इस कल्प के इसबार के द्वापर युग में भगवान विष्णु ही 16 कलाओं से सज्जित होकर श्री कृष्ण के रूप में अवतरित हुए थे। अब तक गाय के शरीर पर जितने रोयें है, उतने कल्प बीत चुके है। और परमात्मा के प्रतिनिधि उतने बार द्वापर युग में कृष्ण के रूप में अवतार लिए है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार एक कल्प में तो भगवान शंकर ने राधा और देवी पार्वती ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया है। इसलिए कुछ परम सत्य को जानने वाले तपस्वी संत यह पूर्ण रूप से मानते है की काली और कृष्ण में कोई अंतर नहीं।
सनातन शास्त्रों के अनुसार जिस प्रकार काशी नगरी इस ब्रह्माण्ड में नहीं बल्किन भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसा है। इस लिए संत कहते है कि काशी में कोई पाप ना हो जाय इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए क्योकि तीर्थो में किया पाप बज्रलेप हो जाते है। यानि इन पापो के प्रायश्चित ही नहीं।
वैसे ही भगवान का नित्य धाम वृन्दावन इस ब्रह्माण्ड में नहीं बल्कीन गाय के सिंघो में विराजमान है। इसलिए ही श्री कृष्ण को वृन्दावन अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है.
वृन्दावन में भी भूल से भी पाप नहीं होना चाहिए बरना किया गया पाप ब्रजलेप होना ही है।
यह बात गौर करने वाली बात है जिस प्रकार तीर्थो में जाने से तीर्थ के प्रभाव से पुण्य की प्राप्ति होती ही है। और पुण्य की मात्रानुसार इस लोक तथा पर लोक में भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। उसी प्रकार तीर्थो में जाकर पाप करने से वहां के सतोगुण को दूषित करने के पाप के कारण मनुष्य का पाप प्रायश्चित योग्य नहीं रहता उसको मृत्य पश्चयात भारी यातनाएं भुगतनी ही पड़ती है।
सनातन सिद्दांतो के अनुसार – यतो शुभ कर्म ततो पुण्यः यतो पाप कर्मो ततो दण्डः
”नयाल सनातनी”–सर्वदलीय गौरक्षा मंच परिवार