आत्मदर्शी दयानन्द◼️
✍🏻 लेखक – पंडित चमूपति एम॰ए०
(आर्यसमाज के अग्रिम विद्वान, चिंतक एवं लेखक पंडित चमूपति जी के जन्मदिवस 15 फरवरी 1893 को विशेष रूप से प्रकाशित)
[स्वर्गीय पं० चमूपतिजी एम०ए० का यह लेख तब का लिखा हुआ है जब वे गुरुकुल काँगड़ी के मुख्याधिष्ठाता थे। यह लेख साप्ताहिक प्रकाश उर्दू और ‘आर्य मुसाफिर’ में भी छपा था। आचार्य दयानन्द ने आर्यसमाज को स्कूल कमेटी नहीं बनाया था। महर्षि का लक्ष्य वेद-प्रचार व ईशोपासना की रीति चलाना था। ऋषि, महर्षि, यति योगेश्वर दयानन्द का अनूप रूप समझना हो तो यह लेख बारम्बार पढ़िए ।]
ऋषि दयानन्द का जन्म एक भ्रान्ति-प्रधान युग में हुआ था। कोई ऐसी असम्भव बात न थी जिसे योग की सिद्धि के नाम पर सम्भव न समझा जाता हो । योगियों की विशेषता ही चमत्कार था । धार्मिक नेताओं का गौरव ही उनके आलौकिक कारनामों के कारण था।
धर्म की इस प्रवृत्ति को आर्यसमाज ने अन्धविश्वास समझा और इसका घोर खण्डन किया। परिणाम यह हुआ कि आर्यसमाज की श्रद्धा विभूति मात्र से उड़ गई। सौभाग्यवश
आर्यसमाज का अपना ऋषि मूर्त सदाचार था। ऋषि की इस विभूति को आर्यसमाज के प्रचारकों ने हाथों हाथ उठा लिया और इसी चमत्कार की कसौटी पर संसार भर के सिद्धों के जीवन परखे जाने लगे। भला इस क्षेत्र में किसी की ताव थी कि दयानन्द से लोहा लेता? दयानन्द का निष्पाप कुन्दन-सा जाज्वल्यमान उज्ज्वल चरित्र आर्यसमाज का वह अमोघ हथियार था जिसके आगे विरोधी चारों खाने चित्त थे। आर्यसमाज को अपने मन्तव्यों के गौरव की स्थापना के लिए किसी आलौकिक कारनामे का आश्रय लेना ही नहीं पड़ा।
तो क्या अलौकिक कारनामों की कथाएँ वस्तुत: मिथ्या हैं? क्या संसार की सम्पूर्ण घटनाओं के संचालक केवल भौतिक नियम तथा भौतिक शक्तियाँ ही हैं? या क्या आत्मा भी कोई सचमुच की वस्तु है- ऐसी वस्तु जिसके अस्तित्व का संसार के जीवन पर मूर्त-अनुभव में आने वाला-प्रभाव पड़ता हो?
उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ का विज्ञान प्रधान यूरोप आत्मा तथा परमात्मा की सत्ता को ही जवाब दे चुका था। जब विश्वचक्र की सभी घटनाओं का समाधान प्राकृतिक नियमों के द्वारा हो जाता है तो अप्राकृतिक सत्ताओं को स्वीकार करने की आवश्यकता ही क्या है? उन दिनों विज्ञान का अर्थ ही प्राकृतिक समझा जाता था। मनोविज्ञान का भी एक ऐसा रूप निकल आया जिसका नाम ही पड़ा मनः शरीर-शास्त्र(psychophysics)। इसके द्वारा मानसिक घटनाओं की व्याख्या शारीरिक-तन्तुओं (nerves) ही की-परिभाषा में की जाने लगी। परन्तु विज्ञान का तो काम ही गवेषणा करना है। मानव जीवन का मानसिक पहलु वैज्ञानिक अन्वेषण के लिए एक विशेष क्षेत्र पेश करता है। इस क्षेत्र की साधारण घटनाओं की व्याख्या भी भौतिक नियमों द्वारा करनी असम्भव है। परन्तु साधारण घटनायें फिर साधारण थीं, इनकी ओर अन्वेषणकर्ताओं का विशेष ध्यान क्यों जाता? आँख देखती क्यों है? जिन भौतिक अंशों के संयोग से यह बनी है उन्हें कोई रासायनिक अब मिला देखे। एक कृत्रिम चक्षु बन जाएगा, परन्तु वह देख नहीं सकेगा। भूख का रूप भौतिक भोजनाभाव के अतिरिक्त एक विशेष प्रकार की मानसिक वेदना का है। उसकी भौतिक व्याख्या करना असम्भव है। अन्वेषणकर्ता आश्चर्यचकित तब हुए जब सैकड़ों मील की दूरी पर हो रही घटनाओं का साक्षात्कार कई मनुष्यों ने इस प्रकार किया मानो वे घटनायें उनकी आँखों के सामने हो रही हैं । बरसों बाद होने वाली बात इसी वर्तमान क्षण में मूर्त होकर दृष्टि के सामने आ गई। एक हृदय में उद्बुद्ध हो रही भावना, दूसरे हृदय में झट संचारित हो गई। विचार का संचार बिना किसी भौतिक बिजली के तार के किया गया। इन विचित्र कार्यों की भौतिक व्याख्या क्या हो सकती थी?
आज विज्ञान किसी अप्राकृतिक सत्ता होने का विरोध नहीं करता और यद्यपि सदाचार का पक्का भौतिक आधार किसी अलौकिक सत्ता की अनुभूति ही हो सकती है-बिना आध्यात्मिक विचार के, सदाचार युक्ति के क्षेत्र में ठहर ही नहीं सकता-तो भी सदाचार के नियमों का क्रियात्मक पालन बिना इस अनुभूति के भी भली प्रकार होता रहा है। मानव समाज के कई अद्वितीय सेवक नास्तिक-कट्टर निरीश्वरवादी-हुए हैं।
यह सच है कि बिना सदाचार के धर्म का कोई रूप नहीं बनता। किसी पुरुष में आध्यात्मिक विभूतियाँ चाहे कितनी भी स्पष्ट क्यों न हों, यदि उसके आचार पर उन विभूतियों का कोई विशेष रंग नहीं चढ़ा तो धर्म के क्षेत्र में वह पुरुष पाँव नहीं रख रहा, किन्तु दुलत्ति चलाने की चेष्टा मात्र कर रहा है। आध्यात्मिक अनुभूति की पूर्ण परिणति सन्त स्वभाव युक्त सदाचार में ही है। इसी सन्त-स्वभाव को आधुनिक मनोवैज्ञानिक धर्म कहते हैं। सदाचार ही धर्म का बाह्य अंग है, परन्तु इसमें आन्तरिक मधुरता-अलौकिक संजीवनी का सा रस- आध्यात्मिक भावना से ही आता है।
ऋषि दयानन्द में सदाचार की पराकाष्ठा है, परन्तु क्या इनके इस सदाचार का आधार कोई आध्यात्मिक अनुभूति थी? वे तर्क के पुतले थे, परन्तु क्या वह तर्क नीरस था? या उसमें रसपूर्ण भावना का भी एक प्रबल पुट था? तर्क ने उनकी भक्ति को आँख मींचकर ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्’ की प्रवृत्ति से दूर ही रखा, परन्तु उनके महत्व की इतिश्री इसी में हो जाती है कि उन्हें तर्क के क्षेत्र में धोखा नहीं दिया जा सकता था।
‘साक्षात् कृत धर्माण ऋषयोबभूव:’-यास्क की इस उक्ति के अनुसार ऋषि कहते ही उस पुरुष को हैं जिसने धर्म का अर्थात् उस शक्ति का जो समस्त सत् पदार्थों को धारण करती है, साक्षात्कार किया हो । भौतिक संसार की आधारभूत एक आध्यात्मिक सत्ता है। सदाचार का वास्तविक मूल यही है। ऋषि अपने आध्यात्मिक नेत्रों से उसका दर्शन करता है। इसी में उसका ऋषित्व है। दूसरे शब्दों में हमारे प्रश्न का एक और रूप यह हो जाएगा कि क्या स्वामी दयानन्द ऋषि थे? ।
इस प्रश्न का उत्तर किसी और की साक्षी से दे सकना असम्भव है। सन्तों के जीवन में कुछ ऐसे बाह्य गुण पाये जाते हैं, जिनसे वे प्राणिमात्र को अपनी ओर खींच लेते हैं। उनसे उनका आत्मसाक्षात्कार प्रमाणित होता है, परन्तु बाह्य लक्षण फिर भी बाहर ही वस्तु है। उसके सम्बन्ध में भ्रान्ति हो सकती है। अपने आन्तरिक अनुभव को अन्तिम गवाह तो प्रत्येक पुरुष अपने आप ही हो सकता है। विभु परमेश्वर का सम्बन्ध प्रत्येक आत्मा से उसके हृदय की गुफा में ही होता है। वेदों तथा उपनिषदों में इन आध्यात्मिक अनुभूतियों के मुँह बोलते चित्र मिलते हैं, यद्यपि किसी उपनिषत्कार ने अपने वैयक्तिक अनुभव का वर्णन अपने नाम के साथ जोड़कर नहीं किया। फिर वेद तो है ही वेद, उनमें नामों का क्या काम?
यद्यपि ऋषि दयानन्द ने भी इस विषय में मौनावलम्बन किए रहने की प्राचीन ऋषियों की शैली का पूर्णतया अनुसरण किया है तो भी कई स्थानों पर उनकी आध्यात्मिक अनुभूति की अनायास झाँकी सी मिल जाती है। हम नीचे कतिपय उक्तियों और घटनाओं का उल्लेख करेंगे, जिनमें ऋषि के जीवन के इस पहलु पर प्रकाश पड़ सके।
ऋषि दयानन्द के योग-प्रत्यक्ष का पहला उल्लेख उनकी आत्मकथा ही में मिलता है। ऋषि लिखते हैं-
🌺 फिर एक मास के पश्चात् मैं भी उनकी आज्ञा के अनुसार दूधेश्वर-महादेव के मन्दिर में उनसे जाकर मिला। वहाँ उन्होंने योगविद्या के अन्तिम रहस्य और उसकी प्राप्ति की विधि बताने की प्रतिज्ञा की थी सो उन्होंने भी अपना वचन पूरा किया और कथनानुसार-मुझको भी निहाल कर दिया ।
ऋषि ने भौतिक क्षेत्र में भी प्रत्यक्ष ही की साक्षी का अवलम्बन किया था। यह बात उनके अपने हाथ से शवछेदन की क्रिया करने से प्रकट होती है। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी उनकी यही अवस्था थी। सुनी-सुनाई पर विश्वास कर लेना उनकी प्रकृति के सर्वथा प्रतिकूल था। उनके एक पत्र में नीचे लिखी सारगर्भित उक्ति ध्यान देने योग्य है –
🔥 बहूनामार्याणां वेदशास्त्र बोध समाधि योग विचाराभ्याम्।
जीव स्वरूप ज्ञानं बभूव भवति भविष्यति वेति॥
(ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन भा० १ पृ० ५७ )
इस वाक्य में भवति शब्द ध्यान देने योग्य है।
कुछ समय महर्षि केवल समाधि ही का आनन्द लेते रहे थे। तत्पश्चात् वे देशसुधार का कार्य करने लगे। वे लिखते हैं –
🌺 हमने केवल परमार्थ और स्वदेशोन्नति के कारण समाधि और बह्मानन्द को छोड़ कर यह कार्य ग्रहण किया है।( पत्र और विज्ञापन भाग ४ पृ० १८ )
आर्याभिविनय में ऋषि दयानन्द के हृदय के आन्तरिक उद्गार प्रकट हुए हैं। परमेश्वर को सम्बोधित कर कहते हैं –
🌺 ‘हम से अलग आप कभी मत हों ।'( पृ० ११० )
🌺 ‘आप (स्वमुख) स्वशक्ति से सब जीवों के हृदय में सत्योपदेश नित्य ही कर रहे हो।'(पृ० ८७ )
🌺 ‘आप साम को सदा गाते हो, वैसे ही हमारे हृदय में सब विद्या का प्रकाशित गान करो।'(पृ० ११८ )
🌺 जैसे सूर्य की किरण, विद्वानों का मन और गाय, पशु अपने-अपने विषय और घासादी में रमण करते हैं व जैसे मनुष्य अपने घर में रमण करता है वैसे ही आप स्वप्रकाशयुक्त हमारे हृदय (आत्मा) में रमण कीजिए।( पृ० ८४ )
परमेश्वर से ऋषि दयानन्द का सम्बन्ध साक्षात् था। सदा उसे अपने अंग संग पाते थे और उससे अलग न होने का आग्रह करते थे। प्रभु के मधुर आलाप को सुनते थे और उसके अति रमणीय रमण का आनन्द लेते-लेते स्वयं भी उसी में रत हो जाते थे।
इस सम्बन्ध के परिणामस्वरूप कुछ विशेष मानसिक शक्तियाँ योगी को अनायास प्राप्त हो जाती हैं। उन्हें सिद्धि कहा जाता है। योगी इन शक्तियों की आकांक्षा नहीं करती। उनमें आसक्त हो जाने से समाधि के रास्ते में बाधा खड़ी हो जाने की सम्भावना है।ऋषि अपने विषय में लिखते हैं –
🌺 मैं इन तमाशों की बातों को देखना दिखलाना उचित नहीं समझता। चाहे वे हाथ की चालाकियों से हों चाहे योग की रीति से हों, किन्तु कोई चाहे तो उसको योग की रीति सिखला सकता हूँ कि जिसके अनुष्ठान करने से वह स्वयं सिद्धि को प्राप्त हो जाए।( पत्र और विज्ञापन भाग १ )
🌺 एक और स्थान पर लिखा है-देखो पूर्वकाल में हमारे ऋषि मुनियों को कैसी पदार्थ विद्या आती थी कि जिससे आत्मा के बल से सब अन्त:करण के भेद को शीघ्र ही जान लिया करते थे-भीतर के पदार्थों के योग से योगी लोग अपने अद्भुत कर्म कर सकते थे।( पत्र विज्ञापन भाग २ पृ० २० )
इन दो उद्धरणों को मिलाने से स्पष्ट हो जाएगा कि ऋषि दयानन्द जब किसी मानसिक तथ्य का वर्णन सामान्य संज्ञा द्वारा ऋषियों की सम्पूर्ण श्रेणी के विषय में करते हैं तो वह तथ्य उनका अपना अनुभूत होता है। जीवन-स्वरूप-ज्ञान के सम्बन्ध में जो एक संस्कृत वाक्य ऊपर उद्धृत किया गया है उसका निर्देश ऋषि को अपनी ओर होने में अब कोई सन्देह नहीं रहेगा।
ऋषि दयानन्द को दूर देश तथा भविष्य काल की घटनाओं का साक्षात्कार हो जाने के अनेक उदाहरण उनके जीवन चरित्र में मिलते हैं। ऋषि ने एक नवयुवक को एक विशेष अवधि तक विवाह करने से रोक दिया था। अवधि के समाप्त होते ही उसका देहान्त हो गया। ऋषि की योग दृष्टि ने एक आर्यबाला को उम्र भर के वैधव्य से बाल-बाल बचा लिया। एक भक्त दूध लाया। ऋषि ने पूछा-क्या रास्ते में साँप देखा था? वह आश्चर्यचकित था- ऋषि को इस घटना का ज्ञान कैसे हुआ इत्यादि।
आध्यात्मिक अनुभूति का एक फल यह भी प्राप्त होता है कि जब वह अनुभूति किसी को प्राप्त हो जाती है तो लोगों के हृदय में उसके लिए अनायास भक्ति का भाव उमड़ने लगता है। यह बात यहाँ तक पहुँचती है कि भक्त जन जब कभी आँखे मींचते हैं उनके सामने गुरुदेव का चित्र सा आ जाता है और वे चाहते हैं कि गुरुदेव हमेशा उनके अंगसंग रहें। गुरु से सम्बन्ध रखने वाली प्रत्येक वस्तु में भी एक विशेष भक्ति का भाव पैदा हो जाता है। ऋषि दयानन्द के जीवन में यह बात जगह-जगह पर उल्लिखित है। हम केवल दो उदाहरणों का उल्लेख करेंगे –
ऋषि की सेवा में ईश्वरानन्द सरस्वती का एक पत्र मिलता है जिसमें लिखा है-
🌺 मेरे पर भगवचरणों की धूरी स्वप्न में वर्षी है सो मैंने खूब स्नान किया।( पत्र व्यवहार पृ २० )
जोशी लालजी कल्याणजी एक पत्र में लिखते हैं –
🌺 आपके हस्ताक्षर कुं बोहोत प्रेम में दण्डवत किया।( पत्र व्यवहार पृ २९५)
ऋषि के प्रति राजस्थान के राजाओं, उच्च अधिकारियों तथा सर्वसाधारण-यहाँ तक कि एक पापताप से सन्तप्त दुखिया देवी के भाव अत्यन्त भक्तिपूर्ण थे। यह बात मैं ऋषि के पत्र व्यवहार की ही साक्षी से “आर्य” की किसी पूर्व संख्या में सिद्ध कर चुका हूँ।
मेरे इस लेख का प्रयोजन केवल यह दिखाना है कि ऋषि दयानन्द सचमुच ऋषि थे, उन्होंने आध्यात्मिक अनुभूति तथा उससे सम्बन्ध रखने वाली सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उसी अनुभूति का चमत्कार उनका निष्कलंक सच्चरित्र-सम्पन्न जीवन था। उनकी सर्वस्व स्वाहा करने वाली असीम परोपकार की प्रवृत्ति, उनके प्राणिमात्र के लिए उन्नत दयाभावे, उनका जगत् के उद्वारार्थ अनथक अविरल परिश्रम, आपत्तियों की उमड़ रही बाढ़ के सामने उनकी अदम्य अटल धैर्य, अपने उद्देश्य की सफलता में उनका निरपेक्ष विश्वास, ये सब उसी एक अनुभूति के परिणाम थे।
ऋषि ब्रह्म का ध्यान करते-करते ब्रह्ममय हो गये थे। उनसे ब्रह्म अलग न था। वे ब्रह्म में रम रहे थे और ब्रह्म उनमें । कहने को तो उन्होंने ब्रह्मानन्द को छोड़कर परोपकार का कार्य आरम्भ किया था, परन्तु ब्रह्मानन्द ने एक क्षण भी उनका पल्ला नहीं छोड़ा।
किसी भक्त के प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने स्वयं भी तो यही कहा था कि यह महान् कार्य मैं बिना किसी योग सिद्धि के नहीं कर रहा हूँ। ऋषि का योग की सिद्धि उनका आत्मदर्शन था।