सृष्टि के यही लाखों पदार्थ अपने अपने गुणों और क्रियाओं से अपनी संज्ञा अर्थात अपना नाम आप ही आप चुनकर पुकारने लगते हैं और आज हम इन्हीं सब पदार्थों के व्यवहारों से उत्पन्न हुए लाखों शब्द बोलते हैं।
यह मनुष्य बड़ा गंभीर है। इस वाक्य में बड़ा और गंभीर ये दोनों शब्द कहां से आए? गंभीर नदी, कुओं और समुद्र की गहराई से आया और बड़ा पृथिवी अथवा पहाड़ या कम से कम ताड़ के वृक्ष से आया। अच्छा प्रफुल्लित शब्द कहां से आया? क्या यह शब्द निस्संदेह फूलों के ऊपर से ही नही लिया गया? यदि हां तो मन प्रफुल्लित वाक्य, क्या बिल्कुल ही मनुष्य समाज के बाहर का नही है? अवश्य है।
उसका स्वभाव बड़ा उग्र है वह लडक़ा बड़ा तेजस्वी है। क्या यह उग्र धूप से और तेज सूर्य से नही लिया गया? उसकी बात मन में चुभ गयी। वह चुभना क्या कांटों पर से नही लिया गया? मेरे होश उड़ गये। यह उडऩा तो चिडिय़ों के ऊपर से ही लिया गया है। कर्म का क्या फल है? यह फल तो बिल्कुल ही वृक्ष से लिया गया है। कहने का मतलब यह है कि आधे से अधिक शब्द हम अब भी बाहरी दुनिया के ही बर्तते हैं, जिनका मनुष्य समाज से कुछ भी संबंध नही है। इसी तरह हमें सोचना चाहिए कि हमारी भाषा के अंदर हजारों शब्द हमारे पास बाहरी संसार से ही आये हैं। उज्ज्वल शब्द निस्संदेह धूप, अथवा चांदनी से आया है। रक्त को तो अब तक लाल रंग का ही वाचक बोलते हैं। जब यह हाल है तब कैसे कह सकते हैं कि वेद में जो व्यावहारिक शब्द आते हैं, वे हमारे सामाजिक व्यवहार के बाद के हैं?
हम पहले लिख आये हैं कि वेद का आकाश भी एक पृथक संसार है। वहां भी राजा, प्रजा, आर्य, दस्यु, ब्राह़्मण, क्षत्रिय, ग्राम, नगर, गली, लेना, देना, युद्घ, विग्रह, गाय, घोड़ा बैल, भैंस, बकरी, कुत्ता, नाव, शकट, मनुष्य पशु पक्षी, वृक्ष लता आदि सभी कुछ हैं। वहां स्त्री पुरूष भी हैं, उनका परिणय भी है। इस तरह से हम जो कुछ सामाजिक व्यवहार यहां देखते हैं, वह सब का सब (अपने निराले ढंग का) ऊपर भी मौजूद है।
इसी तरह का एक दूसरा संसार हमारा शरीर है। यहां भी उपर्युक्त सब चीजें हैं और वेदों में कही गयी हैं।
तीसरा संसार पृथिवीस्थ पदार्थों का है। इन तीन प्रकार के संसारों का वर्णन वेदों में है। पहला संसार सबसे बड़ा दूसरा सबसे छोटा और तीसरा मध्य में मध्यम श्रेणी का है। पहले के अनुसार दूसरे को बनाना और तीसरे को मदद लेना यही वैदिक विज्ञान है।
पहले संसार ने सरदी और गर्मी पैदा की। दूसरे संसार को तकलीफ हुई। अत: तीसरे संसार से रजाई और छाता लेकर, दूसरे को पहले के अनुकूल बना दिया गया। इसी का नाम कर्म है। वेदों में इसी को यज्ञ कहा है। इसी यज्ञ के अन्य भाग औषधि सेवन, वस्त्रधारण आदि भी हैं।
उक्त समग्र वर्णन का निष्कर्ष यह है कि वेदों में बहुत बड़ा भाग पहले संसार का है। उसमें आये हुए शब्द मनुष्य समाज के व्यवहार के पहले के है। दूसरे संसार के शब्द भी मनुष्य के पहले के हैं और तीसरे संसार के शब्द तो उक्त दोनों से लेकर ज्यों के त्यों रख दिये गये हैं। उदाहरणार्थ, किरणें और इंदियां गो हैं। ये ताप और ज्ञान देती हैं। चलने वाली भी हैं। उनका मिलान गौ से मिलता है, अत: गौ भी उन्हीं शब्दों से कही जाती है। अश्व, तेज चाल चलने वाला घोड़ा भी अश्व कहलाता है। सूर्य संसार का शासन करता है अत: वह वेदों में सम्राट कहा गया है। यहां भी पृथ्वी भर का राजा सम्राट कहलाता है। तात्पर्य यह कि वेद शब्दों से ही सब संज्ञायें निकलीं हैं। वे समाज के बाद नही बनीं, बल्कि समाज के साथ ही उत्पन्न हुई हैं। अतएव इन शब्दों से इतिहास निकालना भूल है। वेदों में इतिहास नही है।
क्रमश: