शिमला समझौते की भावना के अनुसार कश्मीर के उस क्षेत्र पर पाक के नियंत्रण को अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार कर लिया गया जो उसने 1948 में कबालियों के माध्यम से कब्जे में कर लिया था। इस समझौते से भारत का वह प्रतिवेदन भी निरस्त हो जाता है जो उसने संयुक्त राष्ट्र संघ में सन 1948 में दिया। शिमला समझौता हमारी राजनीतिक लापरवाही का उदाहरण है। इस समझौते में कहीं भी नियंत्रण रेखा के क्षेत्रों को चिन्हित नही किया गया। 74 किलोमीटर लंबे सियाचिन ग्लेशियर का भी कोई उल्लेख नही है। पाकिस्तान ने भारत की इस नादानी का लाभ उठाने की कोशिश की। जून 1948 में पाकिस्तान ने इस पर अधिकार करने का प्रयास किया। अचिन्ह्ति क्षेत्र होने के कारण प्राय: सीमा पर झड़प भी होती रहती है। चार हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को लेकर दोनों पक्षों में कई झड़पें भी हो चुकी हैं।
1975 का शेख इंदिरा समझौता :
इसके अतिरिक्त श्रीमती इंदिरा गांधी ने फरवरी 1975 में जब शेख मौहम्मद अब्दुल्ला से समझौता किया तो उसमें यह स्पष्ट व्यवस्था रखी गयी कि कश्मीर के भविष्य का निर्धारण अनुच्छेद 370 के अंतर्गत ही होगा। इस समझौते में राज्यपाल और मुख्यमंत्री के पदनाम को अनिर्णित छोड़ दिया गया। यह भी एक भयंकर भूल थी।
कश्मीर समझौते में स्पष्ट करना चाहिए था कि भारतीय संविधान की संघात्मक व्यवस्था में प्रांतीय स्तर पर जिन पदनामों को स्वीकृत किया गया है, वे ही कश्मीर में भी लागू होंगे। अनिर्णय की स्थिति पैदा कर भविष्य के लिए एक संकट के बीज और बो दिये गये।
डा. फारूख अब्दुल्ला जब स्वायत्तता की बात करते हैं तो उसके पीछे उनकी इच्छा स्वयं को प्रधानमंत्री कहलाने की होती है। देश को जटिलतम स्थिति में डालने के पीछे जो अविवेक नेहरू का रहा, उसको श्रीमती इंदिरा गांधी ने आगे बढ़ा दिया।
24 फरवरी 1975 को हुए कश्मीर समझौते के पश्चात शेख अब्दुल्ला को पुन: मुख्यमंत्री पद प्रदान कर दिया गया है। शेख अब्दुल्ला ने सत्तासीन होने के साथ ही प्रांत में साम्प्रदायिक विभाजन करना आरंभ कर दिया। वे दिल्ली में कुछ और बोलते थे, जम्मू में कुछ और, और श्रीनगर में कुछ और। चालाकी और मक्कारी के बल पर उन्होंने साम्प्रदायिक तथा पृथकतावादी शक्तियों को प्रोत्साहित किया। मुस्लिम धु्रवीकरण की नीति के कारण ही सन 1977 में हुए विधानसभा चुनाव में शेख अब्दुल्ला को 74 आसनों में से 46 पर विजय प्राप्त हुई।
नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी ने जो भूलें कीं, उनका लाभ पाक और कट्टरपंथी इस्लामी शक्तियों ने जमकर उठाया। सन 1947 से पूर्व जम्मू में एक हिंदू बहुल क्षेत्र था, अब उसकी जनसंख्या का संतुलन बिगाड़ा जा रहा है। जम्मू नगर के चारों ओर मुसलमानों की अवैध कालोनियां बसाई जा रही हैं। यदि क्षेत्रफल की दृष्टि से भी देखा जाए तो जम्मू संभाग कश्मीर घाटी से सत्तर प्रतिशत बड़ा है ओर कुल जनसंख्या का 45 प्रतिशत भाग वहां निवास करता है। पर राज्य विधानसभा की 76 सीटों में से केवल 32 सीटें जम्मू सम्भाग को दी गयी हैं, ताकि कोई हिंदू मुख्यमंत्री न बन सके।
वस्तुत: इस्लाम की असहनशील प्रवृत्ति ने कश्मीर समस्या को जन्म दिया है। भारत विभाजन और द्विराष्ट्र का सिद्घांत भी असहनशीलता का ही एक उदाहरण है। इस्लामी मान्यता के अनुसार विश्व का इस्लामीकरण आवश्यक है, इसके लिए जेहाद अनिवार्य तत्व है। जेहाद में मिली शहादत जन्नत का अधिकारी बनाती है। जब एक समाज इस अवधारणा पर चलेगा तो वह जब विश्व को अपने पंथ पर असहमति प्रकट करने वालों को समाप्त कर दे तो फिर आतंक की आंधी को नही रोका जा सकता। यथार्थ यह है कि कश्मीर समस्या का सत्य इस्लामी एकाधिकार की प्रबल भावना और नेहरू तथा इंदिरा गांधी की भूलों में छिपा है।
कश्मीर समस्या का अवलोकन करते समय हमें मुस्लिम नेता हाफीज मुहम्मद सईद के इस बयान पर भी ध्यान रखना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा है कि कश्मीर समस्या केवल जेहाद से ही हल होगी।
अर्थ स्पष्ट है। कश्मीर समस्या को केवल इस्लामी प्रभुत्व की समस्या के रूप में इस्लामी जगत देख रहा है। इसका प्रमाण यह है कि 1990 से 1998 तक कश्मीर की आतंकी गतिविधियों में पाकिस्तान के चार सौ, अफगानिस्तान के 190, पीओके के 48 तथा अन्य इस्लामी देशों के 1013 आतंकी मारे गये। पूरा इस्लामी जगत कश्मीर समस्या को इस्लामी समस्या के रूप में देख रहा है, जबकि हम राजनीतिक उदारता का परिचय देने पर लगे हैं। वस्तुत: अतीत की भूलों को सुधारने का समय आ गया है।
क्रमश: