कविता – 40
कितने बलिदानी मौन रहकर
महाप्रयाण कर यहां से पार गए।
ना मोल लिया बलिदानों का
महाप्राण राष्ट्र पर वार गए ।।
वह सब मौन आहुति व्रती थे
और ‘ राष्ट्र प्रथम’ के उद्घोषक थे।
ना लिखी कभी कोई आत्मकथा
वे सच्चे राष्ट्रवाद के पोषक थे।।
बंधनों में जकड़ी भारत मां को
यहां आजाद कराने आए थे ।
इतिहास – पुरुष बन वे अमर हुए
कीर्त्ति के स्तम्भ बनाने आए थे।।
ना कभी तोल सके अपने बल को
ना मोल लिया निज गर्दन का ।
उन्हें शौक चढ़ा गर्दन देने का
शत्रु के मान का मर्दन करने का।।
ध्वज वाहिका धर्म की भारत माता,
और कही जाती सभ्यता की सारथी।
संस्कृति की रक्षा हेतु भारत मां ने
हर युग में जन्मे हैं अनेकों महारथी।।
है संसार ऋणी भारत माँ का और
कभी उऋण नहीं हो सकता ।।
भारत ने आजादी का सही अर्थ किया
जिसे शेष विश्व नहीं कर सकता।।
जब तक भी प्राण रहे तन में
दानव शत्रु को चुनौती देते रहे।
शत्रु सदा भय खाता रहा उनसे
‘राकेश’ आशीष देश का लेते रहे।।
यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’- से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत