अर्थव्यवस्था की बात की जाए तो चुनाव के दौरान ही सेंसेक्स बाजार मुनाफे पर पहुंच गया था लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद थोड़ी उथल-पुथल उपरांत फिर से सेंसेक्स अपने रंग में नजर आने लगी। इस का आलम यह रहा कि सकल घरेलु उत्पाद की दर ढ़ाई साल बाद 5.7 फीसद तक जा पहुंची। इससे बदहाल लग रही अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने का भरोसा तो जगा ही साथ ही सरकार व जनता के उम्मीदों को एक नयी उड़ान भी मिल गयी और ऐसा महसूस किया जाने लगा कि अब हालात जल्द सुधर जाएंगे।
वहीं विदेश नीति के मामले में नरेंद्र मोदी ने अब तक जितने भी देशो की यात्रा की है, वहां की सरकार और जनता का दिल जरूर जीता है जिससे विदेश नीति नए तरीके से मजबूती की ओर जाता दिख रहा है। भूटान, नेपाल, जापान की यात्रा ने इस बात को और पुख्ता किया है कि मोदी सरकार दक्षिण एषिया के पड़ोसी देशों के साथ गर्मजोशी और नजदीकी संबंध में विश्वास रखती है वहीं पाकिस्तान से अपनी शर्तों पर संबंध सुधरना चाहता है। जबकि भारत चीन, अमेरिका, जापान जैसी बड़ी ताकतों के साथ बहुस्तरीय रिश्ते कायम कर विश्व पटल पर अपनी स्थिति के मजबूत करना चाहता है। ये सारी गतिविधियां इस बात की ओर इंगित करती है कि भारत यूरोप-अमेरिका की तरफ भागने की बजाय पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंध स्थापित कर चीन व पाकिस्तान पर रणनीतिक दबाव बनाना चाहता है, जो कि एक अच्छी विदेश नीति का परिचय है।
बीते 100 दिनों में मोदी सरकार की सफलताएं विफलताओं पर अधिक प्रभावशाली है। लेकिन विफलताओं को नजरअंदाज करना मुश्किल है क्योंकि कुछ ऐसी विफलताएं हैं जिस पर विपक्षियों की टेढ़ी नजरें है और उसकी आड़ में सरकार को प्रायः घेरने में लगी रहती है। सबसे पहली विफलता महंगाई है। आम जनता का यूपीए के कार्यकाल में महंगाई से त्रस्त होना, मोदी का जीत का प्रमुख घटक था लेकिन यह समस्या अभी भी जारी है। सरकार ने इन दिनों कुछ ऐसे बड़े फैसले लिए जिससे जनता में रोष व्याप्त है। पहला, रेल किराया में 14 फीसदी की बढ़ोतरी तो दूसरा, चीनी पर आयात शुल्क 15 से 25 फीसदी तक वृद्धि। ऐसा नहीं है कि महंगाई पर सरकार का ध्यान नहीं है। सरकार ने महंगाई को नियंत्रित करने के लिए खाद्य पदार्थाें की राष्ट्रीय ग्रिड बनाने की भी घोषणा कर चुकी है। इसके अलावा और भी उपाए किए जा रहे हैं लेकिन इसका असर आगामी कुछ महीनों में ही देखने को मिलेगा। सरकारी थोक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक ऊपर पहुंचे या नीचे या किसी तरह की योजनाएं क्यों न बनती रहे, वास्तविकता यही है कि बढ़ती महंगाई ने जनता के उम्मीदों पर पानी फेर दिया है।
दूसरा, इन 100 दिनों में राज्यपालों को हटाने की प्रक्रिया ने सरकारी की मंशा पर सवाल खड़े किए। कई राज्यों के राज्यपालों को दबाव में आकर इस्तीफा देना पड़ा। हालात यहां तक पहुंच गया कि उत्तराखंड के राज्यपाल इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गए। वास्तव में इस प्रकार राज्यपालों पर दबाव देकर इस्तीफा देना न केवल अशोभनीय है बल्कि मोदी सरकारी की मंशा पर सवाल उठना भी लाजिमी है।
तीसरा भ्रष्टाचार का मुद्दा है, यह एक ऐसा ज्वलंत मुद्दा है जिससे जनता बुरी तरह त्रस्त है। ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ जैसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कथन सुनने में बहुत ही अच्छा लगता है लेकिन हकीकत यही है कि आम आदमी को इन बातों से कोई लाभ नहीं हो रहा है।
चौथा सबसे बड़ा सवाल रोजगार का है जिस पर सरकार कई प्रकार की योजनाएं बना तो रही है लेकिन इसका लाभ जब तक युवाओं को नहीं मिलेगा तब तक युवाओं के अंदर उम्मीदों का प्याला जमीनी स्तर पर नहीं आ पाएगा और तब तक रोजगार को लेकर युवाओं के चेहरे पर शिकन होना कोई आश्चर्यजनक नहीं होगा।
उपरोक्त विफलताओं से भाजपा की लोकप्रियता और विश्वसनीयता प्रभावित तो हो ही रही है। परिणामस्वरूप हाल में हुए उपचुनाव में भाजपा को काफी नुकसान हुआ है। कुल 18 लोकसभा सीटों में से 7 भाजपा को तथा एक उसके सहयोगी अकाली दल के पास गयी बाकि 10 सीट विरोधी दलों के खाते में चली गयी। यदि यही हाल रहा तो आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा को और भी नुकसान उठाना पड़ सकता है।
कुल मिलाकर देखा जाए तो बीते 100 दिनों में सरकार ने उम्मीद से बढ़कर अब तक काम किया है लेकिन वह अभी जमीनी स्तर पर मूर्त नहीं हो सका है लेकिन सरकार में लक्ष्यों को लाने की प्रतिबद्धता एवं चुनावों के दौरान किए गए वादों को पूरा करने का हौसला भारतीय जनता की उम्मीदों को जिंदा रखा है जिससे लगने लगा है कि वास्तव में भारत का अच्छा दिन आने वाला है, लेकिन वह दिन कब आएगा, यह कोई नहीं जानता।