यह प्रश्न विद्वानों में भी चलता है कि रावण महाबुद्धिमान होकर भी राक्षस क्यों कहा जाता है ? आज हम इसी विषय को लेकर चर्चा कर रहे हैं।
रावण को दशानन कहते हैं। एक मत के अनुसार रावण का दसों दिशाओं में यश फैला हुआ था। रावण ब्राह्मण था और महाबुद्धिमान था। नाड़ी विज्ञान के अनुसार उन्होंने अमृत को जाना । उस अमृत से उसके हृदय में निर्मलता, निर्भयता, विचित्रता थी, जो सब विज्ञान को जानता था। दूसरे मत के अनुसार वह चार वेद और 6 शास्त्रों का ज्ञाता था, जो उसको कंठस्थ थे ,अर्थात उसके मुख या जिव्हा पर रखे होते थे, 10 ग्रंथों को कंठस्थ करने वाला प्रकांड पंडित था – रावण ।इसलिए दशानन कहते हैं। उसके वास्तव में 10 सिर और 10 मुंह नहीं थे ।यह केवल मूर्खता है ऐसा समझना या ऐसा बताना।
लेकिन वह घमंडी था और निंदा, स्तुति, मान, अपमान, हानि, लाभ ,सुख, दुख में समान व सहनशील नहीं था । राम की स्तुति उसको पसंद नहीं थी । राम की निंदा में प्रसन्न होता था। इस प्रकार उसके अंदर धृति का अभाव था, और न ही उसके अंदर क्षमा का भाव था । उसका मन धर्म में प्रवृत्त होकर अधर्म करने से रुका नहीं। इसीलिए दम का भी अभाव था, सीता को कपट पूर्वक छल से, वन की पर्णकुटी से पर स्त्री को वेद विरुद्ध कार्य कर हरण करके ले गया ।इसके अलावा शुचिता भी नहीं थी। वह अंदर व बाहर से एक समान नहीं था। रावण में इंद्रिय निग्रह का भी अभाव था। उसके अंदर विद्या भी नहीं थी, क्योंकि विद्या वह होती है जो सत्य को सत्य स्वीकार करती व कराती है।
अब प्रश्न उठता है कि जिस व्यक्ति को चार वेद और छह शास्त्र कंठस्थ हों – वह विद्या हीन कैसे हो सकता है?
इसके इस उत्तर के लिए विद्या की परिभाषा को समझना होगा ।विद्या अर्थात पृथ्वी से लेकर परमेश्वर पर्यंत यथार्थ ज्ञान अर्थात जैसा आत्मा में वैसा मन में ,जैसा मन में वैसा वाणी में ,और जैसा वाणी में वैसा व्यवहार व कर्म मे लाना ही विद्या है। इस कसौटी पर रखकर देखें तो रावण विद्यावान ,विद्वान, पंडित कहलाने का अधिकारी नहीं है ।रावण के अंदर क्रोध और अहंकार भी बहुत था, इसीलिए रावण जैसे महारथी का दुखद अंत हुआ।
भारतवर्ष में या आर्यावर्त में 33 करोड़ लोग एक काल में निवास करते थे । सारे लोग दिव्य गुणों से ओतप्रोत थे, सर्वत्र शांति ,सुख, संयम, साधना, सफलता, सत्य का बोलबाला था। इसलिए तक समय आर्यव्रत की जनसंख्या समस्त को देवता कहते थे ।आज भी जन श्रुति है कि भारतवर्ष में 33 करोड़ देवता निवास करते हैं। यह जनश्रुति उसी समय से प्रचलित है। यहां यह स्पष्ट करना भी आवश्यक होगा कि 33 करोड़ देवता और कोई नहीं होते , इसके विपरीत सभी केवल भ्रांति है।
वर्तमान में रावण जैसों की संख्या बढ़ रही है ।
वर्तमान भारत की जनसंख्या सवा अरब से ऊपर हो चुकी है। लेकिन आज यहां कितने देवता निवास करते हैं। शायद मुट्ठी भर लोग होंगे।
जो धर्म के विपरीत आचरण करता है वही राक्षस है। इसलिए रावण को दशानन होने के बावजूद राक्षस कहते हैं ।जो धर्म का पालन करते हैं, जो धर्म की मर्यादा पर चलते हैं ,जो समाज के और लोक लिहाज के नियमों को मानते हैं,जो भारत की प्राचीन सभ्यता संस्कृति के वाहक हैं, वे आज भी देवता हैं, क्योंकि देवता और राक्षस मनुष्य के शरीर में ही होते हैं। लेकिन जिसके अंदर मनुष्यता के गुण, कर्म, स्वभाव और प्रवृतियां होती हैं उसे देवता और जिसमें नहीं होती हैं- उनको राक्षस कहते हैं। जो धर्म का पालन करते हैं वे देवता , जो नहीं करते हैं वे राक्षस होते हैं। राक्षसों का शरीर कहीं भी नहीं होता। राक्षसों के सिर पर सींग नहीं होते। राक्षसों के लंबे दांत नहीं होते। राक्षसों के चेहरे कुरुप भी नहीं होते, बल्कि वह हमारे अंदर ही छिपे होते हैं । हमारे जैसे शरीर में होते हैं।
गर्भ में भ्रूण हत्या इसलिए करा देना की होने वाला बच्चा लड़की है- ऐसा मनुष्य राक्षस है। अर्थात शिक्षित और दीक्षित बहुत है। कथा सुनने वालों की अपार भीड़ लगी है। कथा में दान देकर पुण्य का भागी बनना और फिर दान देकर उस पर गर्व और गौरव दिखाना ।अपने किए हुए दान का व्याख्यान करना कराना जैसे कार्य करने वाले पुण्य के भागी नहीं हो सकते ।यह सब नीति के विरुद्ध है,। लेकिन आज के कुछ गुरु भी इसी प्रकार के हैं जो कथा में उपदेश करते हैं। लेकिन निजी जिंदगी में ये गुरु उपदेश के ,प्रवचन के, कथा के पांच-पांच लाख लेते हैं। शिष्य के कान में नाम देते हैं ।शिष्य को नाम देने के नाम पर धर्म भीरु बनाते हैं कि किसी को नाम बताना नहीं। ऐसे धर्मगुरु अपने तयशुदा रकम को प्राप्त करने के लिए आयोजकों से झगड़ते हैं। उनकी कथनी और करनी में अंतर होता है । यह गुरु वास्तव में हो ही नहीं सकते।
जो वेद की शिक्षा के विपरीत कार्य कर रहे हैं, उनके सामने बैठी हुई भोली भाली भीड़ पर भी उनके उपदेश का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता । उनके द्वारा कही गई कथा शिष्यों में आती नहीं है ।कथा में भीड़ कितनी आई यह महत्व नहीं बल्कि कथा कितने लोगों में आईं – यह महत्वपूर्ण है ।
ऐसे लोग रावण कुल के हैं जो रावण की तरह अपने लिए सोने की लंका का निर्माण करना चाहते हैं ,जो अपने लिए सुख साधन और ऐश्वर्य जुटा रहे हैं, परमपिता परमात्मा से प्रार्थना है कि रावण रूपी गुरुओं को गायत्री मंत्र का अर्थ समझ में आ जाए। परमात्मा ऐसे गुरुओं को सन्मार्ग की तरफ प्रेरित करे। ताकि ऐसे गुरुओं की कथनी व करनी में अंतर नहीं रहे ।इनके उपदेश में प्रभावोत्पादक हो , जिससे शिष्यों के जीवन में प्रकाश फैले। ऐसे गुरु विरजानंद जिन्होंने दयानंद जैसे शिष्य के हृदय में प्रकाश फैलाया।
इसलिए दैत्य और देव में अंतर करना समझना। रावण का बचपन का नाम वरुण था और यह एक बहुत ही सुशील ब्रह्मचारी था वेद पार्टी था महान वैज्ञानिक था उसकी आत्मा बहुत पवित्र थी इसीलिए उसने आयुर्वेद के अनुसार नाड़ी विज्ञान को जाना।
मनुष्य के शरीर में जो नाभि चक्र है इसमें लगभग दो करोड़ नाड़ियों के मध्य में एक स्थान होता है, एक सुषुम्ना नाम की नाड़ी होती है जो मस्तिष्क से चलती है और उसका संबंध नाभि चक्र के अग्र भाग में होता है । जो मनुष्य अच्छे विचारों वाला होता है, परमात्मा का चिंतन करने वाला होता है और इस नाड़ी विज्ञान को जानने वाला होता है, वह अपनी क्रियाओं से नाड़ी विज्ञान की नाना औषधियों से उस विज्ञान को जानता है । जिसको सुधित नाम की नाड़ी कहते हैं। यह नाड़ी ब्रह्मरंध्र से चलती है और इसका संबंध नाभि से होता है जब चंद्रमा संपन्न कलाओं से पूर्णिमा के दिवस परिपक्व होता है तो वह जो शोधित नाम की नारी है जिसका मस्तिष्क से संबंध होता हुआ और नाभि चक्र से होता हुआ चंद्रमा से संबंध हो जाता है। चंद्रमा से जो कांति मिलती है, जो विशेषज्ञ प्राप्त होता है उसे वह नाड़ी पान करती है। जो नाड़ी विज्ञान को जानने वाले होते हैं , वह जानते हैं कि योग के द्वारा परमात्मा का चिंतन करते हुए चंद्रमा से अमृत मिलता है। यह अमृत पकता है और नाभि से जो नारियों के मध्य में स्थान होता है वह स्थान में यह अमृत एकत्रित होता रहता है।
अब इसमें क्या विशेषता है ? इसमें हमें क्या प्राप्त होता है ? उससे मानव जीवन वरिष्ठ होता है । निर्धारित होता है और मृत्यु से भी कुछ विजयी बन जाता है। उसे यह ज्ञान हो जाता है कि तेरी मृत्यु अधिक समय में आएगी । उसकी आयु अधिक हो जाती है। क्योंकि वह आनंद रूपी अमृत नाभि स्थल में होता है।
इस सत्य को न जानते हुए अज्ञानी लोग यह कहते हैं कि रावण की नाभि में अमृत था।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।
One reply on “रावण महा बुद्धिमान होकर भी राक्षस क्यों था ?”
Shi kha apne sir manav sharir m hi vish Amrit dono h ab ap pr nirbhar h ap kiska upyog krte h।
जय हो