क्षणे रुष्टा, क्षणे तुष्टा की संस्कृत उक्ति की तर्ज पर ही आजकल आदमी कभी भी खुश हो सकता है, कभी भी नाखुश। वह जमाना चला गया जब इंसान को प्रसन्न रहने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता था, वह अपने कर्मों और पवित्र उद्देश्यों में लगा रहने के कारण सदैव मुदित यानि की प्रसन्न रहा करता था लेकिन अप्रसन्न रहने के पीछे जरूर कोई न कोई कारण हुआ करता था और आम तौर पर इंसान छोटी-मोटी बातों में अपने आपको अप्रसन्नता के भावों से दूर ही रखता था। बेवजह नाखुश रहने, नाक पर गुस्सा बनाए रखने और मुँह चढ़ाये रखने का फितूर पुराने जमाने के आम लोगों में नहीं हुआ करता था, खास लोगों में गुस्से का आना और न आना उनकी तासीर का हिस्सा हमेशा रहा ही है।
दुनिया में प्रसन्न वही रह सकता है जो मन-मस्तिष्क दोनों से पाक-साफ हो और जमाने भर की मैली हवाओं से अपने आपको बचाता हुआ चलता है। प्रसन्नता व्यक्ति के मस्तिष्क और हृदय का वह पहला संकेत है जिससे हर किसी इंसान के बारे में अच्छी तरह जाना जा सकता है कि कौन कितने पानी में है।
कुछ लोग सदैव मस्त और मुस्कराते रहते हैं, कुछ लोगों को मुस्काराना पड़ता है तब भी जोर आता है। और कुछ लोग ऎसे हैं जिनके मुस्कराते ही लग जाता है कि कुटिलता का कोई नया अध्याय खुलने ही वाला है। कुछ लोग ऎसे हैं जिनके चेहरों पर शायद ही किसी ने मुस्कान तैरती देखी हो, शायद घर वालों और सहचरों-सहधर्मियों तक ने भी नहीं।
खूब सारे ऎसे हैं जो मुस्करा लें तो लोगों को महान आश्चर्य ही होने लगता है। मुस्कान भी दो तरह की है। जो जितना अधिक बहुरुपिया, नचैया और बिकैया होता है वह बाजार मेंं चल निकलता है। वह कभी भी नाटकीय मुस्कान ओढ़ कर कहीं भी, कुछ भी कर गुजर सकता है। पर उनकी यह मुस्कारहट ज्यादा समय तक नहीं रहती क्योंकि ओढ़ी हुई मुस्कान को शरीर तथा मन अधिक देर तक ढोये नहीं रखते।
मुस्कराहट और मुदिता भीतरी आनंद के स्रोत से जुड़ी हुई है। यह मुस्कान शरीरस्थ आनंद और हृदय की प्रसन्नता का शोर्ट कट है जो होंठों से प्रतिबिम्बित होता है। अक्सर हमारा मूड़ तभी खराब होता है जब हमारा मनचाहा कोई काम न हो, अनचाहे काम होने लगें, जिन्हें हम चाहते हैं वे हमारी चाहत को ठुकराने लगें और जिन लोगों को कभी नहीं चाहते, वे हमारे लिए कुछ न कुछ प्रतिक्रिया, अभिव्यक्ति या हरकतें करते रहें।
बस यहीं से हमारा मूड़ उखड़ना शुरू होता है। अधिकांश मामलों में इस मूड़ का कोई भरोसा नहीं, कब हमें कौनसी बात अच्छी लगे, कब खराब लगे। यह मूड़ शब्द थोड़ा गहरे तक देखें तो मूढ़ शब्द से मिलता-जुलता लगता है और करीब-करीब इंसान का मूड़ तभी खराब होता है जब वह मूढ़ अवस्था को प्राप्त हो जाता है और यह मूढ़ता उसे इंसानियत के दायरों से बाहर धकेलने का प्रयास करती है, उसकी मर्यादाओं को छीनने की कोशिश में धैर्य, माधुर्य और आशावाद जवाब दे जाते हैं।
हालांकि यह अपने आप में मूढ़ता ही है कि बात-बात में और बेबात हमारा मूड़ खराब हो जाए और हम मूड़ का हवाला देकर उदासीन बन जाएं अथवा मूड़ और अपने आपको कोसते रहें। इन सारे हालातों में इंसान को किसी निश्चित समयावधि या सम सामयिक अवस्था को नहीं देखकर अब तक जिये गए पूरे जीवन का नाप-तौल करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि हमारी अप्रसन्नता के लिए हम स्वयं और हमारा नकारात्मक स्वभाव कितनी हद तक जिम्मेदार है।
कई बार हम दूसरों से खूब सारी अपेक्षाएं पाल लेते हैं, औरों के भरोसे निठल्ले होकर बैठ जाते हैं, दूसरों पर इतने अधिक निर्भर हो जाते हैं कि हम खुद कुछ करना नहीं चाहते, दूसरों से अपेक्षा रहती है कि वे कुछ करें।
आमतौर पर हम खूब सारे लोगों को परखे बिना निहायत भोलेपन में अपना मान बैठते हैं और जब स्वार्थ पूर्ति बंद होने लगती है तब हमें लगता है कि कोई हमारा रहा ही नहीं। संबंधों के शाश्वत मानदण्डों से नावाकिफ होने की वजह से हमें अक्सर खिन्नता का अनुभव होता है।
बहुधा हमारे जीवन में हर क्षण कामों और इच्छाओं का ढेर बना रहता है। यह कामनाएं पूरी होती रहें तो हम प्रसन्न रहते चलते हैं और जरा सा रोड़ा आ जाए तब हमारी भौंहे चढ़ जाती हैं, चेहरा तमतमाने लगता है अथवा आत्मदुःखी होकर बैठ जाते हैं। यह स्थिति हम सभी के साथ है क्योंकि आज के जमाने में कोई कितना ही अच्छा और सज्जन क्यों न हो, आसुरी वृत्तियों वाले लोग हमेशा हमारे दांये-बांये और पीछे पड़े होते हैंं जिनकी पूरी जिन्दगी का एकसूत्री एजेण्डा लूट-खसोट करते रहना और सज्जनों को तनाव देते हुए तंग करते रहना ही रह गया है।
पुराने युगों में जो काम हिंसक राक्षसों के जिम्मे हुआ करते थे, ऎसे ही काम अब आजकल के लोग भी करते हुए आसुरी शक्तियों की कालजयी यात्रा को गौरवान्वित कर रहे हैं। यह सारी स्थितियां हमारी अप्रसन्नता और खिन्नता का मूल कारण हो गई हैं और ऎसे में हम अक्सर मूड़ खराबे के शिकार होकर खिन्न हो जाते हैं और मायूसी ओढ़ कर आत्मदुःखी होने का अनुभव करते हैं।
जीवन में ऎसी स्थितियां आना स्वाभाविक है लेकिन इनका उपचार कुछ नहीं है। हम दूसरों के आगे रोना रो देते हैं और हल्के होने का अहसास कर लेते हैं लेकिन अब तो स्थितियां ऎसी ही आ गई हैं कि जिसके आगे रोना रोएं, वे सारे के सारे भी या तो रोने वाले हैं अथवा औरों को रुलाने वाले ही। रुदावली का जो दृश्य आजकल देखने को मिल रहा है वह पिछले युगों में भी नहीं दिखा होगा।
इस प्रकार के हालातों में समसामयिक दुःखों और विपत्तियों को भुलाकर हमें अपने भूतकाल की मनोरम, सुन्दर और रोमांटिक घटनाओं और बातों का सायास श्रृंखलाबद्ध स्मरण करने की आदत डालनी चाहिए तभी हम मूड़ खराबी के माइगे्रेन से मुक्ति का अहसास कर सकते हैं क्योंकि खराब विचारों से भरी हवाओं को जब तक हम सुगंध से परिवर्तित नहीं करेंगे तब तक मूड़ खराबी का दौर बना रहेगा।
जैसे ही हम पुरानी और आनंददायी स्मृतियों के झरोखों और वीथियों में भ्रमण करना आरंभ कर देते हैं हमारे भीतर से सारी नकारात्मक हवाएं बाहर का रास्ता नाप लिया करती हैं और इसके बाद हमंंे जो आत्ममुग्धावस्था प्राप्त होती है वह ताजगी और आनंद का सृजन करती है।
इसलिए जीवन में जिन क्षणों में अवसाद, नकारात्मकता और खिन्नता के भाव अतिक्रमण करना आरंभ करें, इससे पूर्व अपनी मीठी यादों और उन सभी क्षणोें को याद करना आरंभ करें जिनकी वजह से हमें सुकून और मद मस्ती का यादगार अहसास हुआ होता है। जीवन में खिन्नता को भगाकर प्रसन्नता स्थापित करने का इससे बढ़िया और कोई उपाय नहीं हो सकता।