रजिया के शासन काल में भी जलती रही स्वतंत्रता की ज्योति
रजिया भारतवर्ष के तुर्क गुलाम वंश की नही अपितु पूरी सल्तनत काल में हुई एकमात्र मुस्लिम महिला सुल्तान है। कुछ लोगों ने हिंदू धर्म की अपेक्षा इस्लाम को अधिक प्रगतिशील माना है। परंतु इस कथित ‘प्रगतिशील धर्म’ ने अपनी इस महिला सुल्तान को अपना पूर्ण सहयोग और समर्थन प्रदान नही किया। फलस्वरूप ये मुस्लिम महिला शासिका (सुल्ताना) इस्लामिक रूढि़वाद के सामने परास्त होकर अपने जीवन से ही हाथ धो बैठी। इस महत्वपूर्ण तथ्य को इतिहास की दृष्टि से ओझल करने का अतार्किक और अनुचित प्रयास करते हुए इस महिला शासिका को संपूर्ण भारतवर्ष की सुल्ताना सिद्घ करने पर अधिक बल दिया जाता रहा है।
विलासी और कामुक रूकनुरूद्दीन फिरोजशाह
सुल्ताना रजिया अल्तमश की एकमात्र संतान थी, जो उसके उत्तराधिकार के युद्घ में जीतकर भारत के उस क्षेत्र की शासिका बनी जो अब तक किसी न किसी प्रकार से मुस्लिम शासन के अधीन हो चुका था। इससे पूर्व थोड़े से काल के लिए रूकनुरूद्दीन फिरोजशाह नामक व्यक्ति भी सुल्तान बना जो कि अल्तमश का दासी पुत्र था।
इस सुल्तान के विषय में ‘तबकाते नासिरी’ का लेखक हमें बताता है कि-
‘‘अनुचित स्थानों पर जनता का धन (जो कि हिंदू जनता से लूटकर एकत्र किया गया था) लुटाते हुए उसने अपने आपको महफिलों की मौजमस्ती के हाथों सौंप दिया। कामुकता और विलासित में वे इतना डूब चुके थे कि सरकारी काम उपेक्षित होने के कारण एकदम उलझ गये। उनकी मां शाह तुरकन देश के सरकारी कामों में दखल देने लगीं। पति के जीवनकाल में दूसरी महिलाएं उन्हें ईष्र्या और घृणा की दृष्टि से देखती थीं। अत: उन सभी को सजा देने का अवसर अब इन्हें मिला। प्रतिशोध की अग्नि में अंधी होकर उन्होंने अनेक स्त्रियों को मौत के घाट उतार दिया। इस महिला ने अपनी एक सौतन के पुत्र शहजादे कुतुबुद्दीन ऐबक की आंखें फुड़वां दीं थी और उसके पश्चात उसे मरवा दिया था।’’
मिनहाज की इस साक्षी से स्पष्ट है कि अल्तमश की मृत्यु के बाद सुल्तान बने रूकनुद्दीन को अपनी सल्तनत को संभालने तक का अवसर नही मिला।
हरम बने इस्लाम की दुर्बलता
इस्लाम में ब्रह्मचर्य की साधना का कहीं भी कोई प्राविधान ना होने के कारण ‘हरम’ मुस्लिम शासकों की सबसे बड़ी बहादुरी माना गया है। उसमें जितनी अधिक महिलाएं हों, उतना ही उत्तम होता है। परंतु सच ये है कि ये ‘हरम’ ही इस्लाम के शासकों के लिए और स्वयं इस्लाम के लिए भी सबसे बड़ी दुर्बलता सिद्घ हुए है। क्योंकि यदि इस्लाम आंशिक रूप से भी भाईचारे और शांति का प्रचारक प्रसारक धर्म है तो महिलाओं को लेकर जितने रक्तिम् संघर्ष इस धर्म को करने पड़े हैं, उनसे लोगों में भाईचारा उत्पन्न न होकर शत्रुता और वैरभाव पनपा। ‘काफिरों’ की महिलाओं को इस्लामिक सुल्तानों ने केवल एक ‘धन’ माना और उसको अपने भोगने की वस्तु माना। फलस्वरूप इस्लाम का शांति का उपदेश भी यथार्थ में ‘अशांति’ का ही कारण बना।
कांटों को बता दिया कालीन
ऐसी सभी दुर्बलताओं और इस्लामिक परंपराओं के मध्य रजिया सुल्ताना बन बैठी। उसके सलाहकार वो लोग थे जो महिला को केवल उपभोग की वस्तु से बढक़र कुछ नही मानते थे इसलिए कामुकता और विलासिता उनकी दृष्टि में और सृष्टि में पग-2 पर कांटों की भांति बिछी रहती थी, और यह सच है कि कांटों से कभी कालीन नही बना करती है और यदि कालीन पर कांटे बिखरे पड़े हों तो उन पर नंगे पैरों चलना मूर्खता के अतिरिक्त कुछ नही होता। रजिया का दुर्भाग्य ही ये था कि उसकी तो कालीन ही कांटों से बनायी गयी थी। उसको भ्रम में डाले रखकर सदा ये बताया जाता रहा कि कांटे कहीं नही हैं, आप फूलों पर चल रही हैं, और चलती रहो…. चलती रहो।
बन गयी ‘चोली-सरकार’
इस महिला सुल्ताना को हिंदुओं की ओर से और अपने शत्रु मुस्लिम दरबारियों या विरोधियों की ओर से तो चुनौती मिली ही साथ ही अपनी अस्मिता की रक्षार्थ अपने ‘आस्तीन के सांपों’ से भी चुनौती मिली। पी.एन.ओक महोदय ने उन मुस्लिम दरबारियों की मन: स्थिति को इंगित करते हुए जो केवल महिला को कामुक भावना से ही निहारने के अभ्यासी थे व्यंग्य कसते हुए कहा है कि ये लोग ‘चोली-सरकार’ को पसंद करने वाले नही थे। (भारत में मुस्लिम सुल्तान भाग-1 पृष्ठ 164)
मिलने लगीं चुनौतियां
इलियट एण्ड डाउसन (ग्रंथ 2 पृष्ठ 333) पर कहते हैं कि रजिया के विरोध के लिए लोग देश के विभिन्न भागों से आ-आकर दिल्ली के दरवाजों पर एकत्र होने लगे और दीर्घकाल तक शत्रुता चलती रही।’’
इस प्रकार रजिया को अपने शासन काल में हर क्षण चुनौतियों का सामना करना पड़ा। निस्संदेह कहा जा सकता है कि इन चुनौतियों में सबसे बड़ी चुनौती उसके लिए हिंदुओं के स्वतंत्रता संघर्ष थे। जिन्हें किसी भी प्रकार दबाये रखना सबसे बड़ी समस्या थी।
मिनहाज उस सिराज ने रजिया की प्रशंसा में लिखा है-‘‘सुल्ताना रजिया एक महान शासिका थी। वह एक बुद्घिमती, न्यायशील तथा दयालु, अपने राज्य की शुभचिंतक न्याय करने वाली, अपनी प्रजा की रक्षक और अपनी सेनाओं की नेता थी। उसमें वे सभी गुण विद्यमान थे जो एक शासक के लिए अपेक्षित हैं, किंतु चूंकि सही लिंग में उसका जन्म नही हुआ था, अत: लोगों की दृष्टि में वे सभी गुण निर्मूल्य थे।’’
एक विद्वान ने किया विद्रोह का शुभारंभ
यह बहुत दुर्लभ होता है कि एक विद्वान लेखनी के स्थान पर तलवार उठाये, परंतु ‘आपात्काले नास्ति: मर्यादा:’ अर्थात आपत्ति काल में कोई मर्यादा नही होती, यह बात भी ध्यान में रखने वाली होती है। जिसके कारण आपत्तिकाल से बाहर निकलने के उपाय भी एक विद्वान ही सोचता है। जब देश की अस्मिता और स्वतंत्रता दोनों को ही असीम संकटों से जूझना पड़ रहा था, तब कोई भी विद्वान उससे निरपेक्ष होकर भला कैसे बैठ सकता था? फलस्वरूप समाज के जागरूक लोग इस संकट से पार पाने के लिए दिन-रात परिश्रम, पुरूषार्थ प्रयत्न और प्रतिशोध लेने के उपाय खोजने में लगे थे।
ऐसा ही एक महान विद्वान और वीर हिंदू नार था। जिसने तुर्कों को देश से भगाने के लिए हिंदुओं की एक सेना बनानी आरंभ की। (संदर्भ: भारत में मुस्लिम सुल्तान, भाग-1) कहा जाता है हिन्दुओं की इस सेना में भाग लेने के लिए सिंध, गुजरात आदि सुदूरस्थ प्रांतों से भी लोग आये थे। जिनका सबका एक ही सांझा जीवनव्रत था-विदेशियों को भारत भू से निकाल बाहर करना और भारत के धर्म, संस्कृति और स्वतंत्रता की रक्षा करना।
इस हिंदू सेना में सुदूरस्थ प्रांतों के लोगों का सम्मिलित होना हमें बताता है कि सभी लोगों के भीतर ‘राष्ट्रवाद’ की भावना कितनी वेगवती थी, और उस भावना के वशीभूत होकर काम करना उनके लिए कितना आनंददायक था।
सही समय पर गठित की गयी थी सेना
1236 ई. में जब रजिया सुल्ताना बनी तभी इस हिंदू सेना का संगठन कर लिया गया था। क्योंकि इसके नेताओं का यह दृढ़ अनुमान था कि अब जबकि सुल्ताना को अपनी गद्दी स्वयं बचानी कठिन हो रही है तो इसी समय शत्रु की रीढ़ तोडऩा उचित होगा।
छेड़ दिया खुला युद्घ
मिनहाज उस सिराज अपनी पुस्तक ‘तबकाते नासिरी’ में लिखता है कि नार ने इस्लाम के लोगों के विरूद्घ खुला युद्घ छेड़ दिया। 1239 ई. में रजिया के विरूद्घ लगभग एक हजार हिंदूवीरों ने अस्त्र शस्त्र लेकर दिल्ली की खुली सडक़ों पर प्रदर्शन किया और ‘जामा मस्जिद’ (पाठक ध्यान दें कि जामा मस्जिद को इसके कथित निर्माता शाहजहां से लगभग 400 वर्ष पूर्व उल्लेखित किया जा रहा है) तक चढ़ आये। दूसरा दल कपड़ा बाजार होता हुआ मुइज्जी के दरवाजे में इसे मस्जिद समझकर प्रविष्ट हो गया। दोनों ओर से उन लोगों (अर्थात मुस्लिमों पर) पर चढ़ाई कर दी। इनकी तलवारों ने अनेक धर्मात्मा (अर्थात मुसलमान) मारे गये और अनेक भागती हुई भीड़ ने कुचल दिये।
इससे पहले कि यह छोटी मगर वीर हिंदू सेना नगर पर अधिकार करे’’ वक्षत्राण, पृष्ठ त्राण, शिरस्त्राण आदि जिरह बख्तर पहने भाले (संदर्भ : भारत में मुस्लिम सुल्तान भाग-1) और ढाल आदि हथियारों से लैस (मुस्लिम सेना) चारों से एकत्रित हो, जामा मस्जिद पर चढऩे लगी मुसलमान जो दूसरी मस्जिदों के शिखर तक चढ़ गये थे, ईंट और पत्थर नीचे लुढक़ाने लगे। बख्तरबंद मुस्लिम सेना से लड़़ते हुए एक हजार वीर हिंदू योद्घाओं ने अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान देकर स्वतंत्रता की देवी को प्रसन्न कर दिया। अब हमने यदि उनका स्मारक इतिहास के पृष्ठों पर भी नही बनाया तो इसमें उनका क्या दोष है?
हमारे स्वतंत्रता सैनानी हिंदू जाति की जीवन्तता को सिद्घ करने के लिए लड़ रहे थे और हमने इस जीवंतता को ही समाप्त करने की सौगंध उठा ली है। सचमुच हम आत्महत्या के पथ पर हैं। हमें रूकना होगा और मंथन करना होगा-अपने मंतव्य का और चिंतन करना होगा-अपने गंतव्य का।
स्वधर्म और कीर्ति खोना पाप है
वैदिक हिंदू धर्म में स्वधर्म और कीर्ति खोना पाप माना गया है। गीता में श्रीकृष्ण जी अर्जुन से कहते हैं :-
‘‘हे पार्थ ! यह युद्घ एक स्वर्गद्वार है, जो तेरे लिए अपने आप खुल गया है क्योंकि तुम भाग्यवान हो।’’ 32
यदि यह धर्मयुक्त संग्राम नही लड़ोगे तो स्वधर्म और कीर्ति खोकर पाप के भागीदार बनोगे। (33 द्वितीयोध्याय।)
जो राष्ट्रघातक लोग राष्ट्र के धर्म और कीर्ति के विनाशक बन जाते हैं, भारत की युद्घ परंपरा में उनसे युद्घ करना प्रत्येक भारतीय का कत्र्तव्य होता है, उद्देश्य होता है। अत: स्वधर्म और कीर्ति को खोना हमारे यहां पाप है। इसीलिए इसी प्रकरण में श्रीकृष्ण कहते हैं:-अपने धर्म को देखो, भय करना, कोई योग्यता नही है, धर्मयुक्त युद्घ से बढक़र दूसरा कोई कल्याण कारक कत्र्तव्य क्षत्रिय के लिए नही है।’’ (31 द्वितीयोध्याय)
श्रीकृष्ण भारतीय संस्कृति के वह जीवंत चरित्र हैं जो हजारों वर्ष से इस देश के आर्यपुत्रों का युद्घ के विषय में मार्गदर्शन कर रहे हैं। हजारों लाखों अर्जुन आज भी जब जीवन संग्राम के किसी मोर्चे पर स्वयं को पराजित होता अनुभव करने लगते हैं, तब गीता उसका मार्गदर्शन करती है, और वह ‘अर्जुन’ पुन: ‘गाण्डीव’ उठा लेता है।
इसे कहते हैं गौरव
जिस भारत भू के कण-कण में कृष्ण रमे हों और सर्वत्र इस योगिराज की युद्घक्रांति का डिण्डिम घोष हो रहा हो, उस भारत के विषय में शीघ्रता से यह कह देना कि ये तो कायरों की भूमि है, स्वयं अपने साथ छल करना है। इसलिए ऐसे स्वतंत्रता आंदोलनों पर प्रसन्नता व्यक्त करनी चाहिए। अंधकार से प्रकाश की ओर चलने की उपासना करने वाले इस सनातन देश भारत में उस समय कितने ‘हजार नार’ ऐसे थे जो अंधकार आच्छादित भारत के राजनीतिक गगन मण्डल में विद्युत की भांति चमकते थे, और एक ही बार में हजारों शत्रुओं पर पडक़र उन्हें ‘दोजख की आग’ में धकेल देते थे। इसे कहते हैं गौरव और केवल गौरव!!
एक प्रसंग
अपने इन मध्ययुगीन स्वतंत्रता सैनानियों को देखकर एक प्रसंग स्मरण आ रहा है। यद्यपि प्रसंग काल्पनिक है, परंतु समझने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण और प्रेरणास्पद है।
किसी जंगल में कोई भेडिय़ा रहता था, वह था बहुत दुबला पतला सा। एक दिन उसे किसी सेठ का एककुत्ता अकस्मात जंगल में मिल गया। दोनों में बातचीत होने लगी। कुत्ते का अच्छा स्वास्थ्य देखकर अंतत: भेडिय़े ने उससे पूछ ही लिया कि तुम्हारे इस अच्छे स्वास्थ्य का रहस्य क्या है?
तब कुत्ते ने अपने स्वामी सेठ की प्रशंसा करते हुए भेडिय़े को बताया कि उसका स्वामी उसे खाने-पीने के लिए बहुत कुछ देता है और किसी भी प्रकार की कमी नही आने देता है। यदि आप भी मेरे साथ चलेंगे तो आपको भी इसी प्रकार दिया जाएगा।
कुत्ते की बात सुनकर भेडिय़ा को अच्छा लगा और उसने कुत्ते के साथ चलने की सहमति दे दी। कुत्ता भेडिय़े को लेकर शहर की ओर चल दिया। इतने में भेडिय़े ने कुत्ते की ग्रीवा में कोई रस्सी के बांधने का सा चिन्ह देखा। उसने उत्सुकता वश कुत्ते से पूछ लिया कि उसकी ग्रीवा पर ये चिन्ह किसका है। तब कुत्ते ने उसे बताया कि रात में तो मेरा स्वामी मुझे खुला रखता है, जिससे कि मैं घर की रखवाली कर सकूं, पर दिन में वह मुझे बांध देता है। इतना सुनकर भेडिय़ा लौटने लगा। कुत्ते ने उससे पूछा कि आप लौटे क्यों जा रहे हो? तब भेडिय़े ने कहा कि मुझे पराधीनता स्वीकार नही है, अच्छे हलवे और स्वादिष्ट भोजन की अपेक्षा मेरी स्वाधीनता मुझे अधिक प्रिय है, जिसके बिना मैं नही रह सकता। भोजन के लिए निजता को भुला देना या उसे बंधनों में स्वयं जकड़वा देना, किसी भी स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए उचित नही है।
‘‘मिले खुश्क रोटी जो आजाद रहकर,
गुलामी के हलवे से है लाख बेहतर।
कुत्ता भेडिय़ा की ओर देखता रह गया।
बस जैसे अपनी स्वतंत्रता के लिए भेडिय़े के विचार थे वैसे ही हमारे मध्यकालीन स्वतंत्रता सैनानियों के थे। उनके लिए पराधीनता का हलवा त्याज्य था और स्वाधीनता की रूखी सूखी रोटियां और कष्ट साध्य जीवन अत्यंत प्रिय था।
शांति के लिए लड़ाई क्यों?
इस्लाम के मानने वालों ने इस्लाम का अभिप्राय शान्ति से किया है। इस अर्थ को देखकर एक पुरानी जर्मनदन्त कथा को यहां प्रस्तुत करना उपयुक्त होगा।
एक मूर्ख व्यक्ति रास्ते में खड़ा था। उसने एकओर से सशस्त्र सैन्य बलों को अपनी ओर आते देखा।
उसने किसी अपने साथी से पूछा-‘‘ये लोग कहां से आ रहे हैं?’’
‘‘शांति में से?’’
‘‘कहां जा रहे हैं?’’
‘‘युद्घ में।’’
‘‘युद्घ में ये क्या करते हैं?’’
‘‘शत्रुओं को मारते हैं उनके शहरों को जलाते हैं….।’’
‘‘ऐसा क्यों करते हैं?’’
‘‘शांति को पा जाने के लिए।’’
मूर्ख बोला-‘‘मैं समझ नही पा रहा हूं कि इन सब लोगों को शांति में से युद्घ में क्यों जाना पड़ता है? ये लोग अपनी पहली वाली शांति में ही क्यों नही रहते?’’
इस्लाम की तलवार की तलवार जिस निर्दयता से लाखों लोगों का संहार करती रही है, क्या उसे देखकर उपरोक्त जर्मन दंत कथा में मूर्ख व्यक्ति द्वारा दिया गया तर्क पूर्णत: सटीक नही बैठता है?
रजिया का शरीरान्त करने में भी मिनहाज ने हिंदुओं को ही दोषी माना है। यद्यपि कुछ लोगों ने इसे हिंदुओं के सिर पर मिथ्या मढ़ा गया दोष माना है। परंतु यहां प्रश्न ये है कि क्या मनुष्य को अपनी स्वाधीनता भेडिय़े जैसे पशु से भी अधिकप्रिय नही हो सकती? और दूसरे ये कि क्या भारतवासियों को अपनी ‘शांति’ और ‘इस्लामिक शान्ति’ के मध्य अंतर करने का अधिकार नही था?