क्या कहा जाए? गुरुजी या टीचर
राष्ट्रनिर्माता के रूप में शिक्षकीय भूमिका को कोई नकार नहीं सकता। जिन बुनियादी तत्वों से समाज और देश बनता है उसकी मजबूत इकाई शिक्षक के पास होती है और उसी के हाथ में होता है कि वह परमाण्वीय क्षमताओं से युक्त नई पौध को किस प्रकार के साँचे में ढालता है। राष्ट्र निर्माण की इकाई बच्चे हैं और वही देश का भविष्य होते हैं। उन्हीं बच्चों पर निर्भर होता है राष्ट्रीय अखण्डता और एकता को अक्षुण्ण रखने का दायित्व।
जिस देश में बच्चों की यह नींव मजबूत होती है वह देश आन्तरिक और बाहरी खतरों से बेफिक्र होकर तरक्की के नए-नए शिखरों का स्पर्श करता हुआ दुनिया में अपनी अनूठी पहचान को कायम रखने में कामयाब रहता है। शिक्षकों की भूमिका को इसीलिए सर्वत्र आदर-सम्मान और श्रद्धा के साथ सबसे शीर्षस्थ स्थान प्राप्त है। भारतीय संस्कृति और परंपराएँ, जीव से लेकर जगत और कल्पना लोक तक के तमाम आयामों को सार्थक करने में भारतीय शिक्षा पद्धति जीवंत और कारगर रही है।
हमारी पुरातन शिक्षा पद्धति समष्टि और व्यष्टि के कल्याण के लिए निरन्तर आविष्कारों और आशातीत उपलब्धियों की केन्द्र एवं सर्जक रही है। हमारे महान ऋषियों और वैज्ञानिकों ने जो सदियों पहले कर दिखाया, उसे आज हम विदेशी वैज्ञानिकों की देन बताकर हम उनके पिछलग्गू बने हुए हैं। मैकाले की शिक्षा ने हमारी शिक्षा पद्धति से जीवंत संस्कारों, मूल्यों, प्राचीन उपलब्धियों, गौरवशाली-पराक्रमी इतिहास तथा संस्कारों और संस्कृति की जड़ों से हमें इतना दूर कर दिया है कि हमें लगता है कि हम लोग कमजोर थे और रहेंगे तथा जो कुछ दिया है वह विदेशियों की देन रहा है।
इस भूल का परिणाम यह हो रहा है कि हम विदेशियों के हाथों की कठपुतलियां बने हुए उन्हें आदर्श मान रहे हैं और उनका अंधानुकरण करने में ही गर्व और गौरव का अनुभव करने लगे हैं। हमें जो सिखाया जा रहा है उससे आत्मगौरव या स्वाभिमान का भाव पैदा नहीं होता बल्कि हम लोग नौकरी और गुलामी को ही सर्वोच्च सत्ता समझ कर इसी दिशा में अंधी दौड़ लगाने में भिड़े हुए हैं।
इस समूची पृष्ठभूमि का आशय आज के शिक्षक दिवस से संबंधित है। एक शिक्षक के सर्वोच्च पद पर आसीन होने के बाद शिक्षक दिवस की परंपरा शिक्षक के भीतर समाहित पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण व्यक्तित्व का संदेश देती है। भारतीय परंपरा, प्राच्य संस्कृति और व्यक्तित्व विकास के सर्वांगीण ज्ञान संवहन के सूत्रधारों के लिए गुरु पूर्णिमा का परंपरागत दिवस नियत है।
आज का दिन शिक्षक दिवस के रूप में है और यह शिक्षक-शिक्षिकाओं के आदर-सम्मान तथा उनके प्रति श्रद्धा निवेदित करने का वार्षिक पर्व है। शिक्षक दिवस का संबंध निजी और सरकारी स्कूल-कॉलेजों, प्रशिक्षण संस्थाओं में नौकरी करने वाले सभी श्रेणियों के शिक्षकों एवं शिक्षिकाओं से है।
हमें टीचर और गुरु में स्पष्ट अन्तर को समझना होगा तभी आज की शिक्षा से आए घातक बदलाव के बारे में गंभीरता से चिंतन-मनन किया जा सकता है। गुरु वह है जो बच्चे के सर्वांगीण विकास से लेकर उसे सुनागरिक बनाकर समाज और देश के लिए सौंपता है और उसके द्वारा तैयार बच्चा समाज और देश की हर प्रकार की सेवा और समर्पण के लिए सदैव तत्पर रहता है। इस मामले में रुपया-पैसा, पद-प्रतिष्ठा और दूसरे सारे वैभवों और भोगों की उसे परवाह नहीं होती। गुरु जिस शिष्य को तैयार करता है उसे ठोक-बजाकर कठोर परीक्षा की कसौटी में खरा उतारकर ही समाज को सौंपता रहा है। इस मामले में गुरुकुल परंपरा धन्य कही जा सकती है।
आज के शिक्षक के लिए शिक्षा संवहन नौकरी का पर्याय हो चुका है जहाँ बच्चा चंद घण्टों के लिए स्कूल आता है और यह भी जरूरी नहीं है कि वह नियमित आता ही रहे। फिर शिक्षकीय दायित्वों का इतना अधिक विस्तार हुआ है, बोझ बढ़ा है कि शिक्षक के सामने ढेरों यक्ष प्रश्न हमेशा चक्कर काटते रहते हैं कि वह क्या करे, क्या न करे।
मैकाले ने शिक्षा को मटियामेट करके रख दिया है अन्यथा भारत की शिक्षा दुनिया को रौशन करती आयी है लेकिन हाल के वर्षों में पुरातन शिक्षा के बुनियादी तत्वों, संस्कारों और संस्कृति से हमें जिस प्रकार षड़यंत्रपूर्वक दूर किया गया है उसी का नतीजा है कि आज हम आत्महीनता के शिकार हैं और विदेशियों के प्रति हमारी अंध श्रद्धा बढ़ती जा रही है।
शिक्षा जगत से जुड़े लोगों की भारत निर्माण में अहम भूमिका रही है और रहेगी। इस तथ्य और सत्य को कोई नकार नहीं सकता। हालांकि आज भी समर्पित और सेवाभावी शिक्षकों की कोई कमी नहीं है जो बच्चों को उच्चतम स्तर तक योग्य बनाकर सच्चे और योग्यतम नागरिक के रूप में देश और समाज का सौंपने तक की जिम्मेदारी को ओढ़े हुए समर्पित सेवाव्रती की तरह जुटे हुए हैं।
शिक्षकों से समाज और देश को खूब सारी अपेक्षाएं हैं। समाज को चाहिए कि शिक्षकों को परंपरागत आदर-सम्मान और श्रद्धा दे, उनके सुख-दुःख में हाथ बंटाएं, सुविधाएं मुहैया कराए। और शिक्षकोंं को भी दायित्व है कि अपने आपको जानें, अपनी क्षमताओं को पहचानकर अपने फलकों को विस्तार दें तथा टीचरत्व से बहुत ऊपर उठकर गुरु के रूप में अपने सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्वों की इस प्रकार पूर्ति करे जिस प्रकार की आशाएं पुराने जमाने में गुरुकुलों से होती थी जहां बच्चा सौंप दिया जाता था और जब गुरुकुल से बाहर निकलता था तब पूर्ण व्यक्तित्व के रूप में समाज और देश के सामने होता था और उसके होने का अपूर्व लाभ समाज तथा देश को मिलता था। गुरुकुल से निकला हर बालक ऎसा महान कार्य करने में समर्थ होता था कि उसे युगों तक याद रखा जाता था। आज उसी ज़ज़्बे से समाजोन्मुखी आदर्श कायम करने की जरूरत है। हालांकि भारतवर्ष की हाल ही बदली परिस्थितियों ने देश का स्वाभिमान जगाया है, इसमें कोई संशय नहीं है।
सभी शिक्षिकाओं व शिक्षकों को शिक्षक दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ ….
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