महर्षि दयानंद सरस्वती के जीवन की एक घटना है। महर्षि हरिद्वार के कुम्भ मेले में एक स्थान पर टिके हुए थे। उनके पास कुछ लोग बैठे थे, जिनमें से दो चार मुसलमान भी थे। उन लोगों का परस्पर वार्तालाप हो रहा था। तब एक मुसलमान ने किसी हिंदू से कहा कि तुम मूर्तिपूजक हो। इससे पूर्व कि वह हिंदू उस मुस्लिम की इस टिप्पणी पर कोई प्रतिक्रिया करता, स्वामी जी बीच में ही बोल पड़े-”यह छोटा मूत्र्तिपूजक है, परंतु तुम बड़े मूत्र्तिपूजक हो, जो कोई तूर व श्याम पत्थर (संगेअस्वद) को पूजते हो। तुम ताजियों को पूजते व कबरों से मन्नतें मांगते हो।”
महर्षि के तर्क के सामने मुस्लिम प्रश्नकर्ता की बोलती बंद हो गयी।
जब मुस्लिम आक्रांता इस देश में आये तो वे हिंदुओं को काफिर और मूत्र्ति पूजक मानकर या तो उनका विनाश कर रहे थे, या उनका धर्मांतरण करने के उपाय खोज रहे थे। कहने का अभिप्राय है कि बड़ा मूत्र्तिपूजक छोटे मूत्र्तिपूजक को मिटा देना चाहता था, और छोटा मूत्र्तिपूजक यह नही समझ पा रहा था कि अंतत: उसका दोष क्या है? क्योंकि वह ये देख रहा था कि बड़ा मूत्र्तिपूजक तो मृतकों की कब्रों तक से मन्नतें मांग रहा था। जबकि छोटा मूत्र्तिपूजक हर कंकर में शंकर को देख रहा था। इस कंकर में शंकर देखने की प्रवृत्ति के परिणाम चाहे जो रहे, परंतु यह सत्य है कि छोटा मूत्र्तिपूजक बड़े मूत्र्तिपूजक को अपनी धार्मिक मान्यताओं और आस्थाओं पर कुठाराघात करने देने को उद्यत नही था, कारण कि वह अपने धर्म को और अपनी धार्मिक मान्यताओं को बड़े मूत्र्तिपूजक के धर्म और उसकी धार्मिक मान्यताओं की अपेक्षा अधिक तार्किक और उचित मान्यता था। छोटे मूत्र्तिपूजक की यही सोच उसे बलिदानों के लिए प्रेरित कर रही थी।
योगी श्री अरविंद कहते हैं-
योगी श्री अरविंद ने इस छोटे मूत्र्तिपूजक के धर्म के विषय में कहा है-”जिसे हम हिंदू धर्म कहते हैं, वह वास्तव में सनातन धर्म है, क्योंकि वह सार्वभौम धर्म है, जो अन्य सभी को अपने आप में समाहित कर लेता है। यदि कोई धर्म सार्वभौमिक नही है तो वह सनातन नही हो सकता। एक संकीर्ण धर्म, एक सीमित समय और सीमित उद्देश्य के लिए ही जीवित रह सकता है। सनातन धर्म ही एक ऐसा धर्म है, जो विज्ञान के आविष्कारों और दर्शन के चिंतनों का पूर्वानुमान करके और उन्हेें आत्मसात करके भौतिकवाद के ऊपर विजय प्राप्त कर सकता है। वह अकेला एक ऐसा धर्म है….जो सभी धर्मों द्वारा स्वीकृत इस सत्य पर प्रतिक्षण बल देता है कि ईश्वर सभी मनुष्यों और चराचर वस्तुओं में विद्यमान है, उसी में हम चलते, फिरते और वास करते हैं।”
सल्तनत काल में अपने इस सत्य सनातन वैदिक धर्म पर कोई भी हिंदू आंच नही आने देना चाहता था। हिंदू के इस दुस्साहस के विरूद्घ इस्लाम के आक्रांताओं ने बड़े-बड़े नरसंहार किये, परंतु यह केवल हिंदू (आर्य) ही था जिसने उन नरसंहारों को भी एक विशाल राष्ट्र यज्ञ मान लिया और उसमें निज प्राणों की आहुति देकर भी स्वयं को सौभाग्यशाली ही समझा। वह सैकड़ों वर्ष तक इस यज्ञ में निज प्राणों की आहुति देता रहा और बोलता रहा-इदम् राष्ट्राय इदन्नमम।
ऐसे ही सत्य सनातन वैदिक हिंदू धर्म की प्राणशक्ति से टकराता हुआ उलुग खान (बलबन) दलकी मलकी से सामना करने का साहस खो बैठा हो तो आश्चर्य किस बात का है?
रणथम्भौर का गौरव
हमने पूर्व अध्यायों में हिंदू वीर वाग्भट चौहान वंशीय का उल्लेख करते हुए बताया था कि उस साहसी चौहान ने किस प्रकार रणथम्भौर के किले का घेरा डाल दिया था और वह किस प्रकार अपने इस पैत्रक दुर्ग पर अधिकार करने में सफल हो गया था। तब उस हिंदू वीर चौहान वंशीय वाग्भट को पाठ पढ़ाने के लिए रजिया ने दिल्ली से अपने विश्वसनीय कुतुबुद्दीन हुसैन गौरी को रणथम्भौर के लिए भेजा था। परंतु गोरी वाग्भट से पराजित होकर लौट आया था। तब से वाग्भट के परिवार का या वंशजों का निष्कंटक शासन रणथम्भौर पर चल रहा था।
‘हमीर महाकाव्य’ के अनुसार वाग्भट ने रणथम्भौर पर 12 वर्ष तक शासन किया था, उसके पश्चात उसका पुत्र जैत्र सिंह शासक बना, जिसने 1282 ई तक शासन किया। (हमीर महाकाव्य वर्ग 4 श्लोक 56, 131) परंतु मिनहाज 1249 ई. में रणथम्भौर के शासक का नाम नाहरदेव बताता है। बहुत संभव है कि यह नाहरदेव जैत्रसिंह का ही उपनाम था।
इसी नाहर देव को इस्लामिक झण्डे के नीचे लाने के लिए 1249 ई. में उलुग खान ने रणथम्भौर पर आक्रमण करने की योजना बनाई और एक विशाल सेना लेकर उसने रणथम्भौर की ओर प्रस्थान किया। इतिहासकारों का मानना है कि यह रणथम्भौर का राज्य उस समय के भारतीय राज्यों में सर्वाधिक विस्तृत था।
उलुग खान के आक्रमण की सूचना जब रणथम्भौर की देशभक्त जनता और वहां के शासक को मिली तो जनता ने अपने शासक के साथ खड़ा होने का और राजा ने अपना राजधर्म निभाने का परम्परागत वीरोचित प्रण ले लिया। पूरा क्षेत्र वीरता के गानों में डूब गया, अपनी विजय, वीरता और वैभव के लिए और उनके सम्मान को सुरक्षित रखने के लिए युद्घ स्तर पर तैयारियां होने लगीं। मिनहाज हमें बताता है कि अपने चौहान शासक के नेतृत्व में हिंदू लोगों ने मुसलमानों का सफलता पूर्वक प्रतिरोध किया। हमें पता चलता है कि 27 मार्च 1249 ई. को मुस्लिम सेना का एक बहादुर सेनानायक मलिक बहाउद्दीन ऐबक ख्वाजा भी मारा गया। ख्वाजा की मृत्यु का प्रभाव मुस्लिम सेना पर प्रतिकूल ही पड़ा होगा। क्योंकि (रैवर्टी खण्ड 1, पृष्ठ 684, 685) दो माह के अथक प्रयासों के उपरांत भी बलबन (उलुग खान) इस रणथम्भौर के दुर्ग को जीत नही पाया था। सारी मुस्लिम सेना को निराशा हाथ लगी थी और उसे रणथम्भौर की जनता को लूटने से ही जो धन संपत्ति हाथ लगी उसी से संतोष करना पड़ गया था। हमें उपरोक्त संदर्भ से ज्ञात होता है कि उलुग खान को अपने रणथम्भौर अभियान में पूर्णत: असफलता ही हाथ लगी थी।
स्वतंत्रता लेती है परीक्षा
स्वतंत्रता की देवी भी व्यक्ति से भांति-भांति की परीक्षा लेती हैं। कभी उसके धैर्य का परीक्षण करती है, तो कभी उसकी वीरता का, कभी उद्यमी स्वभाव का तो कभी उसकी विवेकशीलता का, कभी उसकी देशभक्ति का तो कभी उसकी धर्म के प्रति आस्था था। इनमें से जहां कहीं भी थोड़ी सी न्यूनता रह जाती है, वहीं से शत्रु घात लगाकर आपके दुर्ग के भीतर प्रवेश करने में सफलता प्राप्त कर लेता है। इसलिए स्वतंत्रता का पथ बड़ा कंटकाकीर्ण है। हर पग पर आपके धैर्य, आपके साहस और आपके विवेक की परीक्षा है-इस मार्ग में। किसी कवि ने संभवत: ऐसी ही परिस्थितियों में फंसे किसी देशभक्त को सावधान करते हुए लिख दिया-
बड़ी ही कठिन है डगर पनघट की,
नाहरदेव की परीक्षा
प्रथम परीक्षा में चौहान वंशी नाहरदेव (जैत्रसिंह) पूर्णत: सफल रहा। उसने बलबन को रणथम्भौर की एक इंच भूमि पर भी नियंत्रण स्थापित नही करने दिया। खीझा हुआ निराश बलबन दिल्ली लौट गया। परंतु उसे अपनी पराजय का भूत सपने में भी आकर डराता रहा। इसलिए वह इस भूत से मुक्त होना चाहता था और इसके लिए आवश्यक था कि रणथम्भौर के मस्तक को झुकाकर उसे दिल्ली की अवैध इस्लामी सल्तनत के पांव तले ले आना। उलुग खान को भारत की ‘काफिर’ जनता की कठिनाईयों से कुछ लेना देना नही था, उसे भारत की सत्ता और शक्ति की चाह थी, जिसे वह अपने सुल्तान के ताज की छत्रछाया में लाकर डालना उचित मानता था। क्योंकि उसकी दृढ़ मान्यता थी कि दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान के पश्चात उसे ही दिल्ली की सल्तनत का उपभोग करना है। इसलिए वह अपने सुल्तान के लिए ररणथम्भौर को प्राप्त न कर अपने लिए प्राप्त करना चाहता था।
उधर राजा जैत्रसिंह नाहरदेव भी यह जानते थे कि शत्रु को उसकी असफलता झुंझलाहट उत्पन्न कराएगी और झुंझलाहट किसी समस्या का एक समाधान नही होता, अपितु झुंझलाहट से तो एक नई समस्या का जन्म होता है, जो किसी कुण्ठा का परिणाम होती है। इसलिए रणथम्भौर अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए पूर्णत: सचेष्ट होकर आने वाली समस्या का सामना करने की प्रतीक्षा करने लगा।
कदाचित हमारी नीतियों में दोष भी यही था कि हम समस्या के आने की प्रतीक्षा करते थे कि वह जब घर के सामने आएगी तो उस समय उससे निकट लिया जाएगा। हमने समस्या को घर तक आने देने की कई बार प्रतीक्षा की, उसे उसी के घर में जाकर घेरने या उसका समूलोच्छेदन करने का प्रयास नही किया। हमने वीरता के साथ शत्रु का सामना किया। परंतु हारे हुए शत्रु को उसके घर पहुंचने पर जाकर घेरकर मारने का प्रयास नही किया। इसमें हमारी नैतिक मान्यताओं की बाध्यता भी थी और हमारे युद्घीय नियमों की बाध्यता भी थी।
उलुग खान बलबन उठते बैठते सोते जागते रणथम्भौर को पाने की योजना बनाता रहता था। वह बुदबुदाता और कोई उसे सुनता तो मानो लगता था कि वह ‘रणथम्भौर’ कह रहा था।
दूसरा रणथम्भौर अभियान भी रहा असफल
रणथम्भौर उसके लिए भय और प्रतिष्ठा का ऐसा सम्मिश्रण बन गया था कि जिसे वह एक साथ कड़वा और मीठा दोनों रूपों में या स्वादों में अनुभव कर रहा था। इसलिए उसकी योजनाओं में अब रणथम्भौर ही समाया हुआ था। अंत में उसने अगस्त, सितंबर 1253 ई. रणथम्भौर पर आक्रमण कर ही दिया। नाहरदेव ने इस बार शत्रु का सामना दुर्ग से बाहर निकल कर दुर्ग की तलहटी में किया। घनघोर युद्घ हुआ। हिंदू वीर पराजित होने का नाम नही ले रहे थे। तुर्क सेना के छक्के छूट रहे थे। राजा नाहरदेव ने सायंकाल तक सेना के साथ युद्घ क्षेत्र में डटे रहकर शत्रु को ‘छठी का दूध’ स्मरण करा दिया। इसके पश्चात राजा नाहरदेव ने रात्रि में अपनी युद्घनीति पर पुनर्विचार किया और निर्णय लिया कि युद्घ के खुले क्षेत्र में सेना को उतारने से या भेजने से जनहानि की अधिक संभावना है। इसलिए अगले दिन से किले के भीतर से ही शत्रु सेना का प्रतिरोध करने का निर्णय लिया गया। हमें (रैवर्टी खण्ड 2, पृष्ठ 828 से) ज्ञात होता है कि रणथम्भौर को लेने का उलुग खान का यह दूसरा प्रयास भी असफल ही रहा। कहा जाता है कि उलुग खान इस असफलता से इतना निराश हुआ कि वह बूंदी तथा मेवाड़ अभियान को भी बीच में ही तिलांजलि देकर नागौर लौटने के लिए बाध्य हो गया।
रणथम्भौर में रहकर उलुग खान की सेना ने जनसाधारण के साथ जो लूट-पाट मचाई उसी से उसे संतोष करना पड़ा और रणथम्भौर प्राप्ति का उसका सपना पुन: चकनाचूर हो गया।
मुस्लिम लेखक जहां अपने नायक को असफल होता देखते हैं वहां उसकी असफलता का सीधा वर्णन न करते हुए, शब्दों को चबाने का प्रयास करते हैं, या ऐसी भ्रमोत्पादक शब्दावली का प्रयोग करते हैं जिससे असफलता का वर्णन भी हो जाए और पाठक को पता भी न चले। जैसे रणथम्भौर अभियान को लेकर मिनहाज-उस-सिराज ने भी किया है कि उसने जब उलुग खां को पीछे हटते देखा तो सीधे शब्दों में हिंदू राजा की जीत का उल्लेख न करते हुए यह कहकर काम चलाया है कि उलुग खां पर्याप्त धनराशि लेकर वहां से लौट आया। जबकि उसे यह भी स्पष्ट करना चाहिए था कि रणथम्भौर के दुर्ग पर नियंत्रण स्थापित करके लौटा या बिना नियंत्रण के ही लौटा? यदि नियंत्रण स्थापित करके लौटा तो वहां के राजा का क्या हुआ और दुर्ग का दायित्व किसे सौंपा?
अत: इतिहास के मर्मज्ञ विद्वानों ने मिनहाज जैसे लेखकों की चुप्पी का अर्थ उसके नायक की निर्णायक हार के रूप में लिया है। रैवर्टी की उपरोक्त साक्षी जब यह स्पष्ट करती है कि रणथम्भौर की असफलता के कारण उलुग खां को अपना बूंदी और मेवाड़ अभियान मध्य में ही छोडऩा पड़ गया था, तो उससे और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है कि उलुग खां को रणथम्भौर की असफलता ने निराशा और हताशा के गहन गहवर में डाल दिया था।
एक अंतिम प्रयास
इसके पश्चात सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद ने अपने शासन काल में अंतिम बार 1259ई. में रणथम्भौर को जीतने का असफल प्रयास किया इस बार अंतर केवल इतना था कि सेनापति उलुग खां न होकर मलेकुन नायब ऐबक था। इसका अभिप्राय है कि उलुग खां के मस्तिष्क में यह धारणा दृढ़ता के साथ बैठ गयी थी कि अब रणथम्भौर को पुन: प्राप्त करना सर्वथा असंभव है। फलस्वरूप उसने रणथम्भौर विजय के तीसरे अभियान का नेतृत्व न करना ही उचित समझा। हिंदूवीरों का प्रतिरोध और प्रतिशोध भाव कैसा होता है, इसे उलुग खान भली भांति समझ गया था और अब वह उसे बार-बार देखने की मूर्खता नही करना चाहता था। इसलिए उलुग खां ने बड़ी सहजता से रणथम्भौर अभियान का नेतृत्व संभालने से इस बार स्वयं को बचा लिया। यद्यपि सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद भी जानता था कि हिन्दू प्रतिरोध का सामना करना सरल नही है, परंतु क्योंकि वह कभी स्वयं रणथम्भौर जाकर नही लड़ा था, इसलिए उसने अपने एक अन्य नायब ऐबक के नेतृत्व में सेना भेजकर रणथम्भौर विजय की योजना को अंतिम रूप दिया।
नायब ऐबक युद्घ के लिए चला गया। उसके जाने का उल्लेख तो मुस्लिम विद्वान बड़ी वीरता के साथ करते हैं, परंतु उसके असफल होकर लौटने को मिनहाज जैसे लेखक पुन: चुप्पी के साथ चबाने का प्रयास करते हैं।
रणथम्भौर बना रहा अजेय
इसका अभिप्राय यही है कि रणथम्भौर विजय का यह तीसरा अभियान भी असफल ही रहा था। इसकी असफलता का स्पष्ट प्रमाण ये भी है कि इस प्रयास के पश्चात बलबन के शासन काल (1266-1286 ई.) में भी कभी रणथम्भौर प्राप्ति का प्रयास गुलामवंश के किसी शासक या सेनापति ने नही किया। जैत्रसिंह जैसे हिंदू राजा जिस प्रकार अपनी अस्मिता को और भारतीय धर्म की पवित्रता को बचाये रखने के लिए प्रयास करते रहे और जीवन भर शत्रु से युद्घरत रहे, उनके इन वीरोचित कृत्यों का वंदन करने के लिए देश में राष्ट्रमंदिरों के निर्माण की आवश्यकता पर बल देते हुए स्वामी श्रद्घानंद जी ने अपनी पुस्तक ‘हिंदू संगठन’ में बहुत सुंदर बात कही है। वह लिखते हैं:-
”मेरा सर्वप्रथम सुझाव यह है कि प्रत्येक नगर और शहर में एक हिंदू राष्ट्र मंदिर की स्थापना की जानी चाहिए, जिसमें 25 हजार व्यक्ति एक साथ समा सकें, और उन स्थानों पर प्रतिदिन भगवदगीता, उपनिषद, रामायण, और महाभारत की कथा होनी चाहिए। इन राष्ट्र मंदिरों का प्रबंध स्थानीय सभा के हाथ में रहना चाहिए और वह इन स्थानों के भीतर अखाड़े, कुश्ती गद का आदि खेलों का भी प्रबंध करे, जबकि हिंदुओं के विभिन्न साम्प्रदायिक मंदिरों में उनके इष्ट देवताओं की पूजा होती है। इन उदार हिंदू मंदिरों में तीन मातृशक्तियों की पूजा का प्रबंध होना चाहिए, और वे हैं (1) गोमाता (2) सरस्वती माता और (3) भूमि माता। वहां कुछ जीवित गौएं रखी जाएं, जो कि हमारी समृद्घि की द्योतक हैं, उस मंदिर के प्रमुख द्वार पर गायत्री मंत्र लिखा जाए, जो कि प्रत्येक हिंदू को उसके कत्र्तव्य का स्मरण कराएगा तथा अज्ञान को दूर करने का संदेश देगा और उस मंदिर के बहुत ही प्रमुख स्थान पर भारत माता का एक सजीव नक्शा बनाना चाहिए, इस नक्शे में उसकी विशेषताओं को विभिन्न रंगों द्वारा प्रदर्शित किया जाए और प्रत्येक बच्चा मातृभूमि के सम्मुख खड़ा होकर के उसे नमस्कार करे, और यह प्रतिज्ञा दोहराए कि वह अपनी मातृभूमि को उसी प्राचीन स्थान पर पहुंचाने के लिए प्राणों तक की बाजी लगा देगा, जिस स्थान से उसका पतन हुआ था।”
हमारी मान्यता है कि स्वामी जी महाराज के इस प्रकार के चिंतन को यथार्थ रूप में लाने के लिए आज भी कार्य करने की आवश्यकता है। क्योंकि ‘हिंदू राष्ट्र मंदिर’ के माध्यम से जब तक नाहरदेव जैसे राष्ट्र आराधक वीर पुरूषों की वीरता से, आने वाली संतति को भली प्रकार अवगत नही कराया जाएगा, तब तक उनकी वीर परंपरा के अनुकूल राष्ट्र निर्माण का संकल्प पूर्ण होना असंभव है। इसलिए संपूर्ण भारत भूमि को एक पावन मंदिर बनाने के लिए हिंदू राष्ट्र मंदिर निर्माण के लिए हमें एक साथ संकल्पित हो उठना चाहिए।
यदि यह सपना कभी साकार हुआ तो उसमें रणथम्भौर और उसके इन हिंदूवीर शासकों का भव्य चित्र कहीं न कहीं अवश्य उकेरा जाएगा। जिन्होंने तीन तीन युद्घों के पश्चात भी मातृभूमि का एक इंच भाग भी शत्रु के अधिकार में नही जाने दिया था।
मुख्य संपादक, उगता भारत