आलू को  पैदा करने  वाला  ,….

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कविता — 4

जो मौन रहकर कर्म  साधना  में   रखता    विश्वास,
पसीने से लथपथ काया में जीवन की है गहरी आस।
कर्मशील जीवन है जिसका निश्छलता से भरे विचार,
अन्नदाता वह हम सबका सदजीवन का देता आभास।।

तपती है वसुधा गर्मी से , आग  बरसाता है आकाश ,
लू के थपेड़े खाकर भी  , खेत  में करता  रहता काम।
यथावत साधना जारी रहती जब आती है शीत ऋतु,
अवकाश नहीं लेता वर्षा में खेत बनाता अपना धाम।।

खून पसीना बहा – बहाकर अनवरत परिश्रम करता है ,
पेट पीठ को एक बनाकर,  निरन्तर   उद्यम  करता  है।
बादल को टकटकी लगाकर देखे वर्षा को आतुर होकर,
भुखमरी और गरीबी झेले,  जैसे – तैसे  दम  भरता  है।।

नहीं पौष्टिक भोजन ले पाता अन्नदाता कहाता दुनिया का,
कर्जे में दबा रहता है सदा क्या हाल बताऊं हुलिया  का ?
साधना समझ जीवन को जीता संतोषी बनकर  रहता है ,
कमर का हाल वही  हो  जाता  जो होता  तंग पुलिया का।

आलू को  पैदा करने  वाला भूखा  मरता  अपने  घर में,
आलू से चिप्स बनाने वाला सोना  भरता  अपने  घर  में।
न्याय नहीं  दे पाती व्यवस्था कृषक के बिखरे  छप्पर को,
बारिश में कैसे बैठ सकेगा  कोई  कृषक अपने  छप्पर में।।

यदि देश का कृषक अपने हाथों फांसी का फंदा चूम रहा,
तो समझ लीजिए ऐसे शासक पर  काल स्वयं ही घूम रहा।
जब निर्दय समाज हो जाता है पशुवत अधिकारों को छीने,
तब समझ लीजिए अंत समय का  कालचक्र  भी घूम रहा।।

यदि शासक संवेदनशील नहीं निज कोठी भरता हो धन से,
यदि सरकारी अधिकारी भी ना जनता का काम करें मन से।
यदि रक्षक भक्षक बन बैठे तो क्या कहने को रहता जीवन में,
‘राकेश’ किसान का हित चाहे यह भाव जगाता जन मन में ।।

यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’-  से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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