vijender-singh-aryaधर्मानुरागी को चाहिए, तज दे वचन कठोर
गतांक से आगे….
शठ-धूर्त, दुष्ट
निष्ठुर-कठोर हृदय वाला, दया रहित दन्द शूक-मर्म स्थान पर चोट करने वाला।

स्वार्थ जिद अहंकार से,
टूटते हैं परिवार।
क्षमा समन्वय प्रेम से,
खुशहाल रहें परिवार ।। 729 ।।

पुण्य प्रार्थना रोज कर,
इनको कल पै न छोड़।
डाली पै लटका आम तू,
कब ले माली तोड़ ।। 730 ।।

असूया कभी करता नही,
और छोड़े न सदाचार।
हरि-कृपा वहां बरसती,
और यश देता संसार ।। 731 ।।

असूया अर्थात किसी के गुणों में भी दोष निकालना।

सेवक, स्वामी राजा प्रजा,
गर हो जायें कुलीन।
सुख शांति का वास हो,
और पृथ्वी लगै हसीन ।। 732 ।।

कुलीन-वह शक्ति जो मर्यादा की रक्षा के लिए अनेकों कष्ट उठाता है किंतु उसकी रक्षा करता है, प्रतिष्ठा की रक्षा करता है।

आक्रोष्टा निज वाणी से,
जिसका हृदय सताय।
उसके सारे पुण्य तो,
सहने वाले की जांय ।। 733 ।।

आक्रोष्टा अर्थात हृदय को बेंधने वाले वचन कहने वाला।
भाव यह है कि सहनशील व्यक्ति समय देखकर बेशक अपनी जुबान से कुछ नही कहता है, किंतु उसका मन्यु अर्थात आंतरिक क्रोध अपनी बद्दुआओं से आक्रोष्टा को जला डालता है, और सहनशीलता पुरूष आक्रोष्टा के पुण्यों को प्राप्त कर लेता है। इसलिए अपनी जुबान से किसी के हृदय को बेंधने वाले शब्द कभी मत निकालो।

हृदय अस्थी तक जलें,
बोलै वचन कठोर।
धर्मानुरागी को चाहिए,
तज दे वचन कठोर ।। 734 ।।

अर्थात रूखी और कठोर वाणी से हृदय ही नही, अपितु हड्डियां तक जल जाती हैं। इसलिए धर्मानुरागी मनुष्य को चाहिए कि वह असहनीय पीड़ा पहुंचाने वाली रूखी और कठोर वाणी को सर्वथा छोड़ देवें।

जैसे वसन पर रंग चढ़ै,
तैसेई मनुज पर संग।
वसन मूल्य रंग तै बढ़ै,
और मानव का सत्संग ।। 735 ।।

सारांश यह है कि अच्छी संगति मनुष्य का महत्व बढ़ा देती है, जीवन का कल्याण करती है।

माया का बेटा मन कहें,
हरि का करे विरोध।
गति मति मन से मिलै,
शोध सके तो शोध ।। 736 ।।

अर्थात-मन की उत्पत्ति माया (प्रकृति) से होती है। हमारे ऋषियों ने माया को मन की मां कहा है। इसीलिए मन अपनी मां की तरफ खींचता है, क्योंकि मन माया का सजातीय है, जबकि आत्मा परमात्मा की सजातीय है। जो जिसका सजातीय होता है वह उसी की तरफ को खींचता है जैसे चुम्बक लोहे का सजातीय है, इसीलिए वह लोहे के कणों को अपनी तरफ खींच लेता है, अन्य धातुओं को नही। अत: स्पष्ट हो गया है कि मन परमात्मा का सजातीय नही है, वह माया का सजातीय है, इसीलिए मन का आकर्षण माया प्रकृति है, परमात्मा नही। हां इतनी बात अवश्य है कि मन, आत्मा और परमात्मा के बीच एक सीढ़ी की भूमिका अदा करता है। क्रमश:

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