पिछले कुछ समय से हमारे भीतर से श्रद्धा और आस्था जैसे शब्द अपना अर्थ खो कर गायब हो चुके हैं और हम श्राद्ध के नाम पर अब जो कुछ कर रहे हैं वह या तो लोक-दिखावा है अथवा पितरों के कुपित होने की आशंका का भय। ये न हो तो हम पितरों को इतना भुला डालें कि हमें न उनकी कभी याद आए, न याद करने की बारी।
भारतीय जीवन पद्धति में आत्मा की अमरता का उद्घोष है जहाँ शरीर के नष्ट होने के उपरान्त भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है और शरीर बदलता रहता है। वर्तमान और पुरानी पीढ़ियों के बीच कृतज्ञता और श्रद्धा की श्रृंखला को पूरी आस्था के साथ निभाने का नाम ही श्राद्ध है और हर वर्तमान का दायित्व है कि अपने पुरखों के कल्याण के निमित्त श्राद्ध और समस्त प्रकार की उत्तर क्रियाओं का निर्वाह क्रम निरन्तर बनाए रखे तथा यह परंपरा उत्तरोत्तर जारी रहे ताकि दैहिक और सांसारिक संबंधों की इस श्रृंखला का प्रवाह निरन्तर उत्कर्ष पर बना रहे।
इस उत्कृष्ट और शाश्वत जीवन पद्धति का अंग होने के बावजूद हम पितरों के प्रति श्रद्धा निवेदित करने में कंजूसी बरतने लगे हैं। हमारे पारिवारिक, सामाजिक और वैयक्तिक मूल्यों के पतन से जुड़े मौजूदा दौर में हम अपने माँ-बाप, भाई-भगिनियों, पत्नी-बेटी और दूसरे सारे रिश्ते-नातों को पैसों और स्वार्थ के संबंधों की कसौटी पर तौलने-परखने लगे हैं।
हम वर्तमान में हमारे जीवित आत्मीय संबंधों के प्रति ही इतने बेपरवाह हो चले हैं कि हमारे के लिए अपने घर भरने और दो-चार लोगों के परिवार से बढ़कर किसी के लिए कुछ करने की भावना तक शेष नहीं रही। ऎसे में दिवंगत पितरों के प्रति श्रद्धा अभिव्यक्ति का कोई सा अवसर हमारे लिए अब उतना महत्त्व का नहीं रहा। फिर जिनके लिए किया जा रहा है वे प्रत्यक्ष भी नहीं हैं, उनसे हमें कोई खतरा भी महसूस नहीं होता।
इसलिए हममें से काफी सारे लोग श्राद्ध को या तो औपचारिकता निर्वाह मानने लगे हैं अथवा फिजूल खर्ची। यही कारण है कि खूब सारे लोग श्राद्ध के प्रति उपेक्षा का बर्ताव रखते हैं और जो बचे-खुचे हैं उनमें या तो पितरों द्वारा अनिष्ट कर दिए जाने का कोई भय है अथवा मामूली श्रद्धा और आस्था के बीज अभी शेष हैं।
कुछेक ही लोग ऎसे होंगे जिनके मन में भारतीय परंपरा और श्राद्ध की समझ है और वे पूरे विधि-विधान के साथ श्राद्ध का संपादन करते हैं और उनकी एकमेव इच्छा यही रहती है कि पितृ संतुष्ट होकर जाएं। इन लोगों की श्रद्धा मुँह बोलती है और ये पितृ कृपा का लाभ भी प्राप्त करते हैं। पितरों को उनकी तिथि के अलावा श्राद्ध तिथि को ही स्मरण व संतुष्ट करने का विधान है। इनके अलावा दिनों में पितरों को याद किए जाने की न परंपरा रही है, न विधान। इसलिए जिन दिनों मंंें पितरों का आवाहन होता है उन दिनों में पूरे विधि-विधान के साथ पितरों को अतिथि मानकर संतुष्ट करने का भरपूर तथा हरसंभव प्रयास करना चाहिए।
आम तौर पर पितृ हमारे और देवी-देवताओं के बीच की वह कड़ी हैं जिनसे होकर हमारे संदेशों व ऊर्जा तरंगों-अनुनादों का आवागमन होता है। पितरों के प्रसन्न एवं संतुष्ट होने पर हमारी साधनाएं, कामनाएं और प्रार्थनाएं शीघ्र और निर्बाध रूप से सफल होती हैं और इनका आशातीत लाभ भी प्राप्त होता है। किसी भी प्रकार की साधना या दैव मार्ग का अवलम्बन हो, पितरों की कृपा से इनमें शीघ्रता प्राप्त होती है और कार्य आसान होते हैं।
श्राद्ध अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा अभिव्यक्त करने का वार्षिक पर्व है जिसमें हम कृतज्ञता ज्ञापित करने के साथ ही पुरानी पीढ़ी के ऋण से उऋण होने का प्रयास करते हैं। यही काम हमारे जाने के बाद हमारे वंशज करेंगे। यह श्रृंखला जब तक स्वस्थ और श्रद्धायुक्त रहेगी तब तक वंश और गौत्र परंपरा से जुड़े सभी लोगों और परिजनों को आनंद की प्राप्ति होती रहेगी। जहाँ यह चैन खण्डित होती है वहीं समस्याओं की शुरूआत होती है।
जो लोग अपने माँ-बाप की सेवा नहीं करते, बंधुओं की अवमानना करते हैं, अपने पितरों के प्रति उपेक्षा का बर्ताव करते हैं उन परिवारों में पितर दोष, पितर कोप और कालसर्प का प्रभाव अक्सर देखने में आया है। आज की स्वार्थी जिंदगी मेंं जीवितों और अपने आस-पास के परिजनों के प्रति अपनी जिम्मेदारियां निभाने में हमें मौत आती है ऎसे में दिवंगत परिजनों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के इस वार्षिक पर्व की हकीकत से रूबरू होना कोई कठिन नहीं है।
आज हम श्राद्ध तिथि को सिर्फ सामूहिक भोज को ही श्राद्ध मान बैठे हैं और भोजन कराकर अपने कत्र्तव्य की इतिश्री कर लिया करते हैं। जबकि श्राद्ध का पूरा विधि-विधान है और उसका पालन किया जाए तो हमारे पितरों को भी संतुष्टि होगी, हमें भी आत्मतोष मिलेगा और हमारे बच्चे भी इस परंपरा को जानेंगे, ताकि हमारी श्राद्ध तिथि के दिन हम अतृप्त या असंतुष्ट रहकर अपने वंशजों को कोसते न रहें।
श्राद्ध के नाम पर केवल औपचारिकताओं का निर्वाह न करें। श्राद्ध की मर्यादाओं, पाबंदियों और परंपराओं का पालन करें, तभी हमारा श्राद्ध मनाना औचित्यपूर्ण है अन्यथा असमय सुस्वादु एवं सुरुचिकर भोज और मौज उड़ाने से कुछ होने वाला।
यहाँ यह कड़वा सच कहना प्रासंगिक होगा कि हमारी अश्रद्धा के साथ ही परंपराओं के मर्यादापूर्वक निर्वाह में कमी के कारण श्राद्ध का लाभ न हमारे पितरों को प्राप्त हो पा रहा है, न हमेंं। इसी तरह चलता रहा तो पितरों का प्रकोप हम तो भुगतेंगे ही, हमारे पितर योनि में आ जाने के बाद हमें भी दुःख, विषाद और पीड़ाओं का अनुभव होगा ही। श्राद्ध को लेकर गंभीर रहें, विधि-विधान को अपनाएं और पुरखों के प्रति कृतघ्न न होकर कृतज्ञ बनें। पूर्वजों के प्रति अगाध श्रद्धा और आस्था न हो तो श्राद्ध करना बेकार है।
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