कांग्रेस के बिना विपक्षी दलों का कितना सफल हो पाएगा ?

 योगेन्द्र योगी

क्षेत्रीय दलों की एकजुटता में बाधा सिर्फ कांग्रेस ही नहीं है, बल्कि ऐसे दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दे भी हैं, जिन पर एकराय कायम करना टेड़ी खीर है। जिन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का संगठन और सत्ता नहीं है, वहां चुनाव में किस आधार पर आह्वान करने का फायदा क्या होगा।

तेलंगाना के मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर राव ने भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ क्षेत्रीय दलों की एकजुटता को लेकर एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्व ठाकरे से मुलाकात की। राव से पहले क्षेत्रीय दलों को एक जाजम पर लाने का ऐसा ही प्रयास पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी कर चुकी हैं। ममता को इसमें कोई सफलता नहीं मिली। पवार ने पहले भी कहा था कि कांग्रेस को शामिल किए बगैर ऐसा कोई गठबंधन कामयाब नहीं होगा। पवार कांग्रेस को शामिल करने की पैरवी कर चुके हैं। क्षेत्रीय दलों के सामने संकट यह है कि फिलहाल कांग्रेस उनकी प्रतिद्वन्दी हो या नहीं कि किन्तु गठबंधन के बाद कांग्रेस के विस्तार से बचना संभव नहीं है। ऐसे में क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व को भाजपा के साथ कांग्रेस से भी उतना बड़ा खतरा नजर आता है। फर्क सिर्फ इतना है कि भाजपा से खतरा प्रत्यक्ष है और कांग्रेस से पर्दे के पीछे। यही वजह है कि भाजपा के साथ ही क्षेत्रीय दल कांग्रेस से भी समान दूरी बनाने रखने की कवायद में जुटे हुए हैं।

पवार को इस बात का एहसास है कि कांग्रेस के बगैर गैर भाजपा विपक्षी गठबंधन बेहद कमजोर साबित होगा, इसीलिए पंवार कांग्रेस को शामिल करने पर जोर देते रहे हैं। पंवार की यह बात क्षेत्रीय दलों के गले नहीं उतरती। इसका कारण भी साफ है कि कांग्रेस से भी क्षेत्रीय दलों को उनके राज्य में उतनी ही बड़ी चुनौती है, जितनी कि भाजपा से। ऐसे में सीटों के बंटवारे में कांग्रेस का सबसे बड़ा हिस्सा रहेगा। विशेषकर ऐसे राज्यों में जहां विपक्षी पार्टी के तौर पर सिर्फ कांग्रेस का मजबूत आधार है। कांग्रेस ही एकमात्र ऐसा दल है जिनका सांगठनिक आधार पूरे देश में मौजूद है। ऐसे में विपक्षी एकता में कांग्रेसी की हिस्सेदारी सभी राज्यों में होगी। कांग्रेस को शामिल करने का मतलब यह है भी है कि जिन राज्योंं में क्षेत्रीय दलों की सत्ता है, उनमें सीटों में हिस्सेदारी भी करना, जिसके क्षेत्रीय दल प्रारंभ से ही सख्त खिलाफ हैं। दरअसल क्षेत्रीय दल अपने जनाधार वाले राज्यों को छोड़ कर दूसरे राज्यों में सत्ता में भागीदारी चाहते हैं। उन राज्यों में भी कांग्रेस प्रमुख विपक्षी दल के रूप में मौजूद है। ऐसे में कांग्रेस को अकेला छोडऩा आसान नहीं है।
भाजपा के खिलाफ एकजुटता में क्षेत्रीय दलों का कांग्रेस को साथ नहीं लेना भी दर्शाता है कि उन्हें घर में सेंध लगने की चिन्ता है। क्षेत्रीय दलों ने अपनी सत्ता बढ़ाने के लिए दूसरे राज्यों में पहल भी की तो इसमें खास सफलता हाथ नहीं लगी। दरअसल क्षेत्रीय दलों की एकजुटता में कांग्रेस गले की फांस बनी हुई है। कांग्रेस के बगैर इनकी एकजुटता अधूरी है। भाजपा से राजनीतिक जंग कांग्रेस को शामिल किए बगैर नहीं लड़ी जा सकती। किन्तु अन्य क्षेत्रीय दलों को जितना डर भाजपा से सताता है, उतना ही कांग्रेस से भी है। कांग्रेस भी उनकी उतनी बड़ी प्रतिद्वन्दी है, जितनी की भाजपा। अंतर यही है कि क्षेत्रीय दल कांग्रेस का नाम लेने से कतराते हैं। इसी वजह से कांग्रेस को गठबंधन में शामिल करने से भी कतराते हैं। 
क्षेत्रीय दलों की एकजुटता में बाधा सिर्फ कांग्रेस ही नहीं है, बल्कि ऐसे दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दे भी हैं, जिन पर एकराय कायम करना टेड़ी खीर है। जिन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का संगठन और सत्ता नहीं है, वहां चुनाव में किस आधार पर आह्वान करने का फायदा क्या होगा। ऐसे राज्यों में फायदा तो कांग्रेस या भाजपा को ही होना है। कुछ छुटभैय्या किस्म के राजनीतिक दल यदि ऐसे राज्यों में हैं भी तो जनमानस को उनकी तरफ मोडऩा इतना आसान नहीं हैं। कागजी जैसे राजनीतिक दलों के पास भी पूरे राज्य में मजबूत संगठन मौजूद नहीं है। कुछ क्षेत्रीय और जातीय बैल्ट तक ही उनकी राजनीतिक सीमित है। फिर भी सारे क्षेत्रीय दल यदि एकजुट होकर अपना प्रत्याशी भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ उतार भी दें तो उनके टिकट वितरण में ही सिर फुटव्वल की नौबत आ जाएगी। प्रत्याशियों को चुनना और उनके लिए चुनावी खर्चे का इंतजाम करना आसान काम नहीं है। पूर्व में ऐसा हो चुका है कि दूसरे राज्यों में कुछ सीटें जीतने के बाद क्षेत्रीय दल के विधायक कांग्रेस या भाजपा की झोली में चले गए। ऐसे में कुछ सीटें जीतने के बावजूद क्षेत्रीय दलों के लिए यह खतरा हमेशा बना रहेगा।

क्षेत्रीय दलों के गठबंधन में प्रमुख बाधा क्षेत्रीय दल वाले ही पड़ौसी राज्य भी हैं। कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों में आपस में ही प्रतिस्पर्धा है। हर क्षेत्रीय दल अपने पड़ौसी राज्य में अपना विस्तार चाहता है। ऐसे में दूसरे क्षेत्रीय दलों से टकराव होना तय है। ऐसा अब तक होता भी रहा है। एकता की राह में एक और बड़ी बाधा चुनावी घोषणा पत्र है। इसमें मुद्दे तय करने में सबके अपने-अपने हित है। सिर्फ भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ लिख कर घोषणा पत्र पूरा नहीं किया जा सकता है। इतना जरूर है कि यदि गठबंधन चाहे क्षेत्रीय दलों के आधार वाले राज्यों में हो या फिर दूसरे राज्यों में, विकास का मुद्दा बेशक हाशिए पर चला जाए पर अल्पसंख्यकों का मुद्दा प्रमुख रहेगा। क्षेत्रीय पार्टियां राष्ट्रीय जिम्मेदारी निभाने से बचती रही हैं। यही वजह रही कि आतंकावाद के खिलाफ बोलने और कार्रवाई में क्षेत्रीय दलों ने पूरे मनोयोग के साथ कार्रवाई को अंजाम नहीं दिया। यहां तक की इसकी भर्त्सना भी दबे-छिपे स्वरों में ही की है। 
क्षेत्रीय दल अपने राज्यों में अल्पसंख्यकों का वोट बैंक खिसकने के भय से कठोर कार्रवाई से मुंह चुराते रहे हैं। इसका उदाहरण पश्चिमी बंगाल और बिहार रहे हैं। पश्चिमी बंगाल में राज्य की पुलिस ने आतंकियों को पनाह देने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की हिम्मत नहीं जुटाई। इंटेलीजेंस की सूचनाओं के बाद आखिरकार केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों को कार्रवाई करने के लिए मजबूर होना पड़ा। वर्ष 2020 में एनआईए ने छापा मार कर केरल और बंगाल से अलकायदा समर्थित 9 आतंकियों को गिरफ्तार किया था। आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करने के मामले में पश्चिमी बंगाल की तरह केरल और बिहार का ट्रेक भी खराब रहा है। इससे पहले भी भारी मात्रा में हथियारों का जखीरा और आतंकियों की गिरफ्तारी हो चुकी है। इन दोनों राज्यों में क्षेत्रीय दलों की सरकारों का वर्चस्व रहा है। केरल में कम्युनिस्ट और बिहार में लालू यादव के शासन के दौरान केंद्रीय एजेंसियों ने कई बार आतंकियों की धरपकड़ की है। 
सिर्फ अल्पसंख्यकों का ही नहीं बल्कि क्षेत्रीय दलों के सामने भ्रष्टाचार से निपटना भी प्रमुख चुनौती रही है। इस विषबेल का क्षेत्रीय दलों ने मुखर विरोध नहीं किया। अलबत्ता केन्द्रीय जांच ब्यूरो और ईडी की कार्रवाई का पुरजोर विरोध अवश्य किया है। ईडी और सीबीआई की भ्रष्टाचार की र्कारवाई के खिलाफ तो ममता बनर्जी धरने-प्रदर्शन पर उतर आई। इस मुद्दे पर भी इन दलों ने कभी एकराय व्यक्त नहीं की। ममता हो या चंद्रशेखर राव, किसी के लिए भी कांग्रेस को शामिल किए बगैर राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ गठबंधन बनाना आसान नहीं है। यदि ऐसा गठबंधन बन भी गया तो वह कांग्रेस के बगैर वह रीढविहीन ही होगा। क्षेत्रीय दलों को देश की एकता-अखंडता के मुद्दे पर अपना नरम रवैया छोडऩा होगा। इसके साथ ही देश के विकास का मजबूत खाका पेश करना होगा। भ्रष्टाचार और विकास के लिए रोडमैप देश के सामने रखना होगा। इन मुद्दें पर नजरिया स्पष्ट किए बगैर क्षेत्रीय दलों के लिए भाजपा विरोधी गठबंधन सिर्फ एक सपना ही रहेगा।

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