अंग्रेजी साप्ताहिक मेनस्ट्रीम का ताजा अंक (18 जुलाई) पढऩे लायक है। इस अंक की पूरी सामग्री का संयोजन 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की अभूतपूर्व विजय और उसमें से निकली नरेन्द्र मोदी की केन्द्रीय सरकार को असफल बताने के लिए किया गया है। मैं मेनस्ट्रीम का बहुत लंबे समय से नियमित पाठक रहा हूं। इस पत्रिका को स्वर्गीय निखिल चक्रवर्ती ने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की वैचारिक विसंगतियों और राजनीतिक असफलताओं का तथ्यपूर्ण विश्लेषण करने के लिए लगभग 52 वर्ष पूर्व प्रारंभ किया था। किंंतु पिछले कुछ महीनों से यह आत्मालोचन का रास्ता छोडक़र भाजपा और हिंदुत्व विरोध तक ही सीमित रह गयी है। उसके पूरे प्रचार अभियान के बावजूद 2014 के अनपेक्षित चुनाव परिणामों को वह नेहरूवाद की पराजय और हिंदू फासिज्म की विजय के रूप में प्रस्तुत कर रही है। इससे भी एक कदम आगे बढक़र इस अंक में बंगाल के एक कम्युनिस्ट पत्रकार विश्वजीत राय ने भाजपा अर्थात हिंदू फासिज्म कीविजय को वामपंथी गांधीवादी नेहरूवादी, समाजवादी, आधुनिकतावादी व उत्तर आधुनिकतावादियों की संयुक्त पराजय घोषित कर दिया है। साथ ही उन्हें अपने सब मतभेदों को भुलाकर हिंदुत्व फासीवाद के विरूद्घ एकजुट होकर युद्घ छेडऩे की सलाह दी है। पृष्ठ 13 इस कम्युनिस्ट लेखक की दृष्टि में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की विजय मजहबी राष्ट्रवाद और उद्योगपतियों के विकासवाद के गठबंधन की जीत है। हिंदू दक्षिणापंथ और क्रोनी पूंजीपतियों का संयुक्त तमाशा है।
गांधीजी के राजनीतिक उत्तराधिकारी
यह हिंदू दक्षिणपंथ क्या बला है? इसे समझने के लिए इसी अंक में वयोवृद्घ पत्रकार कुलदीप नैयर के मोदी के सत्ता में पचास दिन शीर्षक लेख (पृष्ठ 11) की यह पंक्तियां पढ लें-यह दक्षिणापंथी सरकार है जिसने भारत को जीत लिया है। वामपंथी झुकाव वाली नेहरूवादी विचारधारा ठुकरा दी गयी है। जवाहरलाल नेहरू को गांधीजी के सिपहसालार के रूप में देखा जाता है। गांधी जी को मिस्टर जिन्ना व ब्रिटिश सरकार एक हिंदू पुनरूत्थानवादी नेता मानते व कहते थे। यदि ऐसा ही है तो नेहरूवाद को गांधीवाद से कैसे अलग किया जा सकता है? और वामपंथी खेमे में कैसे रखा जा सकता है? यह इतिहास का सच है कि गांधीजी द्वारा परिवर्तित जनांदोलन के ज्वार पर सवार होकर ही भारत 1947 में राजनीतिक स्वाधीनता के प्रवेश द्वार पर पहुंचा था। और यहन् भी उतना ही सच है कि भारत को स्वतंत्रता के प्रवेश द्वार पर छोडक़र गांधीजी स्वाधीन भारत के शिल्पकार का दायित्व अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी जवाहरलाल के कंधों पर छोडक़र अकस्मात चले गये थे। 1934 से ही गांधीजी ने नेहरू को अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी का दर्जा देना शुरू कर दिया था।
1940-41 में इस बात की सार्वजनिक घोषणा भी कर दी थी। 5 अक्टूबर 1945 को नेहरू के नाम अपने पत्र में उन्होंने पुन: इस सत्य को दोहराया। भले ही कांग्रेस पार्टी ने नेहरू को स्वीकार न किया हो, क्योंकि 1946 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए 15 में से 12 प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों ने सरदार पटेल का नाम सुझाया था। शेष तीन ने तत्कालीन महासचिव आचार्य कृपलानी का नेहरू का नाम कहीं से नही आया था। पर गांधीजी की इच्छा का आदर करते हुए सरदार पटेल ने सहर्ष अध्यक्ष पद नेहरू के लिए छोड़ दिया था, यह जानते हुए भी कि उस समय काा अध्यक्ष भावी प्रधानमंत्री बनने वाला है।
क्या सचमुच गांधीजी नही जानते थे कि जिन जवाहरलाल नेहरू को वे अपना उत्तराधिकारी बना रहे हैं, उन्हें उनका जीवन दर्शन उनकी सामाजिक आर्थिक व राजनीतिक विचारधारा तनिक भी मान्य नही है। क्योंकि 1927-28 से ही जवाहरलाल नेहरू ने गांधीजी से अपने वैचारिक मतभेदों को छिपाया नही था, बल्कि लिपिबद्घ रूप में प्रकाशित भी कर दिया था।
वैचारिक मतभेद
1927 में सोवियत रूस के निमंत्रण पर मास्को में चार दिन बिताकर जब नेहरू ने कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में कम्युनिस्ट शब्दावली का वमन कर डाला, तो गांधीजी ने उन्हें चेतावनी दी कि कम से उस शब्दावली को भारतीय स्थितियों के अनुरूप पचा तो लेते। इसके जवाब में नेहरू ने 11 जनवरी 1928 को गांधीजी को एक लंबा उत्तर भेजा। जिससे व्यथित होकर गांधीजी ने नेहरू को लिखा कि तुम्हारे और मेरे बीच मतभेद इतने गहरे हैं कि मैं तुम्हें मेरे खिलाफ विद्रोह की पताका फहराने की छूट देता हूं। जवाहरलाल नेहरू ने उस पत्र का उत्तर नही दिया पर उनके पिता मोतीलाल ने गांधीजी पर दबाव बनाया कि वे जवाहरलाल को आगामी लाहौर अधिवेशन का अध्यक्ष बना दें। यहां से नेहरू का गांधी के कंधों पर सवार होकर भारत के सार्वजनिक जीवन के शिखर पर पहुंचने का रास्ता खुला। 1941 में नेहरू को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित करते समय गांधीजी ने आशा व्यक्त की थी कि आज भले ही मेरन्ी ओर नेहरू की भाषा भिन्न हो पर एक दिन वे मेरी भाषा बोलेंगे, इसका मुझे विश्वास है।
गांधीजी का यह विश्वास कभी पूरा नही होता। नेहरू ने जगह जगह लिखा है कि मेरा दिमाग गांधी की खिलाफत करता है पर दिल उनके साथ जाने को मजबूर है। मुझे गांधीजी की जीवन दृष्टि आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक विचार सुहाते नही हैं, पर मैं जानता हूं कि भारत को आजादी मिले बिना मैं अपने सपने का भारत नही बना सकता। भारत की आजादी के लिए जनता में जिस जोश त्याग और साहस की आवश्यकता है वह गांधीजी के अलावा और कोई नही कर सकता। इसलिए गांधी की छत्रछाया में बने रहना मेरी मजबूती है। 5 अक्टूबर 1945 के पत्र में जब गांधीजी ने 1909 में लिखित हिंद स्वराज पुस्तक में प्रस्तुत सभ्यता पर आस्था जताई तो नेहरू ने उसे सिरे से खारिज करते हुए लिखा है कि मैंने उसे बहुत पहले पढ़ा था, तब भी मुझे पिछड़ी सी लगी थी और अब तो जमाना बहुत आगे बढ़ गया है। गांधीजी के ग्राम प्रधान जीवन को ठुकराते हुए नेहरू ने लिखा है कि गांव में जीवन जड़ और अचल है। अब हमें औद्योगिकीकरण और शहरी जीवन को अपनाना पड़ेगा। स्वाधीन भारत की 67वर्ष लंबी यात्रा को देखकर कौन कहेगा कि यह गांधीजी के सपनों का भारत है नेहरू के नही।
माक्र्सवाद की ओर झुकाव
यदि नेहरू गांधीवादी नही थे तो क्या थे? नवंबर 1927 में रूस से लौटकर उन्होंने भारतीय अखबारों में सोवियत रूस का स्तुतिगान करते हुए कई लेख लिखे। यह लेख 1929 में सोवियत रूस शीर्षक से पुस्तकाकार में छपे। इन लेखों में उन्होनें माक्र्सवाद की छाया में रूस की प्रगति और खुशहाली का भव्य चित्र प्रस्तुत किया और भारत को रूस के नक्शे कदम पर चलने की सलाह दी। 1934 में नेहरू ने अपनी पुत्री इंदिरा के नाम लिखे पत्रों को संकलित कर विश्व इतिहास की झलक नामक पुस्तक प्रकाशित की। 1936 में नेहरू ने अपनी आत्मकथा प्रकाशित की। 1941 में भारत की एकता और 1946 में भारत की खोज पुस्तकें प्रकाशित हुई। ये सभी पुस्तकें 1927 से 1946 तक नेहरू कीवैचारिक एवं राजनीतिक यात्रा का दस्तावेजीकरण है। इन सभी में उन्होंने निसंदिग्ध शब्दों में माक्र्सवादी विचारधारा और उसके आधार पर सोवियत संघ की प्रगतिशील नीतियों का गुणगान किया है। स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने भारत के आर्थिक विकास के लिए रूस के अनुकरण पर पंचवर्षीय योजनाओं का रास्ता अपनाया योजना का गठन किया। भारत के इतिहास को उन्होंने माक्र्सवादी चश्मे से ही देखा। भारत के मुस्लिम समस्या को हल करने के लिए भी उन्होंने सोवियत रूस की अल्पसंख्यक नीति को अपनाया। उन्होंने यहन् कभी जानने की कोशिश नही की कि इस्लामी विचारधारा की अपनी मान्यताएं क्या हैं? भारतीय राजनीति में ब्रिटिश शासकों ने मुसलमानों को अल्पसंख्यकवाद का आवरण कब और क्यों दिया? क्या सचमुच अनेक उपासना पद्घतियों को स्वीकार करने वाले विविधतापूर्ण हिंदू समाज को मुस्लिम और ईसाईमत जैसे एक पुस्तक एक मसीहा और एक उपासना पद्घति पर केन्द्रित मजहबों की श्रेणी में रखा जा सकता है? क्या हिंदू धर्म जैसी कोई चीज है? क्या उस हिंदू धर्म को मानने वाला कोई बहुसंख्यक धार्मिक समूह भारत में है? पंडित नेहरू ने माक्र्सवादी विचारधारा के वशीभूत होकर अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज के प्रति ममत्व और उपासनात्मक स्वातंत्रय को शिरोधार्य करने वाले हिंदू समाज को मजहबी बहुसंख्यक मान लिया। इसी धारणा के वशीभूत होकर उन्होंने संविधान में बहुसंख्यक राष्ट्रीय समाज से अधिक अधिकार पृथकतावादी अल्पसंख्यक समाज को दिये। उन्होंने अल्पसंख्यक वाद को सेक्युलरिज्म की आधारशिला बना दिया और बहुसंख्यक राष्ट्रीय समाज को सांप्रदायिक घोषित कर दिया। स्वाधीन भारत की 67 वर्षों की यात्रा नेहरूवाद के इसी भटकाव की यात्रा है।
इस भटकाव का परिणाम हुआ कि कट्टरवादी मुस्लिम नेतृत्व ने मुस्लिम समाज को भारत के राष्र्नवादी प्रवाह के साथ समरस नही होने दिया और उन्हें महज एक वोट बैंक बना दिया। अपनी वोट बैंक राजनीति के अंतर्गत विभाजन के तुरंत पश्चात मुस्लिम नेतृत्व ने कांग्रेस का दामन पकड़ा। 1967 के बाद कांग्रेस का दामन छोडक़र विपक्षी दलों का हौंसला अफजाई की। आगे चलकर छोटे छोटे क्षेत्रीय दलों का जनाधार बनकर भारतीय समाज और राजनीति को बिखराव के रास्ते धकेला। 2014 में पहली बार इस बिखराव की राजनीतिक पर आंशिक विजय के फलस्वरूप एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल को लोकसभा में पूर्ण बहुमत मिलने का दृश्य उत्पन्न हुआ है। हम इसे नेहरूवाद की पराजय कहें या भारतीय राष्ट्रवाद की विजय?
वामपंथी बौखलाट
अपने माक्र्सवादी आवेश में पं. नेहरू ने कम्युनिस्ट शब्दाबली को ज्यों का त्यों हजम कर लिया। जनता ने तो गांधीजी के प्रति अपनी अगाध भक्ति को नेहरू भक्ति में उडेल दिया। पर नेहरू भक्ति ने उस पर माकर््सवादी शब्दाबली थोप दी है। इसी का परिणाम है कि विगत 67 वर्षों में हम सेकुलर सांप्रदायिक प्रगतिशील-प्रतिगामी, पूंजीवाद- सर्वहारावाद दक्षिण वाम अल्पसंख्यक बहुसंख्यक जैसी शब्दाबली के चश्मे को भारतीय यथार्थ को देखते रहे। हम राष्ट्रीय एकता राष्ट्रीयधारा व राष्ट्रीय समाज की भाषा बोलते रहे हैं परभारत में राष्ट्रीयता का आधार कहा है, यह समझने का प्रयास हमने कभी नही किया। गांधी और नेहरू का राष्ट्रवाद मुस्लिम समाज को कांग्रेस के साथ क्यों नही जोड़ पाया 1937 और 1946 के चुनाव परिणाम क्या बताते हैं? 1938 में नेहरू का मुस्लिम जनसंपर्क अभियान क्यों विफल रहा है? इसकी ईमानदार कारण मीमांसा कभी नही की गयी। नेहरू और पटेल की मतभेदों की जड़ कहां है? देश विभाजन की कारण मीमांसा नेहरू और पटेल अलग अलग क्यों करते हैं? क्यों मुस्लिम लीग के 73 सदस्यों ने संविधान सभा का बहिष्कार किया और क्यों 3 जून 1947 को विभाजन पर सहमति पर मुहर लगने के बाद 14 जुलाई 1947 को संविधान सभा की चौथी बैठक में मुस्लिम लीग के वे 23 सदस्य जो खंडित हिंदू भारत से चने गये थे बिना बुलाये पहुंच गये। तभी दिल्ली से कांग्रेसी सदस्य देशबंधु गुप्ता ने सवाल उठाया था कि ये 23 सदस्य द्वि राष्ट्रवाद के सिद्घांत को छोडक़र आये हैं या उसे साथ लाये हैं? वह अवसर था जब नेहरू को देश विभाजन की कारण मीमांसा पर संविधान सभा में बहस करानी चाहिए थी द्विराष्ट्रवाद की डेरी को काट देना चाहिए था भारतीय राष्ट्रवाद की दो टूक व्याख्या करनी चाहिए थी। पर वह नही हुआ क्योंकि पं. नेहरू सच्चे माक्र्सवादी भी नही थे। वे केवल सत्तावादी थे। सत्ता के लिए उन्होंने गांधीजी को ढाल बनाया और सत्ता के लिए ही माक्र्सवादी बने।