डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हिजाब और बुर्के का औचित्य डेढ़ हजार साल पुराने अरब देश में बिल्कुल ठीक था लेकिन आज की दुनिया में इसका कोई महत्व नहीं रह गया है। यदि हिजाब और बुर्का इस्लाम का अनिवार्य अंग है तो क्या बेनज़ीर भुट्टो, मरियम नवाज शरीफ, शेख हसीना, काबुल की शहजादियां मुसलमान नहीं हैं?
कर्नाटक के उच्च न्यायालय में हिजाब के मुद्दे पर अभी बहस जारी है लेकिन अंतरराष्ट्रीय इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) ने भारत के खिलाफ अपना बयान जारी कर दिया है। उसने पहले धारा 370 हटाने के विरोध में भी बयान जारी किया था। पाकिस्तान के मुल्ला-मौलवी और नेता भी एकतरफा बयान जारी करने में एक-दूसरे से आगे निकल रहे हैं। कर्नाटक की अदालत में हिजाब का पक्ष रखनेवाले वकील हिंदू हैं और वे जो तर्क दे रहे हैं, वे ऐसे हैं, जिन पर खुले दिमाग से विचार किया जाना चाहिए। उनका तर्क यह है कि जब हिंदू औरत के सिंदूर, बिंदी और चूड़ियों, सिखों की दाढ़ी-मूंछ और पगड़ी तथा ईसाइयों के क्रॉस पहनने पर कोई प्रतिबंध नहीं है तो मुस्लिम महिलाओं के बुर्के और हिजाब पर प्रतिबंध की क्या तुक है? क्या ऐसा करना पूर्णतः सांप्रदायिक कदम नहीं है? क्या यह इस्लाम और मुसलमानों पर सीधा आक्रमण नहीं है? हिजाब के बहाने यह मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा से वंचित करने का कुप्रयास नहीं है? ये तर्क बहुत वाजिब दिखाई पड़ते हैं लेकिन अभी कर्नाटक में हिजाब के सवाल ने जैसा सांप्रदायिक और राजनीतिक रुप धारण कर लिया है, यदि हम उससे ज़रा अलग हटकर सोचें तो यह मूलतः नर-नारी समता का सवाल है! यदि हिजाब धार्मिक चिन्ह है तो इसे औरतों के साथ-साथ मर्द भी क्यों नहीं पहनते? आजकल औरत और मर्द- सभी मुखपट्टी (मास्क) पहनते हैं, वैसे ही वे हिजाब भी पहन सकते हैं। सिर्फ औरतें ही क्यों हिजाब पहनें? उनका गुनाह क्या है? और फिर मुस्लिम औरतों को ही यह सजा क्यों है ? हिंदू और ईसाई औरतें भी इसे क्यों नहीं पहनें? हिजाब, बुर्का, घूंघट, सिंदूर, बिंदी, चूड़ी, भगवान दुपट्टा आदि इनमें से किसी भी चीज को पहनने का आदेश किसी ईश्वर, अल्लाह या अहुरमज्द का नहीं है। ये सब परंपराएं मुनष्यों की बनाई हुई हैं और ये देश-काल के मुताबिक चलती हैं।
हिजाब और बुर्के का औचित्य डेढ़ हजार साल पुराने अरब देश में बिल्कुल ठीक था लेकिन आज की दुनिया में इसका कोई महत्व नहीं रह गया है। यदि हिजाब और बुर्का इस्लाम का अनिवार्य अंग है तो क्या बेनज़ीर भुट्टो, मरियम नवाज शरीफ, शेख हसीना, काबुल की शहजादियां मुसलमान नहीं हैं? मैंने तो उन्हें कभी भी अपना चेहरा छिपाते हुए नहीं देखा! शरीर के गुप्तांग औरत और मर्द सभी ढकें, यह तो जरुरी है लेकिन चेहरे को छिपाए रखने की पीछे तर्क क्या है? चेहरा तो आपकी पहचान है। चेहरा तो वो ही छिपाता फिरता है, जो चोर, डाकू, तस्कर या अपराधी हो। किसी तिलक, बिंदी, चोटी, जनेऊ, दाढ़ी-मूंछ, पगड़ी, दुपट्टा, तुर्की टोपी, शेरवानी, सलवार-कमीज, गतरा (अरब), चोंगा (ईसाई), किप्पा (यहूदी टोपी) आप पहनना चाहें तो जरुर पहनें। आप अपनी मजहबी या सांप्रदायिक या जातीय पहचान का दिखावा करना चाहते हैं तो जरुर करें। लेकिन कोई भी औरत या मर्द अपना मुंह क्यों छिपाए? मुखपट्टी तो जैन मुनि भी लगाते हैं लेकिन उसका उद्देश्य अपना मुंह या पहचान छिपाना नहीं है बल्कि उनकी गर्म सांस से कोई जीव-हिंसा न हो जाए, उनका यह उद्देश्य रहता है। औरतों पर हिजाब, नकाब और बुर्का लादना तो उनकी हैसियत को नीचे गिराना है। मुस्लिम कन्याओ को छात्र-काल से ही हीनता-ग्रंथि से ग्रस्त कर देना कहां तक ठीक है? मुस्लिम कन्याओं का मनोबल भी उतना ही ऊंचा रहना चाहिए, जितना देश की अन्य लड़कियों का रहता है। क्या वे भी भारत माता की प्रिय बेटियां नहीं हैं?