्रमुख मंदिर, कुंड का उल्लेख मिलता है।अयोध्या के 10 हजार मंदिरों में से सबसे ज्यादा मंदिर श्रीराम और मां सीता के हैं। सारे तीर्थ अयोध्या में आकर निवास करते हैं। अयोध्या के 100 से ज्यादा कुंडों का वर्णन भी पुराण में है। इसमें मनु से लेकर सूर्य, भरत, सीता, हनुमान, विभीषण समेत भगवान से जुड़े लोगों के नाम से भी कुंड हैं।
भगवान विष्णु के चक्र पर बसी है अयोध्या:-
अयोध्या विश्व की पहली नगरी है। मानवेंद्र मनु का जन्म अयोध्या में ही हुआ। यह अत्यन्त प्राचीन नगरी है जिसका वर्णन वेद, पुराण आदि में बखूबी मिलता है। अयोध्या के वर्तमान मंदिर 200 से 500 साल पुराने हैं, पर धर्मस्थल लाखों साल पहले के हैं। अयोध्या धनुषाकार है और यह भगवान विष्णु के चक्र पर बसी हुई है। इसके 9 द्वार का उल्लेख प्राचीन धर्मग्रंथों में मिलता है। अयोध्या नगरी की बसावट मत्स्याकार और धनुषाकार है।
इस मत्स्य का मुख पूर्व की ओर तथा पुंछ दक्षिण पश्चिम की ओर आज भी देखा जा सकता है।
अर्पण और समर्पण की नगरी है अयोध्या:-
अयोध्या शब्द सुनते ही स्वत: अर्थ बोध होने लगता है। जहां कोई युद्ध न हो। जहां के लोग युद्ध प्रिय न हों, जहां के लोग प्रेम प्रिय हों। जहां प्रेम का साम्राज्य हो। जो श्रीराम प्रेम से पगी हों, वो अयोध्या है। इसका एक नाम अपराजिता भी है। जिसे कोई पराजित न कर सके। जिसे कोई जीत न सके या जहां आकर जीतने की इच्छा खत्म हो जाए। जहां सिर्फ अर्पण हो समर्पण हो, वो अयोध्या है। भगवान के अवतार के बिना उनके विज्ञान को समझा नहीं जा सकता है । जहां आस्था है, वहीं रास्ता है। आस्था, आत्मविश्वास और कड़ी मेहनत से हम अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं। अध्यात्म के बिना भौतिक उत्थान का कोई महत्व नहीं है। मन की पवित्रता के बिना तन की पवित्रता संभव नहीं है। हृदय के पवित्र भाव ही वाच् रूप में भक्ति, सरलता और आचरण के रूप में प्रकट होते हैं। इस आचरण के अभाव में सर्वत्र अराजकता दिखाई देती है। जीवन से सुख-शांति और सरलता मानो विदा हो चुकी है। ऐसे में परमात्मा का आधार ही सुख व आनंद प्राप्ति का कारण है।
सरयू नदी से सम्बन्धित कुछ रोचक बातें:-
राम नगरी के चरण पखारने वाली सरयू नदी वर्णन ना हो तो अयोध्या की गाथा अधूरी रह जाएगी क्योंकि श्रीराम के जन्म से वनगमन और बैकुंठ गमन की यह साक्षी रही है।
ऋग्वेद में सरयू नदी का उल्लेख:-
अयोध्या तक यह नदी सरयू के नाम से जानी जाती है, लेकिन उसके बाद यह नदी घाघरा के नाम से जानी जाती है। सरयू की कुल लंबाई करीब 160 किमी है। भगवान श्री राम के जन्मस्थान अयोध्या से होकर बहने से हिंदू धर्म में इस नदी का विशेष महत्व है। सरयू नदी का वर्णन ऋग्वेद में भी मिलता है।
पुराणों में सरयू नदी का वर्णन:-
वामन पुराण के 13वें अध्याय, ब्रह्म पुराण के 19वें अध्याय और वायुपुराण के 45वें अध्याय में गंगा, यमुना, गोमती, सरयू और शारदा आदि नदियों का हिमालय से प्रवाहित होना बताया गया है। सरयू का प्रवाह कैलास मानसरोवर से कब बंद हुआ, इसका विवरण तो नहीं मिलता, लेकिन सरस्वती व गोमती की तरह इस नदी में भी प्रवाह भौगोलिक कारणों से बंद होना माना जा रहा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, सरयू व शारदा नदी का संगम तो हुआ ही है, सरयू व गंगा का संगम श्रीराम के पूर्वज भगीरथ ने करवाया था।
विष्णु के नेत्रों से प्रगट हुई सरयू नदी:-
पुराणों में वर्णित है कि सरयू भगवान विष्णु के नेत्रों से प्रगट हुई हैं। आनंद रामायण के यात्रा कांड में उल्लेख है कि प्राचीन काल में शंखासुर दैत्य ने वेदों को चुराकर समुद्र में डाल दिया और स्वयं भी वहां छिप गया था। तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण कर दैत्य का वध किया और ब्रह्माजी को वेद सौंपकर अपना वास्तविक स्वरूप धारण किया। उस समय हर्ष के कारण भगवान विष्णु की आंखों से प्रेमाश्रु टपक पड़े। ब्रह्माजी ने उस प्रेमाश्रु को मानसरोवर में डालकर उसे सुरक्षित कर लिया। इस जल को महापराक्रमी वैवस्वत महाराज ने बाण के प्रहार से मानसरोवर से बाहर निकाला। यही जलधारा सरयू नदी कहलाई।
स्वर्ग के समान अयोध्या नगरी बाद में भगीरथ अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए गंगा को पृथ्वी पर लाए और उन्होंने ही गंगा व सरयू का संगम करवाया।
“अवधपुरी मम पुरी सुहावनि, दक्षिण दिश बह सरयू पावनि।”
तुलसी कृत मानस की इस चौपाई में सरयू नदी को अयोध्या की पहचान का प्रमुख प्रतीक बताया गया है। राम की जन्मभूमि अयोध्या उत्तर प्रदेश में सरयू नदी के दाएं तट पर स्थित है।
कैलाश से भी निकली है सरयू नदी:-
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के अवतरण व लीला परमधाम-गमन की साक्षी रही सरयू नदी का उदगम स्थल यूं तो कैलास मानसरोवर माना जाता है, परंतु अब यह नदी उत्तर प्रदेश के लखीमपुरी खीरी जिले के खैरीगढ़ रियासत की राजधानी रही सिंगाही के जंगल की झील से श्रीराम नगरी अयोध्या तक ही बहती है। मत्स्यपुराण के अध्याय 121 और वाल्मीकि रामायण के 24वें सर्ग में इस नदी का वर्णन मिलता है। इसमें कहा गया है कि हिमालय पर कैलाश पर्वत है, जिससे लोकपावन सरयू निकली है, यह अयोध्यापुरी से सट कर बहती है।
शिव जी का शाप:-
रामायण के अनुसार, भगवान राम ने इसी नदी में प्रवेश करके जल समाधि ली थी। उत्तर रामायण में उल्लेख मिलता है कि भगवान राम के सरयू में जल समाधि लेने पर शिवजी बहुत नाराज हुए। क्रोधित होकर शिवजी ने सरयू को शाप दे दिया कि तुम्हारे जल में आचमन करने पर भी लोगों को पाप लगेगा। तुम्हारे जल में कोई स्नान भी नहीं करेगा। सरयू इस शाप से आहत होकर शिव की शरण में पहुंची और बोली कि मेरे जल में भगवान के जल समाधि लेने में मेरा क्या अपराध है, यह तो पहले से ही विधि का विधान बना हुआ था। शिवजी सरयू के तर्क से शांत हुए और कहा कि मेरा शाप व्यर्थ नहीं जाएगा, तुम्हारे जल में स्नान करने से पाप नहीं लगेगा, लेकिन तुम्हारे जल का प्रयोग पूजा में नहीं होगा। इस नदी के साथ एक शाप है जिसकी वजह से पूजा कर्म में इसके जल का प्रयोग नहीं होता है।
बहराइच के मैदान से नदी का उद्गम:-
सरयू नदी का उद्गम उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले से हुआ है। बहराइच से निकलकर यह नदी गोंडा से होती हुई अयोध्या तक जाती है। पहले यह नदी गोंडा के परसपुर तहसील में पसका नामक तीर्थ स्थान पर घाघरा नदी से मिलती थी। अब यहां बांध बन जाने से यह नदी पसका से करीब आठ किमी आगे चंदापुर नामक स्थान पर मिलती है।
अयोध्या में 360 से अधिक घाट:-
सरयू नदी को इसके ऊपरी हिस्से में काली नदी के नाम से जाना जाता है, जब यह उत्तराखंड में बहती है। मैदान में उतरने के पश्चात् इसमें करनाली या घाघरा नदी आकर मिलती है और इसका नाम सरयू हो जाता है। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्रों में इसे शारदा भी कहा जाता है।ज्यादातर ब्रिटिश मानचित्रकार इसे पूरे मार्ग पर्यंत घाघरा या गोगरा के नाम से प्रदर्शित करते रहे हैं किन्तु परम्परा में और स्थानीय लोगों द्वारा इसे सरयू (या सरजू) कहा जाता है। इसके अन्य नाम देविका, रामप्रिया इत्यादि हैं। यह नदी बिहार के आरा और छपरा के पास गंगा में मिल जाती है। हमने एक सर्वेक्षण में अनुमान लगाया है कि अप और डाउन सब मिलाकर अयोध्या में 360 से अधिक घाट हैं। नदी के किनारे मात्र अयोध्या नगर में 14 प्रमुख घाट हैं। इनमें गुप्तद्वार घाट, कैकेयी घाट, कौशल्या घाट, पापमोचन घाट, लक्ष्मण घाट या सहस्रधारा घाट, ऋणमोचन घाट, शिवाला घाट, जटाई घाट, अहिल्याबाई घाट, धौरहरा घाट, नया घाट और जानकी घाट आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इनका वर्णन स्कंद पुराण के 22वें अध्याय में किया गया है।
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