आंसुओं की एक अविरल धारा भी होता है पिता
पूज्य पिताश्री महाशय राजेन्द्र सिंह आर्य जी की पुण्यतिथि: 13 सितंबर पर विशेष
पिता एक अहसास है-पिता हमारी बुलंदियों की नींव रखता है-‘‘अपने सपनों में, और उसे साक्षात करता है-अपने संघर्ष से, अपने पुरूषार्थ से, अपने उद्यम से, अपने त्याग से और अपनी तपस्या से। हम जब-जब अपने जीवन पथ पर कहीं बुलंदियों को छूते हैं या कहीं सम्मानित होते हैं, तो यही कारण है कि हमारे आसपास पिता की एक अदृश्य छाया अपने आवरण में हमें घेर लेती है। वह अदृश्य छाया हजारों की भीड़ में केवल उसी को दिखती है-जो सम्मानित होता है, वह अहसास कराती है कि मैं अब भी तेरे साथ हूं। हम सम्मान पाते हैं, तो पिता अपनी उपस्थिति का अहसास कराता है। पिता रहे या न रहे पर यह अहसास सदा रहता है-हमारे आसपास, हमारे चारों ओर….और हमारी जीवन यात्रा के पूर्ण विराम तक। पूज्य पिताश्री महाशय राजेन्द्र सिंह आर्य के उस अहसास को नमन।
पिता एक रोशनी है: ऐसी रोशनी जो हमारे जीवन को रोशन करती है। हमारे दुर्गुणों, दुव्र्यसनों और दु:खों को दूर करने वाली ईश्वर की प्रेरक शक्ति-सविता पिता ही है, जो हमारे भविष्य के प्रति सदा सजग, सावधान और सचेत रहता है। अपने आप कांटों में रहकर हमारी रक्षा करता है और हमारे लिए एक सुंदर सुरक्षित और उज्ज्वल भविष्य बनाने के लिए प्रयासरत रहता है। संसार से चले जाने पर भी हमारे हृदय-मस्तिष्क के रोशनदान से झांक-झांककर सदा देखता रहता है कि कहीं अंधेरा तो नही व्याप्त गया है? जब कभी हम किसी प्रकार के अंधेरे में फंसते हैं, तब पिता उस रोशनदान से ऊंची आवाज में बोलता है- ‘आयुष्मान, विद्यावान, तेजस्वी, खुश रहो-बेटा, आगे बढ़ो। रूको मत।’ लाखों की भीड़ भरी इस दुनिया में ये शब्द हर पिता के हर पुत्र को जीवन भर सुनाई देते हैं और वह एक दिन घोर अंधकार को चीरकर रास्ता बनाने में सफल हो जाता है। उस रोशनी को लख-लख वंदन।
पिता एक औषधि है :-हम जीवन में चोट खाते हैं, लोग हमें आहत करते हैं, कष्ट पहुंचाते हैं, पिता उन चोटों से, उन आघातों से और उन कष्टों से जीवन भर हमारी रक्षा करता है। कभी अपने शब्दों से तो कभी प्रोत्साहन से और कभी मार्गदर्शन से हमारे चोटिल हृदय को मरहम लगाता है, हमें नई ऊर्जा देता है और जीवन मार्ग पर आगे बढऩे के लिए हमारा जीवन रक्षक बन जाता है, हमारे लिए औषधि बन जाता है। हमारे कल्याण के लिए, लोगों के व्यंग्य बाण सहता है, पर हमें किन्हीं कांटों में उलझने के लिए प्रेरित नही करता। झूठे अहम में नही फंसने देता पिता, बल्कि अहंकार और स्वाभिमान के बीच विवेकपूर्ण अंतर करके बताता है कि कहां फंसना है और कहां से किसी की बात को अनसुनी करके निकल जाना। क्योंकि वह जानता है कि हमारे लिए प्रगति का मार्ग कौन सा है? इसलिए सदा प्रगतिशील बने रहने के लिए हमें प्रेरित करता है। पिता के जाने के पश्चात पिता का यह स्वरूप जीवन भर हमारे काम आता है। हम सोचते हैं कि पिताश्री यदि अमुक स्थान पर, अमुक व्यक्ति से या परिस्थिति से हमारी रक्षा नही करते तो क्या होता? निश्चित रूप से प्रगति दुर्गति में परिवर्तित हो जाती। तब हमें ज्ञात होता है कि पिता की छत्रछाया एक दिव्य सोम औषधि है। हे पिता! आपकी उस दिव्य सोम औषधि का हृदय से अभिनंदन।
पिता एक मंद सुगंध समीर है : प्रात: कालीन मंद सुगंध समीर भला किसके लिए स्वास्थ्य वर्धक नही होती। प्रात:काल उठने में कष्ट होता है, पर प्रात: काल की मंद सुगंध समीर तो सभी के लिए समान रूप से लाभकारी होती है। पिता अपनी संपत्ति जोड़ता है, और बिना ‘स्टांप डयूटी’ अदा कराये सारी संपत्ति का हमें अधिकारी बनाता जाता है। हम आलस्य, प्रमाद और असावधानीवश चाहे पिता को न समझ सकें पर पिता हमें सदा समझाकर चलता है। हमारे लिए उसके हृदय में सदा मंद, सुगंध समीर बहती रहती है, जो हमारे लिए हर प्रकार से लाभकारी होती है। वह हमारे उठने से पहले हमारे लिए ईश्वर से प्रात:काल में ही प्रार्थना कर लेता है। हमारे आयुष्य, वैभव, स्वास्थ्य और सुखों का सच्चा शुभचिंतक होता है-पिता। इसीलिए वह पृथ्वी पर ईश्वर (परमपिता) का ही दूसरा रूप होता है। साक्षात ईश्वर होता है। वह हिरण्यगर्भ: है और उसके मानस में सदा ही हमारा उज्ज्वल भविष्य संवरता, सुधरता और संभलता रहता है। ऐसे पुण्य हृदयी पूज्य पिता को सादर नमस्कार।
पिता होता है एक कुशल शिल्पकार : पिता का एक स्वरूप ये भी है कि वह हमारा कुशल शिल्पकार होता है। कुम्हार जैसे भीतर हाथ लगाकर बाहर से कुम्भ पर हलकी-हलकी चोट मारते मारते उसे सही स्वरूप प्रदान कर देता है, उसी प्रकार पिता भी कभी कभी वाणी से कठोर होकर भी हृदय से सरल होता है। वह हमें तभी डांटता है, जब हम अपने उद्देश्य से भटक रहे होते हैं, या कहीं अमर्यादित आचरण कर रहे होते हैं। उसकी वह फटकार व्यक्ति को धीरे-धीरे सोने से कुंदन बनाती जाती है, उसका मूल्य बढ़ता जाता है, और समाज में हमारा किसी भी क्षेत्र में जितना ही अधिक मूल्य बढ़ता है पिता का सीना उतना ही गर्व से फूलता है। मानो, उसका परिश्रम रंग ला रहा है, और वह अपने लक्ष्य में सफल हो रहा है।
हारकर भी जीतता है पिता : बचपन में बच्चे से बात-बात में हार जाना और स्वयं को हराया हुआ घोषित कर बच्चे का मनोबल बढ़ाते-बढ़ाते, अच्छे-अच्छे शूरमाओं से भिड़ाने की प्राण ऊर्जा हमें पिता से ही मिलती है। ऐसा नही है कि पिता हमसे बचपन में हारकर ही प्रसन्न होता है, बल्कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में कभी भी और कहीं भी यदि हम पिता से कुछ बेहतर कर पाने में समर्थ होते हैं तो पिता ही वह व्यक्ति होता है, जो स्वयं हारकर भी हमारी जीत में अपनी जीत समझता है, और हमें शुद्घ हृदय से आशीर्वाद भी प्रदान करता है। संसार के किसी अन्य व्यक्ति के हृदय में हमारी सफलता पर साधुवाद देते समय कोई अन्यथा भाव हो सकता है, परंतु पिता के हृदय में ऐसा नही होता। क्योंकि वह उस दिन और हमारी सफलता के उन क्षणों में इतना प्रफुल्लित होता है कि जीत चाहे हमारी हुई हो, पर उसे वह मानता अपनी है। हमारे रूप में वह समझता है कि मैं जीता हूं। उसका यह भाव ही उसे आकाश से भी ऊंचा स्थान दिलाता है।
आंसुओं की एक अविरल धारा भी होता है पिता : जब हम कष्ट में होते हैं तो पिता अपने पौरूष (मर्दानगी) के कारण चाहे अपने आंसुओं को न दिखाए, पर ममता में वह माता से भी कई बार बढक़र होता है। उसकी आंखों में आंसुओं की अविरल धारा बह चलती है। जिस हृदय में हमारे भविष्य की योजनाओं की त्रिवेणी बहती रहती हैं, पिता के उसी हृदय में भावनाओं का ज्वार आता है और वह कभी सार्वजनिक रूप से तो कभी एकांत में अपने आंसू पोंछ लेता है। संतान के कष्ट में रात-रात भर जागकर ईश्वर से प्रार्थना करता है और अकेले में रोता भी है, ईश्वर मेरे पुत्र को यथाशीघ्र स्वस्थ करो, मेरी पुत्री को और अधिक कष्ट मत दो। मेरे बापू ! तेरे इस रूप को सलाम।
हम चूक कर जाते हैं पिता को समझने में: हमारे निर्माण में माता का महत्वपूर्ण योगदान है, परंतु पिता का योगदान भी कम नही होता है। पिता की वाणी की कठोरता के नीचे छिपे पिता के हृदय को संतान समझ नही पाती, और हम देखते हैं कि नासमझी के कारण ही परिवारों में तनाव और कलह का वातावरण बना रहता है। पिता भी कई बार अपनी व्यस्तताओं के कारण तो कई बार अपने को मर्द दिखाने के लिए हृदय के अपने सुकोमल भावों और उत्कृष्ट योजनाओं को हमारे साथ बांट नही पाता है, जिससे हमारे परिवारों में पिता और संतान के मध्य एक अनावश्यक दूरी बनी रहती है। वास्तव में भौतिक पिता हमें हमारे परमपिता से जोडऩे की एक कड़ी है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि गुरू ईश्वर के विषय में हमें ज्ञान कराता है, तो लोग गुरू को ईश्वर से प्रथम वंदनीय मानने की भूल करते हैं, बिना यह ध्यान दिये कि ईश्वर से मिलाने का प्रथम लक्ष्य तो हमारे लिए पिता केे हृदय में बना था, इसलिए उसने ही गुरू से मिलाया, तो वह और भी अधिक वंदनीय है, परंतु पिता और गुरू से प्रथम वंदनीय ईश्वर ही है, क्योंकि वह उन दोनों का भी इष्ट देव है, पिता का भी पिता है और गुरू का भी गुरू है। हे पिते! तेरे इस उपकार का हृदय से आभार।
आज पूज्य पिताश्री महाशय राजेन्द्र सिंह आर्य जी की 23वीं पुण्यतिथि है। उनके व्यक्तित्व को सामने रखकर पिता को मैं जितना समझ पाया हूं उतना इस आलेख में लिख दिया है। उस मीठे से और दर्द भरे अहसास को जितना ही स्मरण करता हूं उतना ही अधिक ‘पिता’ के प्रति सम्मान भाव बढ़ता जाता है….आंसुओं की विनम्र श्रद्घांजलि।
मेरे जीवन के उस अहसास को उस रोशनी को, उस औषधि को, उस मंद सुगंध समीर को, उस कुशल शिल्पकार को, और आंसुओं की उस अविरलधारा को समस्त ‘उगता भारत’ परिवार की भावपूर्ण श्रद्घांजलि।