ओ३म्
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आर्यसमाज चार वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानता है और इसके प्रचार के लिए वेदभाष्य, ऋषिप्रणीत ग्रन्थ दर्शन, उपनिषद्, मनुस्मृति, ब्राह्मण ग्रन्थ, रामायण, महाभारत सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों एवं इतर वेदानकूल ग्रन्थों का प्रचार करता है जो ऋषि दयानन्द से पूर्व व उनके अनुयायी विद्वानों ने समय-समय पर लिखे व प्रकाशित किये हैं। ऋषि दयानन्द की कृपा से आज हमें चारों वेदों के वैदिक मान्यताओं के अनुकूल भाष्यों सहित दर्शन, उपनिषद्, मनुस्मृति आदि प्राचीन ग्रन्थों पर हिन्दी टीकायें भी उपलब्ध हैं जिन्होंने पूरे विश्व में अपनी सत्यता व महत्ता का लोहा मनवा लिया है। अब किसी मत व सम्प्रदाय का विद्वान इन वैदिक सिद्धान्तों पर न तो शंका करता है और न ही खण्डन करता है। ऋषि दयानन्द जी के बाद उनके अनुयायी शीर्ष विद्वानों ने वैदिक सिद्धान्तों पर अनेक ग्रन्थ एवं लेख आदि लिख कर जिज्ञासु एवं अन्य विषयों के विद्वानों का मार्गदर्शन किया है। बहुत सा साहित्य प्रकाशकों से सुलभ होता है और बहुत सा अप्राप्य भी है। ऐसा ही एक ग्रन्थ ‘आर्य सिद्धान्त विमर्श’ था जो वर्षों व दशकों से अप्राप्त था। अब इस ग्रन्थ का प्रकाशन हो गया है जिससे इस ग्रन्थ में संग्रहित आर्यसमाज के शीर्ष विद्वानों के कुछ प्रमुख विषयों पर विद्वतापूर्ण सारगर्भित लेख पाठकों के लिए सुलभ हो गये हैं। यह ‘आर्य सिद्धान्त विमर्श’ पुस्तक सन् 1933 की 19 से 22 अक्टूबर माह तक प्रथम आर्य-विद्वत्सम्मेलन में पठित निबन्धों का संकलन है। यह ग्रन्थ आर्य साहित्य के प्रमुख प्रकाशक ‘हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डौन सिटी’ ने प्रकाशकीय, सम्पादकीय, महात्मा नारायण स्वामी जी की भूमिका एवं विषय-सूची सहित प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में आर्यसमाज के लगभग 9 दशक पूर्व विद्वत-सम्मेलन में 11 विद्वानों द्वारा पढ़े गये निबन्ध हैं जिनकी महत्ता का अनुमान पाठक इन्हें पढ़कर ही अनुभव कर सकते हैं। इस ग्रन्थ में जिन निबन्धों का संकलन किया है वह निम्न हैं:-
पठित निबन्ध का विषय / लेखक
1- स्वागताध्यक्ष का भाषण – श्री लाला ज्ञानचन्द्रजी आर्य
2- भूमिका – स्वामी महात्मा नारायण स्वामी जी
3- वेद का आविर्भाव और उनके समझने का प्रकार – स्वामी महात्मा नारायण स्वामी जी
4- ऋषि दयानन्द की वेदभाष्य शैली – पं. धर्मदेव जी सिद्धान्तालंकार विद्यावाचस्पति
5- ऋषि दयानन्द की वेदभाष्य शैली – पं. धर्मदेव जी सिद्धान्तालंकार विद्यावाचस्पति
6- वेद और पश्चिमी विज्ञान – पं0 श्री ब्रह्मानन्दजी आयुर्वेद शिरोमणि
7- वैदिक-ऋषि – स्वामी श्री वेदानन्दजी तीर्थ
8- वेद में इतिहास – पं. गोपालदत्त जी शास्त्री
9- जाति-विवेचना – पं. ईश्वर चन्द्र जी शास्त्री
10- वेद और निरुक्त – पं. ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु
11- निरुक्तकार और वेद में इतिहास – पं. श्री ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु
12- क्या वैदिक ऋषि मन्त्र रचयिता थे? – ब्र. श्री युधिष्ठिरजी विरजानन्द आश्रम
13- उपर्युक्त लेखकों में से तीन विद्वानों का जीवन परिचय –
प्रकाशकीय में ऋषिभक्त आर्यविद्वान डा. विवेक आर्य जी ने लिखा है कि आर्यसमाज के विद्वानों ने वेदों को जनमानस तक पहुंचाने के लिए अत्यन्त पुरुषार्थ किया है। वेद पर उठाई गई शंकाओं की निवृत्ति हेतु विद्वानों ने अनेक शास्त्रार्थ किए। अनेकों उच्च कोटि की पुस्तकों का सृजन किया। अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे और वेदांक के नाम से विशेष अंक प्रकाशित किये। राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय मंचों से स्वामी दयानन्द के वेद विषयक चिन्तन को प्रकाशित किया। समय-समय पर गुरुकुल कांगड़ी में सरस्वती साहित्य सम्मेलन, गुरुकुल ज्वालापुर, इंडोलाजी कांफ्रेंस आदि मंचों से वेद विषयक चिन्तन को प्रस्तुत किया गया। इसी कड़ी में अनेकों विद्वत् सम्मेलनों का भी आयोजन किया गया। इन सम्मेलनों में वेद सम्बन्धी विषयों पर अनेक शोधपत्र/निबन्ध प्रस्तुत किये जाते थे। समय-समय पर इनका प्रकाशन भी होता था। प्रस्तुत पुस्तक 19 अक्टूबर से 22 अक्टूबर, 1933 में दिल्ली में सम्पन्न हुए प्रथम आर्य विद्वत् सम्मेलन के परिणामस्वरूप सार्वदेशिक आयै प्रतिनिधि सभा से प्रकाशित हुई थी। पुस्तक के स्वागत-अध्यक्ष लाला ज्ञानचन्द्रजी थे। महात्मा नारायण स्वामी, पं. धर्मदेव सिद्धान्तालंकार, पं. ब्रह्मानन्द जी, स्वामी वेदानन्द तीर्थ, पं. गोपालदत्त शास्त्री, पं. ईश्वरचन्द्र शास्त्री, पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युयिाष्ठिर जी मीमांसक आदि विद्वानों ने अपने-अपने शोधपत्र/निबन्ध पढ़े थे। इन निबन्धों के विषय थे वेद का आविर्भाव, ऋषि दयानन्द की वेद भाष्य शैली, वेद और पश्चिमी विद्वान्, वेद में इतिहास, जाति-विवेचना, वेद और निरुक्त, निरुक्ताकार और वेद में इतिहास और क्या वैदिक ऋषि मन्त्र रचयिता थे?, ये सभी विषय अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं क्योंकि यह वेद को ईश्वरीय ज्ञान एवं ईश्वर की रचना सिद्ध करते हैं। यह सिद्ध करते हैं कि वेदों का प्रकाश सृष्टि के आदि में हुआ था। स्वामी दयानन्द की वेदभाष्य शैली प्राचीन ऋषियों की मान्यता के अनुकूल है इसलिए स्वीकार करने योग्य हैं। पश्चिमी अनुवादकों ने सायण-महीधरआदि के भाष्य, जो निरुक्त के अनुरूप नहीं हैं, को आधार बनाकर अपनी कल्पनाओं को पोषित किया है। वेदों को समझने में निरुक्त का महत्व भी इस पुस्तक में दिए लेखों से सिद्ध होता है। वेदों को समझने में यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण कुंजी है। प्रकाशकीय लेख में अन्य महत्वपूर्ण विचार भी प्रस्तुत किए गए हैं।
पुस्तक में सम्पादकीय भी दिया गया है जिसमें श्री ओंकार जी ने विमर्श शब्द का उल्लेख कर कहा है कि विमर्श का अर्थ है विचार। इस पुस्तक में आर्यों के सिद्धान्तों पर गम्भीर विवेचन किया गया है। आज से चैरासी वर्ष पूर्व आर्यों की शिरोमणि सभा ‘सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा’ ने आर्य सिद्धान्तों पर विचार विनिमय के लिए एक संगोष्ठी (सेमीनार) का आयोजन किया था। इस संगोष्ठी में उस समय के मूर्धाभिषिक्त विद्वानों ने भाग लेकर अपने-अपने उद्गार व्यक्त किए थे। सम्पादकीय में अन्य भी अनेक महत्वपूर्ण विषय प्रस्तुत किये हैं जिसे पढ़कर पाठक लाभान्वित हो सकते हैं।
पुस्तक की भूमिका महान् ऋषिभक्त संन्यासी महात्मा नारायण स्वामी जी ने लिखी है। महात्मा नारायण स्वामी जी का नाम आर्यसमाज के इतिहास में प्रमुख अग्रणीय विद्वानों में सम्मिलित है। भूमिका में वह लिखते हैं कि वैदिक धर्म, प्रकार की दृष्टि से दार्शनिक धर्म है, उसकी प्रत्येक शिक्षा दर्शन और विज्ञान से समर्थित है। ऐसा होते हुए भी, आर्यसमाज के पुरुषार्थ का तुच्छ भाग भी उत्कृष्ट साहित्य के उत्पन्न करने में व्यय नहीं होता। इस बात को लक्ष्य में रखकर अनेक बार विचार किया गया कि इस त्रुटि की पूर्ति करने के लिए सब से पहले किस साधन को काम में लाया जावे। अनेक विद्या प्रेमियों के साथ सलाह भी की गई और अन्त में सबकी सम्मति से निश्चय किया गया कि ‘‘सार्वदेशिक विद्वात् आर्य सम्मेलन” का आयोजन किया जाये। सार्वदेशिक सभा की अन्तरंग सभा में भी यह विषय उपस्थित किया गया और प्रतिष्ठित सभा के विद्या प्रेमी पुस्तकाध्यक्ष ला. ज्ञानचन्दजी ठेकेदार ने पहले सम्मेलन का समस्त व्यय देना स्वीकार किया। सम्मेलन बुलाया गया और उसमें अनेक विद्वानों ने भिन्न-भिन्न विषयों पर अपने-अपने निबन्ध सुनाये और उन पर वादानुवाद भी हुआ। सम्मेलन की बैठक लगातार चार दिन तक होती रही। सम्मेलन, अन्त में उत्तमता के साथ विद्वानों के हृदयों में अपनी लोकप्रियता की छाया छोड़ता हुआ समाप्त हुआ और सभी उपस्थित विद्वानों ने इच्छा प्रकट की कि सम्मेलन को स्थिरता का रूप दिया जावे। अस्तु। उसी सम्मेलन में पढ़े गये कतिपय विद्वानों के निबन्ध विद्या-प्रेमी पाठकों की भेंट किये जाते हैं ओर आशा की जाती है कि उनसे अधिक लाभ उठाया जायेगा।
स्वागत भाषण श्री लाला ज्ञानचन्द जी आर्य ने दिया था। इसे पुस्तक के आरम्भ में स्थान दिया गया है। यह वक्तव्य 24 पृष्ठों का है और विद्वता एवं अनेक जानकारियों से पूर्ण है। अपने भाषण के आरम्भ में श्री लाला ज्ञानचन्दजी आर्य ने कहा है मैं अपनी तथा देहली-निवासी आर्य समुदाय की ओर से आपका सहर्ष हार्दिक स्वागत करता हूं। आप सब महानुभावों का सप्रेम तथा सादर सत्कार करता हूं। इसमें सन्देह नहीं है कि भाषा का पण्डित न होने के कारण मैं ऐसे शब्दों में आपका स्वागत करने में असमर्थ हूं जो कि आपके यथोचित मान, प्रतिष्ठा के लिए उचित हों। परन्तु मुझे तो इसमें भी सन्देह है कि मैं किसी प्रकार के भी शब्दों से अपने उस हर्ष, प्रेम और आदर को प्रकट कर सकता हूं, जो कि आपका स्वागत करने के लिए मेरे हृदय में हैं। क्योंकि प्रेम और हर्ष के समय तो मनुष्य शब्द-शास्त्र का पण्डित होते हुए भी गद्गद् होकर मुग्ध-सा हो जाता है। सच्चे प्रेम और आदर का प्रमाण शब्दों से नहीं, प्रत्युत अपने व्यवहार से ही दिया जा सकता है।
आर्य सिद्धान्त विमर्श पुस्तक में जो निबन्ध दिये गये हैं वह शीर्ष विद्वानों द्वारा लिखित उच्च कोटि के लेख वा ज्ञान-सामग्री है। इससे पाठकों के ज्ञान व उल्लास में वृद्धि होगी। प्रकाशक महोदय ने इस ग्रन्थ को प्रकाशित कर इसके संरक्षण सहित जिज्ञासु पाठकों को अलभ्य सामग्री उपलब्ध कराने का महनीय कार्य किया है। वह बधाई के पात्र हैं। सभी पाठकों को इस ग्रन्थ का स्वागत करना चाहिये और इसे प्राप्त कर इसका अध्ययन करना चाहिये। इस पुस्तक को ‘हितकारी प्रकाशन समिति’, बयानिया पाड़ा, द्वारा-‘अभ्युदय’ भवन, अग्रसेन कन्या महाविद्यालय मार्ग, स्टेशन रोड, हिण्डौन सिटी-राजस्थान-322230 से प्राप्त किया जा सकता है। पुस्तक प्राप्ति के लिए इस पुस्तक के प्रकाशक ऋषिभक्त श्री प्रभाकरदेव आर्य जी के मोबाइल नम्बर 7014248035 एवं 9414034072 पर सम्पर्क कर सकते हैं। पुस्तक का प्रकाशन कुछ महीने पहले सन् 2021 में हुआ है। पुस्तक का मुद्रित मूल्य रु. 200.00 है। यह पुस्तक डा. रंजना आर्य, डा. रेखा आर्य, डा. ऋचा आर्य एवं डा. ऋद्धि आर्य के पूज्य पूर्वजों की स्मृति में उनके सात्विक दान से प्रकाशित की गई है। पुस्तक के अन्तिम पृष्ठ पर स्मृति शेष श्री प्यारे लाल जी आर्य, स्मृति शेष श्री भूमित्र जी आर्य तथा स्मृति शेष श्रीमती कुसुमलता जी आर्य के चित्र दिए गए हैं। हम प्रकाशक जी द्वारा इस पुस्तक के प्रकाशन का स्वागत करते हैं और उन्हें साधुवाद एवं बधाई देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य