हम समझते हैं कि भगवान को उल्लू बना रहे हैं और भगवान बड़ी ही मस्ती से मोहमाया से घिरे हम उल्लूओं के नाच-गान और नौटंकियों को देख रहा है। भगवान न तो हम ढोंगी-पाखण्डी भक्तों की सेवा-पूजा का भूखा है, न उसे हम जैसे तथाकथित भक्तों से कोई अपेक्षा की रह गई है।
आजकल धर्म अपने आप में इतना बड़ा कारोबार हो चला है जहाँ आम भक्तों से लेकर बाबाओं, महन्तों, पण्डे-पुजारियों, पण्डितों, दिखावटी भक्तों, ढोंगियों और पाखण्डियों से लेकर सभी प्रकार के सांसारिकों को किसी न किसी प्रकार से भगवत्कृपा का आनंद प्राप्त हो रहा है।
आज हमने धर्म को धंधा बनाने के सभी संभव उपायों को अपना लिया है। शांत चित्त भाव से सेवा-पूजा, भक्ति, ध्यान और आराधना के लिए मन्दिर समुदाय और क्षेत्र के लिए वह केन्द्र हुआ करते थे जहाँ आकर हर किसी को असीम शांति और अनिर्वचनीय आनंद प्राप्त होता था। मन्दिर आने का अर्थ ही यह था कि कुछ समय के लिए संसार विस्मृत हो जाता था और भगवान की भक्ति से ऎसा आनंद प्राप्त होता था कि हर कोई पुनः ऊर्जित हो कर ही लौटता था। इस दृष्टि से ही मन्दिरों को एकान्त में बनाने की परंपरा रही है।
जनसंख्या का भारी विस्फोट कहें या हमारी कारोबारी मानसिकता, हमने मन्दिरों से शांति और एकान्त को पूरी तरह से छीन लिया है और अपनी विकृत धंधेबाजी मानसिकता भुनाने का स्थल बना डाला है। जिन पूर्वजों ने धर्म और भगवान से सीधा रिश्ता जोड़ने, चित्त की शांति प्राप्त करने और एकान्तसेवन के लिए मन्दिर बनाये थे उनकी आत्मा भी आज विलाप कर रही होगी हमारी व्यावसायिक और मन्दिरों के शोषण को देखकर।
बातें तो हम धर्म-ध्यान और भक्ति की करते हैं और मन्दिरों की हालत ये कर दी है कि न भगवान की शांति रहने दी है, न भक्त की। जिन पुरखों ने मन्दिर परिसरों में भगवान की सेवा-पूजा के लिए शुद्ध जल आपूर्ति की दृष्टि से खूब सारा पैसा लगाकर कूए ख्ुादवाये थे, उन्हें बंद कर हमने ऊपर दुकानें बनवा डाली हैं।
मन्दिर परिसरों को दुकानों और व्यवसायिक केन्द्रों के रूप में बदल डाला है। यही नहीं तो मन्दिरों के व्यवसायिक दोहन की हमारी भूख शांत नहीं हुई तो हमने मन्दिरों के परिक्रमा स्थलों तक को बंद कर दिया है और उनका कारोबारी उपयोग करने लगे हैं।
मन्दिरों और संसार में एक निश्चित दूरी का विधान था उसे भी हमने मटियामेट करके रख दिया है। मन्दिर परिसरों में दफ्तर स्थापित कर दिए हैं और पुजारियों के लिए आवास डाले हैं। इन पुजारियों को हम भगवान के सेवक की बजाय केयर टेकर मानने लगे हैं। कमोबेश यही स्थिति हमारे मठों और आश्रमों की है जहाँ ये धर्मस्थल देवता के स्थानों की बजाय किसी बिजनैस सेंटर या कॉम्प्लेक्स का ही भान कराते हैं।
मन्दिर सार्वजनिक स्थल हुआ करते हैं जहाँ हर भक्त को अधिकार है कि बिना किसी बाधा के पूजा-अर्चना करे। मन्दिर सामूहिक अथवा एकान्तिक धार्मिक आयोजनों, अनुष्ठानों और उत्सवों के केन्द्र भी हुआ करते हैं लेकिन जब से मन्दिरों का कारोबारी इस्तेमाल होने लगा है तभी से विभिन्न समूहों, समाजों और ट्रस्टों की भक्ति भावना परवान पर चढ़ी हुई है। सभी को लगता है कि इतना बना-बनाया सेंटर और कहाँ मिलेगा।
कई सामाजिक समूहों की हालत तो यह हो गई है कि वे अपने आपको भगवान के संरक्षक के रूप में स्थापित कर चुके हैं। दैवीय सम्पत्ति को भुनाने में माहिर खूब सारे भक्तों को लगता है कि दुनिया में उनसे बड़ा भक्त और कोई हो ही नहीं सकता।
बड़े मन्दिरों के बारे में कहा जा सकता है कि अब इनका श्रद्धा और आस्था से कोई सरोकार नहीं रहा बल्कि इनके रखवालों का एकसूत्री एजेण्डा यही हो गया है कि मन्दिर का विकास और निर्माण तथा विस्तार इस प्रकार से हो कि ज्यादा से ज्यादा लोग आएं, अच्छा दर्शनीय और पर्यटन स्थल बने तथा अधिक से अधिक चढ़ावा निरन्तर कैसे बढ़ता रहे।
इन बड़े मन्दिरों में साधना और श्रद्धा पक्ष गौण हो गया है और निर्माण बुद्धि का भौतिक स्वभाव हावी हो गया है। इनके संरक्षकों और संचालकाेंं को भगवान से कोई मतलब नहीं रहा बल्कि भगवान को भुनाकर मन्दिरों को कमायी केन्द्र बनाने पर जोर ज्यादा हो गया है। यही कारण है कि इन मन्दिरों में सामान्य भक्तों की कोई पूछ नहीं है, और वीआईपी भक्तों को देवता की तरह सम्मान दिया जाने लगा है।
भगवान का मन्दिर वही असली है जहाँ एक गरीब से गरीब और सामान्य व्यक्ति भी शांत भाव से भगवान के दर्शन कर सके और जब वह दर्शन के लिए जाए तब न कोई रोकने-टोकने वाला हो, न दानपात्र या भेंटपात्र बीच में दिखाई दे, और न कोई माईक या टेप रिकार्डर से निकलने वाली ध्वनियों का व्यवधान हो।
पहले मन्दिरों में भगवान की मूर्तियां ही होती थीं और आस-पास परम शांति भरा वातावरण। न माईक होते थे न और कुछ बाधाएं। ऎसे में भगवान और भक्त के बीच की प्रार्थना का असर भी होता था। भगवान भी शांति से रहते थे और भक्त भी उनके सान्निध्य में रहकर शांति का सुकून पाते थे। मूर्तियां अपने आप इतनी सुन्दर, मनोहारी और मूर्तित आभूषणों से परिपूर्ण हुआ करती थीं कि न चाँदी-सोने के आभूषणों या छत्रों की जरूरत हुआ करती थी, न किसी और आवरणों की।
आज के मन्दिरों को देख कर लगता है कि मन्दिर नहीं बल्कि कबाड़घर बने हुए हैं। यह अपने आप में मन्दिर का वास्तु भंग कर देता है। गर्भगृह से लेकर सभामण्डप तक में माईक, मशीनी घण्टे-घड़ियाल, सैफ, आलमारियों, तिजोरियों और जाने क्या-क्या कबाड़ भरा मिलता है। कोई सा भक्त कितने ही माधुर्यपूर्ण स्वरों में स्तुति या मंत्र जाप करना चाहे, नहीं कर सकता क्योंकि मन्दिर का माईक या टेप हमेशा अशांत माहौल बनाते रहते हैं।
मन्दिर और प्रकृति का सीधा रिश्ता है लेकिन हमने मन्दिरों के भौतिक विकास को ही भक्ति मान लिया है और मन्दिर परिसरों से पीपल,वटवृक्ष आदि को कटवा कर उनके स्थान पर यज्ञ मण्डप बनवा डालें हैं जबकि किसी धर्मशास्त्र में स्थायी यज्ञ मण्डप का कोई विधान नहीं है। लेकिन दक्षिणा के लालची आचार्यों और पण्डितों ने धर्म को इतना भुनाया है कि हमारे लिए अब किसी न किसी बहाने पैसा कमाना ही धर्म होकर रह गया है। इन पण्डितों और महान विद्वानों को यजमान दिखते हैं अथवा आयोजन या फिर दान-दक्षिणा ही। इन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि धर्म,सत्य और परंपराएं क्या हैं?
आज हम अपनी ओर से भगवान के नाम पर एक पैसा निकालना नहीं चाहते। हम चाहते हैं मन्दिरों का व्यावसायिक इस्तेमाल करें और भगवान की कमायी से सेवा-पूजा, आयोजन और पुजारियों का खर्च निकालें, भगवान का पैसा जमा करते जाएं।
हम कैसे भक्त हैं जो भगवान की कमायी पर जिंदा हैं और उसी के मन्दिरों को धंधा बनाकर भक्ति दिखा रहे हैं। हम गरीबों के पास भगवान के लिए खर्च करने को कुछ नहीं है, हमारी गरीबी और अभावग्रस्त जिन्दगी में भगवान के मन्दिर ही एकमात्र सहारा हैं कमायी करने के। लानत हैं हम सभी भक्तों को, जो भगवान के लिए भी भगवान की कमायी के भरोसे हैं। हे ईश्वर ! हम सारे नालायक और नाकाबिल हो गए हैं, अब तुम ही कमा कर दो, तब हो सेवा-पूजा के प्रबन्ध।
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