Categories
महत्वपूर्ण लेख

महर्षि दयानन्द की यथार्थ जन्मतिथि और इससे जुड़े कुछ प्रकरण

dayanand_400-मनमोहन कुमार आर्य-

महर्षि दयानन्द की यथार्थ जन्मतिथि 12 फरवरी सन् 1825 है। इस दिन शनिवार था। हिन्दी तिथि के अनुसार इस दिन फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की दशमी थी। इस तिथि के निर्धारण में ऋषि भक्त डॉ. ज्वलन्त कुमार शास्त्री का प्रमुख योगदान है। यद्यपि पूर्व तिथियों में पं. भीमसेन जी शास्त्री द्वारा प्रस्तावित व मान्य जन्मतिथि भी यही वास्तविक तिथि थी परन्तु अन्य तिथियों यथा 19 फरवरी, 1825, 2 सितम्बर, 1824, 10 फरवरी, 1825 तथा 15 सितम्बर, 1824 तिथियों की विद्यमानता में सत्य व यथार्थ तिथि भी विवादित बनी हुई थी। इन सभी तिथियों की आर्य जगत् के प्रसिद्ध विद्वान व समालोचक डा. ज्वलन्त कुमार शास्त्री ने वैदुष्यपूर्ण विवेचना कर दूध से मक्खन व धृत के मंथन के समान सभी तिथियों में से सत्य तिथि 12 फरवरी, सन् 1825 दिन शनिवार का अनुसंधान कर अन्य सभी तिथियों की अग्राह्यता व अशुद्धता पर समाधानजनक प्रकाश डाला है। इस विषय पर उनके द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘‘महर्षि दयानन्द सरस्वती की प्रामाणिक जन्म-तिथि’’ पठनयीय है। अब कोई कारण नहीं बचा है कि सभी विद्वान व आर्य समाज के अनुयायी इस तिथि को न माने। प्रमुख विद्वान डा. भवानीलाल भारतीय जी ने इस तिथि की सत्यता व प्रामाणिकता को स्वीकार कर लिया है। अन्य सभी विद्वानों ने भी इस तिथि को स्वीकार कर लिया है और अब यही प्रयोग की जा रही है। इस पर भी यत्र तत्र कुछ विद्वान आदि पुराने संस्कारों के अनुसार अब भी महर्षि दयानन्द के चित्र व नाम के साथ (1824-1883) लिख रहे हैं जो कि अशुद्ध है। शुद्ध जीवन अवधि (1825-1883) है। इसी प्रकार से आर्य जगत की पत्र पत्रिकाओं में दयानन्दाब्द भी 191 लिखा हुआ दृष्टिगोचर हो रहा है। यह भी शुद्ध है। शुद्ध दयानन्दाब्द 190 वां चल रहा है और सर्वत्र इसी का प्रयोग किया जाना चाहिये। इसकी गणना 2014-1825$1 = 190 होता है। हमारा सभी आर्य समाज के विद्वानों, पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक व अधिकारियों से अनुरोध है कि वह पत्र-पत्रिकाओं एवं अपने पत्राचार में महर्षि दयानन्द की शुद्ध जीवन अवधि 1825-1883 एवं शुद्ध दयानन्दाब्द 190 का प्रयोग करें।

इसके साथ हमारा एक सुझाव यह भी है कि हमें अपनी पत्र पत्रिकाओं में दयानन्दाब्द की तरह से आर्यसमाजाब्द भी प्रकाशित करना चाहिये और इसे अपने पत्रचार में अपने पत्र में अंकित भी करना चाहिये। आजकल, 10 अप्रैल, 2014 से, यह आर्यसमाजब्द 140 वां चल रहा है। हम इस नये आर्यसमाजब्द पर आर्य जगत के विद्वानों के विचार आमंत्रित करते हैं। हम पाठकों की सुविधा के लिए यह भी बताना चाहते हैं कि महर्षि दयानन्द का कुल जीवन काल, 12 फरवरी, 1825 से 30 अक्तूबर, 1883 तक 58 वर्ष 8 माह व 18 दिन का रहा। महर्षि दयानन्द ने मथुरा में गुरू स्वामी विरजानन्द सरस्वती से 1860 से 1863 के मध्य अध्ययन किया था। सन् 1883 में उनका शरीर पात् होने के समय तक उन्हें लगभग 20 वर्षों का समय मिला। इन 20 वर्षों में उन्होंने वेदों का प्रचार कर संसार में वेद प्रचार का एक कीर्तिमान स्थापित किया है। उनके पूर्व व पश्चात इतना सघन वेद प्रचार किसी अन्य ने किया हो, ऐसा कोई उदाहरण नहीं है। स्वामीजी ने 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई के काकड़वाड़ी में प्रथम आर्य समाज की स्थापना की थी। आर्य समाज को स्थापित करने के बाद उन्हें कुल 8 वर्ष 6 माह और 20 दिन का समय मिला। किसी संस्था के स्थापित होने के मात्र 8-9 वर्षों में इतना कार्य करने वाली भी अन्य कोई संस्था हम नहीं पाते जो 139 वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी आज विश्व में प्रासंगिक, आवश्यक एवं अपरिहार्य बनी हुई है। यह ऐसी संस्था है जिसकी नींव सत्य, तर्क, ज्ञान, विज्ञान, विवेक तथा वेदों के तर्क संगत प्रमाणों पर स्थित है और जो अपनी आलोचना व उसके सम्यक् उत्तर देने के लिए हमेशा की तरह आज भी कटिबद्ध है जबकि अन्य समानधर्मी संस्थाओं की यह स्थिति नहीं है।

Comment:Cancel reply

Exit mobile version