डाॅ. अशोक आर्य
भारतीय संस्कृति महान् है, जिसने पुरुष से भी अधिक नारी को सम्मान दिया है । भारत में अनेक विदुशी नारियां हुई हैं, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में पुरुष से भी आगे बढकर कार्य किया है । जब – जब पुरुष से प्रतिस्पर्धा का समय आया , नारियों ने स्वयं को उनसे आगे सिद्ध किया है । एसी विदुषी नारियों में हमारी चरित्र नायक अपाला भी एक थी । आओ हम इस अपाला को कुछ जानने का यत्न करें ।
भारतीय ऋषियों की ही भान्ति एक ऋषि नगर से दूर वृक्षों के एक झुण्ड में अपना आश्रम बना वहां पर ही अपने शिष्यों को शिक्षा देने के कार्य में व्यस्त रहते थे । उनके कोई सन्तान न थी , इस कारण एकाकी जीवन से उनकी पत्नि दु:खी रहती थी । निसन्तान होने से उस को अपना समय व्यतीत करने में भी कठिनाई का अनुभव होता था । प्रतिक्षण चिंता में जीवन व्यतीत कर रही इस नारी ने एक कन्या को जन्म दिया । इस ऋषि कन्या का नाम अपाला रखा गया । अब पुत्री के साथ आनन्दमय जीवन बिताने वाली गुरु – पत्नि आनन्द से रहने लगी | बेटी के साथ वाटिका में घूमना, खेलना आदि उसकी दिनचर्या का अंग बन गया । जो नारी सदा व्याकुल सी रहती थी, वह अब प्रसन्नता का जीवन जीने लगी । उसे पता ही न चलता कि उसका समय कब बीत गया ।
समय व्यतीत होता गया धीरे – धीरे यह बालिका अपाला बड़ी होने लगी। अक्समात् उसके शरीर पर सफेद से दाग दिखाई देने लगे । अत: इन दागों को देखकर माता – पिता कि चिन्ता बढना स्वाभाविक ही होता है । अत: चिन्तित माता – पिता ने बालिका का अनेक प्रकार से उपचार भी करवाया किन्तु किसी उपचार ने अपना चमत्कार न दिखाया । अत: अपनी बेटी के भावी जीवन को ले कर माता – पिता दु:खी रहने लगे ।
इस बालिका के पिता का नाम अत्री था जो अपने एक महान् शिक्षक थे । निराश पिता के मन में आया कि इस भयंकर रोग से ग्रसित बालिका को उच्च से उच्च शिक्षा दे कर एक महान् विद्वान् बना दिया जावे क्योंकि सुन्दर न होने पर भी गुणवान् का प्रत्येक सभा में आदर हुआ करता है । इस पर जब पिता ने ध्यान दिया तो सुशील अपाला कुछ ही समय में अपने काल के युवकों से भी कहीं अधिक सुशिक्षित हो गयी । शिक्षा में तीव्र अपाला के साथ जब – जब कोई शास्त्रार्थ करता, निश्चिय ही उसे पराजयी होना पड़ता | अपाला का विवाह कुशाग्र नामक एक युवक से हुआ , जो नाम ही के अनुरूप वास्तव में ही कुशाग्र था |
एक दिन अकस्मात् कुशाग्र का ध्यान अपनी पत्नी अपाला के शरीर पर गया तथा उसके शरीर पर कुष्ट के चिन्ह पाकर वहुत विरक्त सा रहने लगा किन्तु उसने इस सम्बन्ध में कभी कोई चर्चा अपाला से न की ।अपाला इस बात से खिन्न सी रहने लगी तथा यह खोज का यत्न करने लगी कि उसके पति के रुष्ट होने का क्या कारण है ?, किन्तु वह कुछ भी समझ नहीं पा रही थी । उसने पति को बहुत प्रेम, स्नेह व आदर दिया , किन्तु तो भी कुछ पता न चला । अन्त में उसने अपने पति से इस का कारण पूछ ही लिया । लज्जा से लाल चेहरे से युक्त पति ने कहा कि अपाला तुम किसी चर्म रोग से पीडित हो , यह मुझे पता न था । जब अपाला ने कहा कि आप तो विद्वान् हो, आप भी एसी बात करते हो तो पति ने कहा कि मैं सब जानते हुये भी अपने आप को समझा नहीं पा रहा । अपाला ने यह कहते हुये रोना आरम्भ कर दिया कि मैं तो आपकी सेवा करना चाहती हूं | यह सुनकर कुशाग्र उसे रोता हुआ छोडकर उठकर कहीं चला गया ।गम्भीर विचार के पश्चात् अपाला वहां से सीधी अपने पिता के पास चली गई । एसी अवस्था में अपाला के माता – पिता भी दु:ख के सागर में गोते लगाने लगे किन्तु अब अपाला शान्त थी । अपाला ने निश्चय किया कि वह अपने तप व त्यागमयी जीवन से अपने पति पर विजय प्राप्त करेगी । उसने एकाग्र हो अपनी शिक्षा में वृद्धि तथा रोग मुक्ति के लिये यत्न आरम्भ कर दिया तथा कुछ समय में ही वह इस रोग से मुक्त हो गयी । रोगमुक्त हो वह पुन: adपति के घर आयी । अब इस रोग – मुक्त पत्नी से उसके महान् विद्वान् ने क्षमा मांगी तथा अपाला की सब पुरानी बातों को उसने भुला दिया।
अपाला इतनी महान् तथा वेद की विदुशी थी की ऋग्वेद पर उसने अपना पूर्ण प्रभाव दिखाया तथा वह वेद की उच्चकोटी की विद्वान् हो गयी । उसने ऋग्वेद के अष्टम मण्ड्ल के सूक्त संख्या ९१ की प्रथम सात ऋचाओं पर एकाधिकारी स्वरुप चिन्तन किया तथा प्रकाश डाला। इस कारण वह इन सात ऋचाओं की ” ऋषि ” कहलायी । इस प्रकार अपाला ने न केवल अपने स्नेह , प्रेम व यत्न से अपने पति के मन को ही जीत लिया अपितु अपने समय के सब पुरुषों से भी अधिक विद्वान् होकर वेद की महान् पण्डित तथा सब से बडे वेद ऋग्वेद के अष्टम मण्ड्ल के एक नहीं अपितु सात सूक्तों कि ऋषिका बनी । इस कारण भारत में ही नहीं समग्र विश्व में अपाला को सन्मान की दृष्टि से देखा जाता है ।