हिंदू विद्वेष के बादलों के छंटने का समय आ गया है

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हितेश शंकर

टोरंटो में नूर कल्चरल सेंटर के आडिटोरियम में हिंदूफोबिया से ग्रस्त एक समूह ने हिंदू विरोधी कार्यक्रम किया जिसमें टोरंटो विश्वविद्यालय, क्वींस विश्वविद्यालय एवं यॉर्क विश्वविदयालय सह-प्रायोजक थे।

भारत से ज्यादा सहिष्णु कोई देश नहीं है। इस राष्ट्र में शरणार्थी आए और यहीं की संस्कृति को आत्मसात कर लिया। हिंदू की बात विश्व नहीं करेगा तो वह मानवता को सहेजने, सुसंस्कार देने वाली संस्कृति से हाथ धो बैठेगा।

देश के पांच राज्यों में यह चुनाव का समय है और लोकतांत्रिक सरोकार नए कलेवर में जनता के सामने रखे जा रहे हैं। प्रगतिशीलता की भी मुनादी हो रही है। कुछ राजनीतिक दल उकसाने वाले, भड़काने वाले भाषण और खास समीकरण बनाकर लोगों को लामबंद करने की कोशिश कर रहे हैं। देश के बड़े वर्ग को, जो सहिष्णु है, उसे निशाना बनाने और तुष्टिकरण को हवा देते हुए वीडियो वायरल होने लगे हैं।  उदारमना संस्कृति पर आघात के हथौड़े चुनाव से पहले ही चलने शुरू हो गए थे, जिनकी चोट अब और तेज हो गई। यह खतरनाक है। देश के सामाजिक ताने-बाने को इससे क्या नुकसान होगा, इसकी चिंता बीमार मानसिकता वाले कथित सेकुलरों को नहीं है। भारत में आम चुनाव के बाद जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़े राज्य का चुनाव काफी मायने रखता है। केंद्र तक पहुंचने का रास्ता इसी राज्य से होकर जाता है। ऐसे में, राजनीति के सारे हथकंडे इस समय अपनाए जाने लगें तो भी इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। परंतु यह याद रखना चाहिए कि सहिष्णुता एक गुण है और उसे पोषित करना चाहिए वरना चोट पूरी मानवता को लगेगी।

चुनावी हल्ला और सामाजिक स्मृतिलोप!
लोकतंत्र के उत्सव के दौरान समाज की जिम्मेदारी क्या है, इसकी भी चर्चा जरूरी है। यहां एक प्रश्न यह उठता है कि स्मृतियां कब तक जीवंत रहती हैं-चुनाव के समय या उसके बाद भी। क्या समय से मिले सबक सही-गलत में अंतर करने की समझ विकसित नहीं करते? वही समाज अपनी संस्कृति को सहेज पाता है, जो स्मृतियों को सहेजता है। ध्यान दीजिए, जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश मुजफ्फरनगर दंगे झेल चुका हो, वहां आजकल दल विशेष द्वारा हिंदूगर्दी की बात कही जा रही है। मेरठ में एक पार्टी के नेता रफीक अंसारी का बयान था – पिछले पांच साल हिंदूगर्दी के खौफ में बीते हैं। हर पुलिस थाने में हिंदूगर्दी का मंजर देखने को मिला… हमारे लोगों को ही चुन-चुनकर जेल भेजा। ये मौका छोड़ दिया तो फिर से पांच साल इनको सहना पड़ेगा और हमें ये कहीं का नहीं छोड़ेंगे।

क्या मुस्लिम समुदाय को दिखाया जा रहा यह भय सत्य है? नि:सन्देह नहीं। एक समुदाय को भड़काने, भ्रमित या लामबंद करने के ऐसे षड्यंत्रों का संज्ञान चुनाव आयोग को लेना चाहिए।

ये घटनाएं क्या हिंदूगर्दी हैं?
रफीक उस क्षेत्र में हिंदूगर्दी की बात करते हैं, जहां लव जिहाद के मामले सामने आते रहे हैं। याद कीजिए बागपत में एक मुस्लिम डॉक्टर का प्रकरण जिसने पहचान छिपाकर नर्स को प्रेमजाल में फंसाया और दुष्कर्म किया। इसके बाद कन्वर्जन के लिए दबाव डालने लगा। अभी पिछले ही वर्ष एटीएस की जांच के समय इसी क्षेत्र में कन्वर्जन गैंग का पता चला। जांच के दौरान लोगों ने बताया कि कन्वर्जन गैंग नाबालिग लड़कियों को बहला-फुसलाकर या किसी तरह का लालच देकर गायब कर देता है। बालिग होते ही उनका निकाह कराकर कन्वर्जन कर दिया जाता है। वर्ष भर पुरानी स्मृतियों पर भी धूल जमी है तो बीते सप्ताह की ही बात याद करें। मेरठ के सरधना में युवक गोपाल की तीन युवकों ने मिलकर हत्या कर दी। पुलिस ने हत्या के आरोप में शानू मलिक और शाहनवाज को गिरफ्तार किया है। ये घटनाएं क्या हिंदूगर्दी की बात करती हैं? 
 
देश के सामाजिक ताने-बाने को इससे क्या नुकसान होगा, इसकी चिंता बीमार मानसिकता वाले कथित सेकुलरों को नहीं है। भारत में आम चुनाव के बाद जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़े राज्य का चुनाव काफी मायने रखता है। केंद्र तक पहुंचने का रास्ता इसी राज्य से होकर जाता है। ऐसे में, राजनीति के सारे हथकंडे इस समय अपनाए जाने लगें तो भी इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। परंतु यह याद रखना चाहिए कि सहिष्णुता एक गुण है और उसे पोषित करना चाहिए वरना चोट पूरी मानवता को लगेगी।

ध्यान दीजिए, मुजफ्फरनगर दंगे का कारण भी आपराधिक, सामाजिक था। बाद में इसमें राजनीतिक रंग चढ़ा। मुस्लिम युवक ने जाट समुदाय की लड़की से छेड़छाड़ की थी। पीड़िता की ओर से पुलिस में कई बार शिकायत की गई थी। जाट समुदाय के खिलाफ भड़काऊ भाषण दिए गए। महापंचायत से लौटते हुए जाटों पर जानलेवा हमला किया गया। ममेरे भाइयों सचिन और गौरव की बेरहमी से हत्या कर दी गई। निहत्थे भाइयों पर धारदार हथियार, पत्थर और सरिया से वार किया गया। मुजफ्फरनगर भी उसी क्षेत्र में आता है, जहां हिंदूगर्दी की बात कही जा रही है।

कई वर्षों से हो रहा छल
हिन्दू समाज को निशाना बनाने और प्रताड़ना के निशान, इसकी स्मृतियां मिटाने का राजनीतिक खेल नया नहीं है। इस समाज की सहिष्णुता के साथ लंबे समय से छल होता आ रहा है। पश्चिम बंगाल का उदाहरण लें। वर्ष 1979 में मरीचझापी की घटना प्रासंगिक है। विभाजन के बाद बांग्लादेश में प्रताड़ित होने पर शरणार्थी हिन्दू भारत के विभिन्न हिस्सों में आते और बसते गए। वामपंथियों ने दूसरे राज्यों से इन हिंदुओं को पश्चिम बंगाल बुलाया। दंडकारण्य क्षेत्र (ओडिशा और छत्तीसगढ़) के शरणार्थी पश्चिम बंगाल के सुंदरबन क्षेत्र स्थित मरीचझापी द्वीप पर बसे। वामपंथी सरकार ने उन्हें सपने दिखाए और बाद में उनकी हिंदू पहचान से बिदककर मुंह मोड़ लिया। पश्चिम बंगाल सरकार ने मरीचझापी द्वीप को खाली कराने का आदेश दिया। पीने के पानी के स्रोत में जहर मिला दिया गया। दवाई और अन्न की आपूर्ति रोक दी गई। 31 जनवरी 1979 को इन पर फायरिंग की गई। माना जाता है कि इसमें हजारों हिंदुओं की जानें गईं। 

कब होगी हिंदू की बात!
चुनावी राजनीति के गिरगिटों के रंग उतारना जनता जानती है। अच्छी बात यह है कि भारतीय मूल के मत-पंथों के प्रति अंतरराष्ट्रीय उपेक्षा और दुराग्रह को रेखांकित करना भारत ने शुरू कर दिया है।

हाल ही में भारत की ओर से संयुक्त राष्ट्र में ‘हंदूफोबिया’ का मसला उठाया गया। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र ने अन्य तरह के मत-पंथ फोबिया पर तो बात की है, मगर हिंदू, सिख और बौद्ध विरोधी खतरों को स्वीकार नहीं किया है। 
देर से सही, किन्तु भारत की ओर से यह हस्तक्षेप आवश्यक था। 

मुगलकाल और ब्रिटिश काल में भी हिंदुओं ने इस छल, दमन, प्रताड़ना, कन्वर्जन का अलग-अलग रूपों में सामना किया। सहिष्णुता के बावजूद सामाजिक चिंताओं को उपेक्षित करने के प्रयास होंगे और असहिष्णुता के साथ हमें तौला जाएगा, तो यहां दुनिया को समझना होगा कि असहिष्णु आस्था असहिष्णुता को कई गुना बढ़ा देती है। इसलिए दुनिया के भले के लिए सहिष्णु समाज को पोषित किया जाना आवश्यक है। इस पर पूरी दुनिया को विमर्श करना होगा।
भारत से ज्यादा सहिष्णु कोई देश नहीं है। इस राष्ट्र में शरणार्थी आए और यहीं की संस्कृति को आत्मसात कर लिया। हिंदू की बात विश्व नहीं करेगा तो वह मानवता को सहेजने, सुसंस्कार देने वाली संस्कृति से हाथ धो बैठेगा।

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