मोदी की जापान यात्रा के सुखद झोंके
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जापान यात्रा के कई निहित अर्थ हैं। इस यात्रा से जहां इन दोनों देशों के व्यापारिक और सामरिक संबंधों में निकटता आएगी वहीं अपने युगों पुराने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक संबंधों को समझने और उन्हें समीक्षित करने का अवसर भी इनको मिलेगा। आर्थिक क्षेत्र में भारत को जहां लाभ मिलेगा, वहीं जापान को ‘डै्रगन’ के खतरे से सामना करने में भी सहायता मिलेगी।
वास्तव में मोदी की जापान यात्रा के महत्वपूर्ण अर्थ चीन के संदर्भ में ही अधिक हैं। प्रधानमंत्री ने चीन को बड़ी सावधानी से घेरने का प्रयत्न किया है। उन्होंने चीन के प्रति अपने दृष्टिकोण और उद्देश्य को अपने शपथ ग्रहण समारोह में अपने पड़ोसी देशों के शासनाध्यक्षों/राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित करके ही दे दिया था कि अब नेहरूवादी उस विदेश नीति के दिन लद गये हैं, जिसमें दूरस्थ देशों की ओर देखने को प्राथमिकता दी जाती थी और ‘दिये तले अंधेरा’ रखा जाता था। मोदी ने विदेश नीति के ‘दिये तले अंधेरे’ को समाप्त करने का बीड़ा उठाया है, और अपने पड़ोसियों को प्राथमिकता देनी आरंभ की है।
हम गलती पर थे, और यह गलती हम नेहरू-काल से ही करते आ रहे थे कि हम अमेरिकी ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, चीन आदि से तो मित्रता चाहते थे, पर नेपाल, भूटान, बर्मा, सिंगापुर, थाईलैंड आदि की उपेक्षा करते थे। जबकि नेपाल, भूटान और बर्मा ऐसे देश रहे हैं जिन्होंने आजादी के ऊषाकाल में भारत के साथ मिलने की भी इच्छा व्यक्त की थी। पर हमने इस प्रकार के मिलन के प्रति अरूचि और उपेक्षा भाव का प्रदर्शन किया। हम छद्म धर्मनिरपेक्षता के मार्ग पर चल पड़े और अति उदारवादी और अयथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाकर बड़े देशों की झोली में ‘सैकुलर-सैकुलर’का तोतागान करते-करते जा बैठे। जो बड़े देश स्वयं साम्प्रदायिक थे और जिनका अपना शासन साम्प्रदायिक नीतियों के आधार पर चलता था, धर्मनिरपेक्षता के सिद्घांत के लिए उन्हीं को हमने अपना आका मान लिया। फलस्वरूप ये लोग ही हमें राजनीति और विदेशनीति का पाठ पढ़ाने लगे। इसकी परिणति में ये हुई कि हमारा विदेश नीति का ‘तोता’ घायलावस्था में बड़े देशों की झोली में पड़ा सिसकता रहा। बहुत से अवसर ऐसे आए हैं जब ये सिद्घ हुआ कि हमारी विदेश नीति कहीं गिरवी रखी है।
मोदी ने अब इस ‘घायल तोते’ की निरीह अवस्था को गहराई से समझा है और बिना किसी ‘शोर शराबे’ के इस का उपचार आरंभ कर दिया है। इससे ‘नेहरूवादी विदेशनीति’ की चूलें हिल गयीं हैं, और हम देख रहे हैं कि हमारा ‘घायल तोता’ धीरे-धीरे आंखें खोलता आ रहा है। वह जैसे-जैसे आंखें खोल रहा है, वैसे-वैसे ही ‘दिये तले का अंधेरा’ भी दुम दबाकर भागता जा रहा है। हमने नेपाल और भूटान में प्रधानमंत्री मोदी को इस ‘तोते’ का उपचार करते देखा और अब जापान में जाकर एक सफल चिकित्सक के रूप में स्थापित होकर लौटे मोदी ने सिद्घ कर दिया है कि वह ‘तोते के लाईलाज रोग’ को पूर्णत: समझ गये हैं और इसे ठीक करने का प्रण भी उन्होंने ले लिया है।
चीन मोदी की इस सफलता पर हतप्रभ हैं। वह मोदी को रहस्यमयी नेता मानता है। वह नही समझ पा रहा है कि मोदी जो केवल एक छोटे से प्रांत के मुख्यमंत्री थे-एक विविधताओं से भरे देश के इतने सफल प्रधानमंत्री कैसे सिद्घ होते जा रहे हैं? वह राष्ट्रीय ही नही अपितु एक अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व बनते जा रहे हैं, और बिना कुछ कहे ही ‘डै्रगन’ को घेरने में सफलता प्राप्त करते जा रहे हैं। जैसे-जैसे भारत का ‘तोता ठीक’ होता जा रहा है, ‘चीनी तोते’ को बुखार चढ़ता जा रहा है। यदि मोदी की जापान की यात्रा के बाद के चीन पर नजर डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि उसे अपना तोता अस्पताल में भेजना पड़ गया है। वह हड़बड़ी में हैं, और वह समझ गया है कि तू जिस प्रकार अब तक पाकिस्तान को भारत के विरूद्घ उकसाकर अपना उल्लू सीधा करता आया था, अब वह काम चलने वाला नही है, क्योंकि भारत का ‘तोता’ ठीक होते-होते ही चीन के ‘उल्लू’ को दीखना बंद होता जा रहा है। कारण कि ‘उल्लू व्यापार’ सदा रात में ही होता है, दिन में तो उसे दीखता ही नही है।
चीन ने भारत की उस गलती का अब तक जी भर कर दुरूपयोग किया था, जिसमें वह बड़े देशों के साथ उठना बैठना अच्छा मानता था और अपने पड़ोसियों की उपेक्षा करता था। भारत की इसी भूल के कारण चीन तिब्बत को हड़प गया, नेपाल में अपना शिकंजा कस गया, पाक से कश्मीर का हिस्सा हड़प गया और हमारे अरूणांचल में भीतर तक घुस आया। हम अपनी रक्षा के लिए भी अपने ‘बड़े दोस्तों’ से गुहार लगाते रहे और पड़ोसियों को चीन से बचाने में सर्वथा असफल रहे। इससे जो पड़ोसी देश कभी हमारे साथ मिलने तक को उद्यत थे, वहीं हमसे पिंड छुड़ाने में ही अच्छाई समझने लगे। मोदी ने इन देशों की वास्तविक समस्या को समझा और अपने शपथ ग्रहण समारोह में इन्हें आमंत्रित कर बता दिया कि मेरी नजरों में तुम्हारा मूल्य अधिक है। जापान ने भारत के प्रधानमंत्री की आत्मिक पहल को समझा है, प्रधानमंत्री को बहुत कुछ देकर भेजा है। भारत और जापान की मीडिया में मोदी छाये रहे और चीन दिल थामकर इस सारे घटनाक्रम को माथे से पसीने पोंछते हुए बैठा देखता रहा। यदि भारत के भीतरी राजनीतिक परिदृश्य पर विचार करें, तो सब कुछ बदला सा लगता है, चारों ओर काम के प्रति लगन का माहौल है। चोर घूम तो रहे हैं, पर सत्ता के गलियारों में कोई दलाल नही मिल रहा है। नेहरू और नेहरू युग की मान्यताएं ढीली पड़ रही हैं और यह मान्यता एक मिथक सिद्घ होती जा रही है कि नेहरू ने विदेश नीति के क्षेत्र में जिस ‘मनुस्मृति’ का निर्माण कर दिया था वह कभी समाप्त होने वाली नही है। लोग बदलाव के सुखद झोकों का अनुभव कर रहे हैं, सारा विश्व चीन की छटपटाहट देख रहा है। शत्रु जब बिना मारे छटपटाने लगे तब समझो कि आपकी कूटनीति सफल है।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।