अति प्राचीन भाष्यकार भी वेदों में इतिहास मानते हैं।
इस समय वेदों को छोडक़र शेष समस्त साहित्य में ब्राह्मण ग्रंथ और निरूक्त ही प्राचीन हंै। इन दोनों के देखने से विदित होता है कि अति प्राचीन काल में भी वेदों में इतिहास के मानने और न मानने वाले थे। गोपथ ब्राह्मण 2 / 6 / 12 में अथर्व. 6 20/ 127 के ‘राज्ञो विश्वजनीनस्य’ मंत्र पर लिखा है कि अथो खल्वाहु गाथा एवैता कारव्या राज्ञ: परिक्षित इति अर्थात कोई कहते हैं कि ये कारू शब्दवाली ऋचाएं गाथा हैं क्योंकि इनमें परिक्षित राजा का वर्णन है। इसी तरह से निरूक्त में भी अनेकों स्थानों में लिखा है कि ‘इत्यैतिहासिका:’ अर्थात यह इतिहास कारों का मत है। इससे ज्ञात होता है कि अति प्राचीन काल में भी वेदों में इतिहास के मानने वाले थे। किंतु ऐतिहासिक मत का खंडन करके सत्य अर्थ के प्रकाशित करने वालों की भी कमी नही थी। जैसा कि गोपथ की इसी कण्डिका के समग्र पाठ से विदित होता है।
प्रोफेसर मैकडोनेल ने लिखा है कि ‘ब्राह्मणग्रंथ मंत्रद्रष्टा ऋषियों से बहुत दिन बाद के हैं। ब्राह्मण के निर्माण काल में तो ऋषि प्रदर्शित बहुत सा अर्थ भी विस्मरण हो चुका था और ऋषियों के इतिहास का ज्ञान भी लुप्त हो रहा था लोकमान्य तिलक भी कहते हैं कि तैत्तिरीय संहिता और ब्राह्मणों के निर्माण काल में संहिताएं पुरातन हो चुकी थीं और उनका अर्थ समझना भी कठिन हो गया था। ठीक यही हाल हम निरूक्तकाल में भी देखते हैं। निरूक्तकाल के विषय में मिश्रबंधु लिखते हैं कि यास्क ने अपने पूर्व के सत्रह वैदिक टीकाकारों में से एक थे, लिखा है कि वैदिक अर्थसंबंधी विज्ञान वृथा है, क्योंकि वैदिक सूक्त एवं ऋचाएं अर्थहीन, गूढ़ और एक दूसरे से प्रतिकूल हैं। यास्क ने इसका उत्तर यही दिया है कि यदि अंधा सूर्य को न देख सके तो भुवनभास्कर का कोई दोष नही है। (भारत इतिहास पृष्ठ 172)
ब्राह्मणकाल और निरूक्तकाल दोनों में वेदों के ज्ञाता सभी लोग नही थे। उस समय भी कोई-कोई ही वेदों के सत्यार्थ तक पहुंचते थे। सूत्रकाल में तो बहुत ही बुरी दशा थी। दधिकाव्णो का अर्थ घोड़ा होता है। परंतु जिस प्रकार शन्नो देवी मंत्र को शनिश्चर के लिए लगा दिया गया है, उसी तरह सूत्रों में दघिकाव्णो मंत्र को दही के खाने में लगा दिया गया है।
वेद कहीं चले नही गये। वे आज भी सब के सामने हैं। आज भी तो लोग वेदों से इतिहास निकालते हैं और आज भी उनको उसी तरह उत्तर दिया जाता है, जिस तरह पूर्व में दिया जाता था। जितना पुरातन है उतना सभी सनातन नही है। वैदिक काल में भी अवैदिक थे, उस समय भी मूर्ख थे और उस समय भी दुष्टों की कमी न थी। अतएव उनके किये हुए अर्थ, जिनको मूल वेद ही अर्थहीन और गूढ प्रतीत होते थे, विश्वास योग्य नही हो सकते। उनके विषय में यास्काचार्य ने सत्य ही कहा है कि यदि उल्लू को दिन में न सूझे तो इसमें सूर्य का क्या अपराध है? इसी साल लाहौर में ओरिएण्टलिस्टों की सभा के प्रधान ने कहा है कि वेदों के अनेक गूढ शब्दों का अर्थ करना नितांत कठिन है, अतएव अर्थ करने में शीघ्रता न करना चाहिए। वेदों की गूढता स्वीकार न लेने पर यह आप ही आप स्वीकार करना पड़ता है कि जब पठन पाठन बंद हो जाता है तो पाठ्य विषय गूढ हो जाता है। ऐसे समय का अभिप्राय कुछ मूल्य नही रखता। इसका उतना ही मूल्य है जितना उस पुरूष की बात का हो सकता है, जो कहता है कि रेखागणित के साध्य बहुत गूढ हैं, इसलिए इन लकीरों का अर्थ हारामोनियम की डबल रीड है। हमने यहां तक वेदों में इतिहास प्रकरण की छानबीन की, और हर तरह से देखा कि वेदों में इतिहास की कुछ भी सामग्री नही है। अत: इतिहास के आधार पर निकाला हुआ वेदों का समय अशुद्घ है, भ्रांत है और बिल्कुल विश्वास योग्य नही है।
क्रमश: