पितरों को यह स्मरण कराने की आवश्यकता नहीं होती कि उनकी क्या जिम्मेदारी है और उन्हें क्या करना चाहिए। मनुष्येतर लोकों में रहने वालों को सब कुछ पता होता है कि किसको किसकी जरूरत है और क्या चाहिए। इसलिए उनके कत्र्तव्य की ओर सोचने की बजाय हमें यह सोचने की आवश्यकता है कि पितरों के प्रति हमारे क्या कत्र्तव्य हैं।
आमतौर पर मनुष्य इतना अधिक बौद्धिक और विवेकशील है कि उसका विश्वास दृश्यमान और प्रत्यक्ष लाभ में ही है, भले ही उसका स्वरूप छोटे से छोटा हो और आयु क्षणभंगुर। जो दिखता है उसी पर विश्वास होता है लेकिन ब्रह्माण्ड का अधिकांश भाग ऎसा है जिसका दिव्य अस्तित्व होने के बावजूद मनुष्य को उसकी नंगी आँखों से यह सब कुछ दिखना मुश्किल ही है। लेकिन असंभव कतई नहीं।
पुराणों और ऎतिहासिक मिथकों, तथ्यों और सत्यों का इतिहास बताता है कि मनुष्य उस जमाने में दिव्यता के इतने चरम पर था कि सारे लोगों का ब्रह्माण्ड भ्रमण करते हुए देवी-देवताओं, यक्ष-गंधर्व-किन्नरों और नागों से लेकर मनुष्येतर तमाम दिव्य पुरुषों और सिद्धों से उसका संवाद कायम था। यही नहीं तो पशु-पक्षी भी मनुष्य की भाषा में संवाद करने का सामथ्र्य रखते थे।
अब इंसान उतना समर्थ नहीं रहा। ब्रह्माण्ड को देखने के लिए दिव्यता और शुचिता की सारी कसौटियों पर खरा उतरकर हमें मनुष्यत्व के दायरों से भी काफी ऊपर उठने की आवश्यकता है। यहाँ हम पितरों की बात कर रहे हैं। आत्मा की अमरता को मानने वाले हम लोग पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं और हमारा मानना है कि हमारे पितृों के प्रति अगाध आस्था और श्रद्धा बनी रहने पर हमारा जीवन और अधिक सरल, सहज और सुगम हो जाता है तथा हमारे प्रत्येक कर्म में पितरों का आशीर्वाद एवं सूक्ष्म सम्बल सदैव बना रहता है।
पितर बिना कुछ कहे हमारे कामों में मददगार बने रहते हैं। आज वे पितर सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं। कल हमें भी पितर लोक में कुछ समय रहना पड़ सकता है इस दृष्टि से हम सारे के सारे लोग भावी पितर तो कहे ही जा सकते हैं। हमारे पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का भाव बना रहने पर ही हम अपने वंशजों से अपेक्षा रख सकते हैं कि वे उस समय हमारे प्रति श्रद्धा रखें जब हम लोग पितर लोक में निवास कर रहे होंगे।
संस्कारों और परंपराओं का जो पालन करता है उसी के वहाँ ये परंपराएं सुरक्षित रहती हैं और आने वाली पीढ़ियों तक संवहित होती रहती हैं। इसलिए पुरानी पीढ़ी और पितरों के प्रति हमारी श्रद्धा हमेशा बनी रहनी चाहिए तभी हमारे कुल का उद्धार हो सकता है।
देवी-देवताओं और परमात्मा की उपासना का विधान हमारी परंपराओं में हैं लेकिन विशिष्ट अवसरों पर पितरों का स्मरण और उनके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्त करना भी हमारी जीवनपद्धति का वह अनिवार्य अंग है जिससे हम मुक्त नहीं हो सकते। उत्तरक्रिया से लेकर साल भर मृत्यु तिथि, संवत्सरी – वार्षिक तिथि और श्राद्ध के समय पितरों को हमसे यह अपेक्षा रहती है कि हम उनके लिए वह सब करें जो पितरों की ऊध्र्वगामी यात्रा के लिए मददगार हो और ऊपर तक के लोकों या कि पुनर्जन्म की उनकी यात्रा सहज हो जाए।
हम पितरों के निमित्त जो कुछ इन दिनों में करते हैं उसका फल उन्हें प्राप्त होता है और उनकी प्रसन्नता हमारे लिए वरदान बनी रहकर जीवन को आसान व निष्कण्टक बनाती है। यही कारण है कि श्राद्ध और विशिष्ट अवसरों पर हमें पितरों के प्रति श्रद्धा भाव से विधि-विधान को प्रसन्नतापूर्वक निभाना चाहिए। ऎसा नहीं करने पर पितरों की अप्रसन्नता का अनिष्ट सामने आता ही है।
हमारी जन्मकुण्डली और गोचर में विद्यमान ग्रहों-नक्षत्रों की पूर्ण अनुकूलताओं और सम सामयिक माहौल के सकारात्मक तथा अपने पक्ष में अनुकूल होने के बावजूद हमारे साथ नकारात्मक घटनाएं घटती रहें, सफलता के शिखरों तक पहुंच जाने के बाद आकस्मिक संकट आ जाए और सफलता एक ही झटके में दूर चली जाए, किसी उपलब्धि के करीब पहुँच जाने के बाद अचानक कोई न कोई व्यवधान आ जाए, इसका सीधा और स्पष्ट संकेत यही है कि पूर्वजों अर्थात पितरों के प्रति हमारी कोई न कोई उदासीनता रही है और पितर हमसे अप्रसन्न हैं।
हममें से काफी लोग हैं जो देवी-देवताओं की उपासना से भी अधिक महत्त्व पितरों को देते हैं और पितरों को प्रसन्न करने के लिए जो-जो जतन करते हैं उनकी भी कोई सीमा नहीं है। कुछ लोग अपने वाहनों से लेकर घरों तक पर पितृ कृपा लिखवाते हैं, कुछ लोग रोजाना पितरों के नाम से दीया जलाते हैं और भोग-चढ़ावा आदि काफी जतन करते हैं। ये लोग पितरों को अपने मामूली से मामूली कामों के लिए प्रार्थनाओं द्वारा आह्वान करते हुए तंग करते रहते हैं जबकि पितरों का स्मरण उनकी मृत्यु तिथि या श्राद्ध के सिवा करने का कोई विधान नहीं है। किसी यात्रा या अनुष्ठान से पूर्व नांदीश्राद्ध या पितर पूजा का अवसर संभव है लेकिन पितरों का रोजाना स्मरण उनकी ऊध्र्वगति को बाधित करता है और उन्हें नीचे के लोकों में आने पर कष्ट का अनुभव होता है।
कई बार पितर हमसे अप्रसन्न होते हैं तब किसी न किसी सूक्ष्म प्रभाव से कोई न कोई संकट खड़ा कर देते हैं। यह इस बात का संकेत होता है कि हम पितरों के प्रति अपनी कोई न कोई जिम्मेदारी भुला बैठे हैं और ऎसे में हम उनकी अवहेना करते हैं तब पितरों द्वारा आभासी अनिष्ट दिखाया जाता है।
इन सारी बातों का सार यही है कि हमारे दिवंगत पितरों की मुक्ति के लिए प्रयास करना हमारी जिम्मेदारी है। पितरों की स्वाभाविक ऊपरी लोकों की ओर जाने की यात्रा को बाधित न करें बल्कि शास्त्रोक्त उन प्रयासों को अपनाएं जिनसे पितरों को मुक्ति प्राप्त हो। पितरों को अपनी ऎषणाओं के लिए मंत्रों, प्रार्थनाओं या टोनों-टोटकों से बाँधकर रखने से अन्ततोगत्वा हमारा ही नुकसान है।
पितरों को हमसे यही अपेक्षा रहती है कि हम उन्हें किसी न किसी प्रकार के धर्मशास्त्रीय अनुष्ठानों, श्राद्ध, दान-पुण्य, भागवत सप्ताह, तर्पण आदि विधि-विधानों से मुक्त करें। पितरों की मुक्ति होने पर उनका हमें जो आशीर्वाद प्राप्त होता है वह जीवन भर के लिए आनंद का सृजन करने वाला होता है।
पितरों की प्रसन्नता के बाद देवी-देवताओं तक पहुंचने वाली हमारी प्रार्थनाओं और मंत्रों का असर तीव्र वेग और गति प्राप्त कर लेता है और हमारे संकल्पों को सिद्धि मिल जाती है। यही नहीं तो हमारी कई पीढ़ियों तक पितरों के वरदान का लाभ स्वतः प्रवाहित होता रहता है।
—000—