सचमुच पहचान का संकट हमारे लिए सबसे बड़ा संकट है। इससे सारा देश और उसका सामाजिक परिवेश भ्रमाच्छादित है। अमेरिका एक राष्ट्र नही था, पर उसने अपनी सारी पहचानों को ‘अमेरिकन’ होने की पहचान दी और वह राष्ट्र बन गया। ग्रेट ब्रिटेन कोई राष्ट्र नही था (स्कॉटलैंड, आयरलैंड और इंग्लैंड में विभाजित था) लेकिन उसने भी अपनी पहचान ‘ब्रिटिश’ के रूप में बनायी और एक राष्ट्र बन गया।
पर हम नही बन पाए, क्यों? इसका कारण है-विदेशियों को भली प्रकार ज्ञात है कि यदि हमारी भी एक पहचान बन गयी तो अनिष्ट हो जाएगा। इसलिए ब्रिटिश काल से ही नही उससे भी पूर्व से हमारी पहचान को मिटाने का कार्य किया जा रहा है। इसी प्रयास के कारण हमने उस कृष्ण देवराय को कभी न तो महान कहा और न ही प्रजापालकसम्राट कहा जिसका साम्राज्य अकबर से विशाल था, यही कारण था कि हमने महाराणा प्रताप को कभी महान नही कहा, जिसकी देशभक्ति अकबर से लाख गुणा उत्तम थी। जिस देश में महानता की नीलामी होती हो और लेखनी सहजता से बिकती हो, उसमें अपनी पहचान को ढूंढऩा सचमुच बड़ा कठिन है। क्योंकि पहचान को इतिहास की दीवार पर एक चित्र के रूप में ये दोनों ही उकेरती हैं। जिस देश की मेधा शक्ति अपने अतीत के अनुसंधान से मुंह छुपाने लगती है, वह देश कभी अपनी पहचान नही बना सकता।
भारत की पहचान को मिटाने का षडय़ंत्र अंग्रेजों ने इस देश में हिंदू मुस्लिम नामक दो राष्ट्र खड़े करने की अवधारणा को विकसित करके आरंभ किया। सरजार्ज हैमिल्टन ने जो भारत के सैक्रेटरी ऑफ स्टेट थे, 26 मार्च 1888 को लिखा था कि मोटे विचार से हमारे राज्य को वास्तविक खतरा आज नही आज से पचास वर्ष पश्चात होगा, अत: हम भारतीयों को अलग-अलग विचार रखने वाले भागों में बांट देंगे। हमें पाठय पुस्तकों की ऐसी योजना बनानी चाहिए जिससे सम्प्रदायों के बीच के मतभेद और मजबूत हों।
हैमिल्टन के इस कथन से स्पष्ट है कि इस देश को साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित करने की उनकी चाल कितनी गहरी थी? लगभग साठ वर्ष पश्चात हैमिल्टन की योजना क्रियान्वित हो गयी। यह अलग बात है कि 1947 में जब देश बंटा तो परिस्थितियां ऐसी बन गयीं कि अंग्रेजों को भी यहां से भागना पड़ा। हमारी पहचान विखंडित हो गयी।
आजादी के बाद हमने दुर्भाग्यवश अपनी पहचान की ओर कोई विशेष ध्यान नही दिया। हैमिल्टन का मस्तिष्क हमें पीछे से गाइड करता रहा और हम उसी के अनुसार चलते रहे। समय आया था कि जब हमारे संजीदा मुस्लिम महानुभावों ने भी संविधान सभा में भारत की एक पहचान स्थापित करने के लिए प्रस्ताव रखा था।
जब संविधान के अनुच्छेद 25 और 30, जिनके अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षणिक संस्थान अलग से स्थापित करने संबंधी प्रावधान पर चर्चा हो रही थी, तो सदस्यों ने इन अनुच्छेदों के संभावित परिणामों पर अपनी चिंता प्रकट की थी। अनुच्छेद 25 पर श्री तजम्मुल हुसैन ने कहा था-‘‘महोदय, इस धारा की उपधारा-1 के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आत्मा की स्वतंत्रता का तथा विश्वास का विस्तार करने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार होगा। मुझे इसमें कोई आपत्ति नही है कि लोगों को स्वतंत्रतापूर्वक अपने विश्वास (मत) को खुले रूप में स्वीकार करने और आचरण करने का अधिकार होना चाहिए। किंंतु महोदय, मुझे भय है कि यह अधिकार देना गलत होगा, कि इस देश में लोग अपने-अपने मजहब का प्रचार करने को भी स्वतंत्र हो।
महोदय, मजहब एक व्यक्ति और उसके कत्र्ता के बीच एक व्यक्तिगत मामला है, इसका दूसरों से कोई संबंध नही है। मेरा विश्वास मेरा अपना विश्वास है, और आपका अपना। आप मेरे विश्वास (मत) में दखलन्दाजी क्यों करें? और मैं आपके विश्वास में क्यों करूं? विश्वास तो केवल अपनी व्यक्तिगत मुक्ति पाने का माध्यम है…यदि आप मुझसे सहमत हैं तो विश्वास का प्रचार क्यों? आप अपने घर में बैठकर ईमानदारी से अपने विश्वास (मजहब) का पालन करें। उसका दिखावा क्यों करें, यदि इस देश में आप मजहब का प्रचार करना प्रारंभ कर देंगे तो आप दूसरों के लिए संकट बन जाएंगे।
श्री तजम्मुल हुसैन ने संविधान सभा में (3-12-1948) को इस धारा में अपना संशोधन प्रस्ताव रखा और कहा कि संविधान की धारा 25 उपधारा-1 की टिप्पणी को हटाकर उसके स्थान पर लिखा जाए-कोई भी व्यक्ति इस प्रकार का कोई निशान, नाम अथवा परिधान धारण नही करेगा जिससे उसके मजहब की पहचान होती हो।’’
यह प्रस्ताव एक राष्ट्रवादी और यथार्थवादी राजनीतिक चिंतक की सोच का परिणाम था, परंतु दुर्भाग्यवश इसे अपनाया नही गया और आज जब आर.एस.एम. प्रमुख श्री मोहन भागवत ये कह रहे हैं कि इस देश के सभी लोग हिंदू हैं, और हिंदुत्व ही हमारी पहचान है तो उस पर भी अनावश्यक चिल्ल पौं हुई है। श्री तजम्मुल हुसैन की बात ‘लव जिहाद’ के रूप में भी सच साबित हो रही है। हमने मत (मजहब) के प्रचार की छूट दी और उसका गलत प्रयोग किया गया। हमने 1947 में पाकिस्तान की झोली में वहां की आबादी का लगभग एक चौथाई भाग हिंदू के रूप में मानो भिक्षा में डाल दिया और आज उसने उनको खा लिया,जब कोई देश अपनी पहचान के प्रति इतना लापरवाह हो जाता है कि वह अपने लोगों के भले बुरे का भी ध्यान नही रख पाता है तभी ऐसी परिस्थितियां बना करती हैं। स्वतंत्रता की इतनी बड़ी कीमत शायद किसी देश ने भी नही दी होगी कि उसके करोड़ों लोग किसी देश को भिक्षा में दे दिये जाएं और फिर वे भिक्षा में दिये गये लोग 67 वर्ष में ही चट कर लिये जाएं। पहचान का संकट जब तक भारत में विकराल रूप ले तब तक हमें सावधान हो जाना चाहिए। तजम्मुल हुसैन साहब के मॉडल को अपनाकर एक पहचान बनाने का समय आ गया है, मोदी सरकार को इस ओर पहल करनी ही होगी। कांग्रेस के साठ साल के पापों की गठरी को समुद्र में फेंकने का समय आ गया है।