जम्मू कश्मीर में हिन्दुओं के अस्तित्व का यक्ष प्रश्न-7

1 Jammu and Kashmirगतांक से आगे…..
28 मार्च 1965 को वह चीन गये और प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई से मिले। यह सर्वविदित है कि 1962 में चीन के भारत पर किये गये आक्रमण से दोनों देशों के संबंध कटु हो गये थे। इस समय शेख का पासपोर्ट रद्द कर दिया गया और चीन से वापिसी पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
श्रीलाल बहादुर शास्त्री का ताशकंद में निधन :
1965 में भारत पाकिस्तान युद्घ हुआ। भारत विजयी तो हुआ, परंतु ताशकंद समझौते के समय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जीती हुई सारी भूमि व क्षेत्र पाकिस्तान को सौंप दिया। नेहरू के देहावसान के बाद भी लौहपुरूष समझे जाने वाले प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी उन्हीं की राह पर चले और ताशकंद में अपनी भी जीवन नैया गंवा बैठे। धूर्त शत्रु के साथ कैसा व्यवहार चाहिए यह चाणक्य के देश में अब नेताओं को पुन: स्मरण करना होगा। अन्यथा देश छला जाता रहेगा और अगली पीढिय़ां सिसकती रहेंगी।
1965 में भारत पाक युद्घ 1 सितंबर से 22 सितंबर तक चला। पाकिस्तान का 4500 वर्ग किमी. क्षेत्र भारत ने विजित किया। दस जनवरी 1966 के ताशकंद समझौते में जीती हुई बाजी हरा दी गयी और हाजीपीर का 2600 मीटर ऊंचा सैन्य केन्द्र भी पाकिस्तान को देने की वज्र मूर्खता दोहरायी गई।
कश्मीर समस्या इस्लामी एकाधिकार की समस्या :
बार-बार हम गलती कर जाते हैं, कश्मीर समस्या के राजनीतिक हल की परिकल्पनाएं करते हैं, इन परिकल्पनाओं में उलझकर कभी अनुच्छेद 370 को और अधिक विस्तार देने की बात होती है तो कभी स्वायत्तता की मांग उठायी जाती है। तथाकथित मानवतावादी और प्रगतिशील लोग स्वायत्तता और अधिक उदारनीति के द्वारा कश्मीर समस्या के हल की संभावना को खोजते हैं। वस्तुत: यथार्थ यह नही है, कश्मीर समस्या के मूल में केवल दो कारण हैं -पहला इस्लामी एकाधिकार की भावना, दूसरा इस भावना के समक्ष भारतीय सत्ताधारियों का आत्मसमर्पण।
नेहरू की अहंकारी और एकाधिकारवादी प्रवृत्ति के कारण कश्मीर समस्या जटिल से जटिलतम होती चली गयी थी। उसको सुधारने के प्रयास राजनीतिक स्तर पर कहीं नही दिखाई दिये। हिंदू महासभा जैसे राष्ट्रवादी संगठनों ने जब अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की मांग उठायी तो साम्प्रदायिकता का आरोप उछाल दिया गया। कुल मिलाकर कश्मीर समस्या के मूल तत्वों को समझने और उसके निराकरण के प्रयास आज तक नही किये गये।
ऐसा नही है कि भारत को ऐसे अवसर नही मिले जब वह कश्मीर समस्या को समाप्त कर सकता था, लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव में उचित अवसरों का लाभ हमारे नेता नही उठा पाए। सन 1971 में भारत पाक युद्घ के दौरान यह अवसर मिला था। पाकिस्तान उस समय बहुत दबाव की स्थिति में था, बंगलादेश में हुए नरसंहार के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी छवि बहुत खराब हो चुकी थी। सामरिक महत्व के स्थल भारत के अधीन आ चुके थे। विशेषकर पश्चिमी मोर्चे पर हाजीपीर दर्रा, पीरपंचाल की चोटियों पर भारत का अधिकार हो गया था। दूसरी ओर पूर्वी पाकिस्तान बंगलादेश बन चुका था और 92000 पाक सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया था। आश्चर्य इस बात का है कि भारत सरकार ने ऐसे लाभकारी अवसर पर भी जम्मू कश्मीर पर सौदेबाजी नही की, अपितु हाजीपुर दर्रा और पीर पंचाल की चोटियां जो कि सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, पाक को सौंप दी गयी। इस भूल का परिणाम यह है कि हम आज घुसपैठ को रोकने में असफल हैं। ऊंची ऊंची पहाडिय़ों पर पाक का अधिकार है। उनके बीच से नाले घुसपैठ में सहायक होते हैं।
शिमला समझौता इंदिरा गांधी की ऐतिहासिक भूल :
शिमला समझौते में भी कोई ऐसा प्रावधान नही रखा गया जिससे यह स्पष्ट हो सके कि पाकिस्तान ने कश्मीर के विशाल भूभाग पर जो अधिकार कर रखा है, वह उसे तत्काल छोड़े या समयबद्घ कार्यक्रम पर सहमति प्रकट करे। 3 जुलाई 1972 को हुए शिमला समझौते के अंतर्गत एक व्यवस्था लागू कर दी गयी है कि भारत अधिकृत कश्मीर पर अपना अधिकार मांग ही नही सकता। शिमला समझौते के खण्ड-3 अनुच्छेद 2 में स्पष्ट कहा गया है कि जम्मू कश्मीर में सत्रह दिसंबर 1971 की युद्घबंदी के बाद की नियंत्रण रेखा का दोनों पक्ष बिना किसी पूर्वाग्रह के सम्मान करेंगे। दोनों में से कोई पक्ष इस स्थिति को नही बदलेगा, भले ही दोनों के बीच आपसी मतभेद और दोनों की कानूनी व्याख्याओं में अंतर बरकरार रहे। दोनों देश इस नियंत्रण रेखा का उल्लंघन करने के लिए शक्ति का प्रयोग नही करेंगे।
क्रमश:

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