स्वामी डा. सत्य प्रकाश सरस्वती थे वेदधर्म के पालक
10 मई सन् 1971 को विज्ञान परिषद्, प्रयाग के प्रांगण में स्वामी ब्रह्मानन्द दण्डी जी से आपने संन्यास की दीक्षा ली। आर्य जगत के लब्ध प्रतिष्ठित शोध विद्वान व हमारे प्रेरणास्रोत प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु सपरिवार इस संन्यास-संस्कार में सम्मिलित हुए थे। इस घटना के विषय में प्रा. जिज्ञासुजी ने लिखा है कि जब सन् 1971 में डा. सत्य प्रकाश जी ने संन्यास ग्रहण किया तो इसके लिए विशेष प्रचार नहीं करने दिया। उनके संन्यास के अगले दिन सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के महामंत्री वहां आये। उन्होंने सार्वदेशिक सभा के लिए कुछ समय मांगा तो स्वामी जी ने तत्काल समय देने से मना कर दिया। श्री जिज्ञासु ने अपने सहयोगियों श्री अशोक जी व श्री मदन लाल के साथ पंजाब के लिए एक मास मांगा तो महामंत्री जी के सामने ही स्वीकृति देकर अपने स्नेह से उन्हें लाद दिया। वे पंजाब गये। इस यात्रा में स्वामी जी ने मलोट, गिदड़बाड़ा, बरनाला, अमृतसर, दीनानगर व कादियां में प्रचार किया। यात्रा के दौरान उन्होंने अंग्रेजी में प्रकाश पुस्तक लिखी। संन्यास आश्रम में प्रवेश कर उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति एवं पारिवारिक सम्बन्धों तक का त्याग कर दिया। आर्य समाज, हनुमान रोड, दिल्ली आदि आर्य समाज मन्दिरों में रहे। शिक्षा वृत्ति पर जीवन का निर्वाह किया। जैसा कठोर जीवन स्वेच्छा से स्वामी जी ने व्यतीत किया वैसा शायद् ही किसी अन्य ने किया होगा।
अब स्वामीजी का सारा समय आर्य समाज की उन्नति, व्याख्यान तथा वेद प्रचार में लगने लगा। देश भर के आर्य समाजों ने उन्हें आमंत्रित कर प्रवचन कराये। धार्मिक व्याख्यानों में विज्ञान का पुट होने से श्रोता उन्हें अन्य वक्ताओं से अधिक पसन्द करते थे। अपने जीवन काल में वह सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सम्मानित वैदिक प्रचारक रहे। सन् 1975 में प्रा. अनूप सिंह के आर्य समाज धामावाला, देहरादून के मंत्रित्व काल में आप व्याख्यान हेतु आमंत्रित किये गये थे। आपने एक प्रवचन में कहा था कि जिस ईश्वर ने हमारी आंखे बनाई हैं, उसी ने आकाश में सूर्य एवं चन्द्र को बनाकर हमारे नेत्रों को सार्थकता प्रदान की है। उनके सभी प्रवचनों में हम सम्मिलित हुये थे। स्वामी जी के व्याख्यानों के प्रभाव से ही आर्य समाज से हमारा सम्बन्ध दृढ़तर हुआ था। आज स्वामीजी जैसे मौलिक वक्ताओं का आर्य समाज में अभाव हो गया है। आज कल प्राय: आर्य समाज की मान्यताओं से विपरीत आचरण करने वाले अधिकांश अधिकारीगण आत्म प्रशंसात्मक व्याख्यान देकर ही आर्य समाज के उद्देश्य की इतिश्री समझते हैं। पतन का यह एक प्रमुख कारण है।
स्वामी सत्य प्रकाश जी ने देश भर की आर्य समाजों व अन्यत्र प्रचार करने के अतिरिक्त वैदिक धर्म का विदेशों में प्रचार करने के उद्देश्य से यूरोप के अमेरिका एवं अफ्रीका महाद्वीपों के साथ मारीशस सहित अनेक देशों की यात्रायें कीं। वैदिक धर्म प्रचार के साथ आपने विज्ञान की निरन्तर सेवा को भी जारी रखा। अपने विषय में स्वामी जी ने लिखा है, मैं प्रात: सो कर उठता हूं। मैंने कार खरीदी, बेच दी, अब पैदल आने जाने का प्रयोग कर रहा हूं। मैंने डा. राम कृष्णन् (प्रसिद्ध वैज्ञानिक) के साथ कार्य किया। जेल में पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी के साथ रहा। मैंने हिन्दी में कम अंग्रेजी में अधिक लिखा है। मैंने विज्ञान के अध्ययन, अध्यापन और पुस्तकों के सम्पादन के साथ पुस्तकों पर पते चिपका कर उन्हें डाक से भेजने आदि का कार्य भी किया है।
स्वभाव में बच्चों की सी मुस्कान एवं सरलता रखते हुए भी संन्यास आश्रम की मर्यादा के प्रति स्वामी जी सदैव सजग एवं गम्भीर रहे। सन् 1983 में तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में पुरस्कार हेतु जब आयोजन में उपस्थित स्वामीजी का मंच से नाम पुकारा गया तो स्वामी जी श्रोताओं के मध्य अपने स्थान पर ही बैठे रहे। उन्हें मंच पर जाना था परन्तु वह नहीं गये। हिन्दी की प्रख्यात कवित्री डा. महादेवी वर्मा जी ने दूर बैठे स्वामी जी को देखा तो वह स्थिति समझ गईं। वह स्ंवयं व अपने अन्य सहयोगियों के साथ मंच से उतर कर स्वामी जी के पास पहुंचीं और उन्हें वहीं सम्मानित किया। स्वामीजी का मंच पर न आना संन्यास आश्रम की उच्च परम्परा का निर्वाह था। संन्यास आश्रम की मर्यादा की रक्षा का एक अन्य उदाहरण नवम्बर 1983 में अजमेर के ‘‘महर्षि दयानन्द निर्माण अन्तर्राष्ट्रीय शताब्दी समारोह’’ में उपस्थित हुआ। इस आयोजन में जब देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी मंच पर आईं तो वहां उपस्थित जन समुदाय ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया परन्तु आर्य समाज के गौरव एवं शीर्षस्थ संन्यासी स्वामी सत्य प्रकाश जी एवं स्वामी ओमानन्द सरस्वती मंच पर अविचल व स्थिर बैठे रहे। परोपकारिणी सभा, अजमेर के मंत्री श्री करण शारदा ने इस घटना पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि स्वामी जी ने अपने व्यवहार से सिद्ध कर दिया कि संन्यासी का पद सम्राट से भी ऊंचा है। इसमें अहंकार की बू नहीं थी अपितु भारतीय संस्कृति की रक्षा व मर्यादा का तकाजा था।
सन्यास आश्रम धर्म के पालन की एक घटना उनके अपने परिवार से जुड़ी है। प्रो. धर्मवीर अजमेर ने लिखा है कि स्वामीजी महाराज कहीं बाहर से दिल्ली पधारे।
उनके पुत्र दिल्ली में कार्यरत थे। उन्हें कोई सूचना देनी थी। स्वामीजी महाराज ने अपने पुत्र के कार्यालय में दूरभाष किया, विदित हुआ कि पुत्र घर गये हैं। पुत्र के निवास पर दूरभाष किया तो पता चला कि वह बीमार है, उन्हें हार्ट अटैक हुआ था। थोड़ी देर बाद पता चला कि पुत्र दिवंगत हो गये। स्वामीजी ने किसी से चर्चा नहीं की, कोई दु:ख व्यक्त नहीं किया और न घर जाकर अन्त्येष्टि में शामिल ही हुए। दयानन्द संस्थान, दिल्ली के अध्यक्ष महात्मा वेदभिक्षु से उनका बड़ा स्नेह था। उनसे दूरभाष पर सम्पर्क किया। कहने लगे आज आपसे बात करने की इच्छा हो रही है, मेरे कमरे में आ जाओ। दिन भर उनके साथ इधर उधर की चर्चा करते रहे। पुत्र की अन्त्येष्टि के दो तीन दिन बाद पुत्र वधु स्वामीजी महाराज के पास आई तो स्वामी जी कुछ देर बात करने के बाद उनसे बोले कि ईश्वर की इच्छा, जो होना था हो गया, अब तुम अपना काम देखो, मैं अपना काम देखता हूं।
मृत्यु से पूर्व स्वामीजी के अमेठी निवासी शिष्य श्री दीनानाथ सिंह एवं उनके परिवार ने रूग्णावस्था में उनकी जो सेवा-सुश्रुषा की वह सराहनीय एवं अनुकरणीय थी। श्री सत्यदेव सैनी, लखनऊ व उनका परिवार स्वामीजी का भक्त रहा है। मृत्यु से कुछ ही दिन पूर्व लखनऊ में चिकित्सा कराकर अस्पताल से डिस्चार्ज होने पर स्वामीजी कुछ देर सैनीजी के परिवार में रूके व सभी सदस्यों से मिल कर अमेठी गये थे। हमारे मित्र श्री सैनी जी ने कई अवसरों पर स्वामीजी से जुड़े प्रसंग हमें सुनाये हैं जिन्हें सुनकर हमें उस महान पुरूष को स्मरण कर जीवन में स्फुरण व रोमांच होता है। संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक प्राणी की हम मृत्यु होती हुई देखते हैं। सबके जीवन में मृत्यु का दिन न चाहने पर भी आता ही है। इसी दैवीय व्यवस्था से 18 जनवरी सन् 1995 का दिन आया जो 90 वर्षीय हमारे पूज्य विद्वान स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती को हमसे दूर ले गया और वह स्वर्गीय स्वामीजी हो गये। स्वामीजी परोपकारिणी सभा के सदस्य भी रहे। स्वामीजी ने अन्य अनेक महत्वपूर्ण व प्रासंगिक ग्रन्थों सहित अंग्रेजी भाषा में चार वेदों का अत्युत्तम माष्य भी किया है जो अंग्रेजी भाषा का वेदों पर एकमात्र उत्तम ऋषि दयानन्द की परम्परा का भाष्य है। सम्प्रति यह वेद भाष्य व आपके अन्य अनेक प्रासंगिक ग्रन्थ ही आपके अस्तित्व व स्मृति के वास्तविक चिन्ह व स्मारक है जिनका अध्ययन कर अध्येता का आप से साक्षात् संवाद सम्बन्ध स्थापित होता है। यशस्वी स्वामीजी ने अपने जीवन में ज्ञान, अध्यात्म, भारतीय धर्म व संस्कृति की उल्लेखनीय सेवा की जिस कारण वैदिक धर्म के इतिहास में आपका नाम सदा अमर रहेगा और आपके साहित्य के अध्येता अध्ययन करते हुए आपसे संवाद सम्बन्ध स्थापित कर अपना जीवन सफल बना सकेगें। स्वामीजी को हम अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं.।