हिजाब की जिद महिलाओं से अधिक कट्टरवादी एवं राजनीतिक शक्तियों की साजिश
ललित गर्ग
स्पष्ट है कि यह विवाद जितना स्वतः स्फूर्त लगता है, उतना है नहीं। जानबूझकर इस चिंनगारी को आग दी जा रही है। परदे के पीछे से इसमें राजनीति अहम भूमिका निभा रही है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को प्रभावित करने एवं कट्टरवादी शक्तियों को संगठित करने का यह षडयंत्र है।
साम्प्रदायिक कट्टरता, संकीर्णता एवं उन्माद अक्सर हिंसा, तनाव, बिखराव एवं विध्वंस का कारण बनता रहा है। इन स्थितियों को आधार बनाकर शिक्षण संस्थानों में तनाव, अराजकता एवं बिखराव का जहर घोलना चिन्तनीय है। कट्टरवादी शक्तियां इन घटनाओं को तूल देकर राजनीति स्वार्थ को सिद्ध करने का खेल खेल रही है, जो राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के लिये घातक है। कर्नाटक में अब ऐसे स्कूल और कॉलेजों की संख्या बढ़ती जा रही है, जहां मुस्लिम समुदाय की छात्राएं, हिजाब पहन कर कक्षाओं में उपस्थित रहने की इजाज़त मांग रही हैं। हिजाब की नहीं बल्कि कर्नाटक के स्कूलों में बच्चों द्वारा क्लास में नमाज़ पढ़ने के दृश्य भी देखने को मिले हैं। इसके विरोध में हिन्दू छात्रों ने ये मांग की है कि उन्हें भी स्कूलों और कॉलेजों में तिलक लगा कर और भगवा रंग का अंगोछा पहन कर कक्षाओं में उपस्थित में रहने की इजाज़त दी जाए। बड़ा सवाल यह है कि जो विवाद कुछ लड़कियों औऱ कॉलेज प्रशासन के बीच था, उसने राजनीतिक रंग कैसे ले लिया? बेवजह के इस तरह के साम्प्रदायिक एवं धार्मिक विवादों का दावानल बन जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने पर लगी पाबंदी का मुद्दा एकाएक देश में तनाव, नफरत एवं द्वेष का कारण बन रहा है, जगह-जगह आंदोलन हो रहे हैं, और इसकी आग अब देश भर में फैलती हुई दिख रहा है।
राज्य के उडुपी जिले के एक सरकारी कालेज में इस विवाद ने तब तूल पकड़ा, जब इसी दिसंबर की शुरुआत में छह छात्राएं हिजाब पहनकर कक्षा में पहुंच गईं। इसके पहले वे कालेज परिसर में तो हिजाब पहनती थीं, लेकिन कक्षाओं में नहीं। आखिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि वे अध्ययन कक्ष में हिजाब पहनकर जाने लगीं? इस सवाल की तह तक जाने की जरूरत इसलिए है, क्योंकि इससे एक ओर जहां साम्प्रदायिक सौहार्द को खण्डित किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर यह विवाद देश के दूसरे हिस्सों को भी अपनी चपेट में लेता दिख रहा।
स्पष्ट है कि यह विवाद जितना स्वतः स्फूर्त लगता है, उतना है नहीं। जानबूझकर इस चिंनगारी को आग दी जा रही है। परदे के पीछे से इसमें राजनीति अहम भूमिका निभा रही है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को प्रभावित करने एवं कट्टरवादी शक्तियों को संगठित करने का यह षडयंत्र है। इसके पीछे संदिग्ध पृष्ठभूमि वाले कैंपस फ्रंट आफ इंडिया का हाथ दिख रहा है। यह पापुलर फ्रंट आफ इंडिया की छात्र शाखा है। माना जाता है कि यह प्रतिबंधित किए जा चुके कुख्यात संगठन सिमी का नया अवतार है। इसका नतीजा यह हुआ है कि जिन बच्चों को आपस में मिल-जुलकर पढ़ाई पर ध्यान लगाना चाहिए था वे साम्प्रदायिक आग्रहों-पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर पहनावे के आधार पर एक-दूसरे को अपने विरोधी और दुश्मन की तरह देख रहे हैं। यह स्थिति न केवल शैक्षिक सत्र के लिए नुकसानदेह है बल्कि स्कूल-कॉलेजों के माहौल को लंबे समय तक के लिए दूषित एवं तनावमय कर सकती है। हालांकि मामला कोर्ट में भी है और जैसा कि हाईकोर्ट ने कहा है, इसके कानूनी पहलुओं पर बड़ी बेंच सुनवाई करेगी, लेकिन इस बीच सरकार और कॉलेज प्रशासन को अपने स्तर पर मामला जल्द से जल्द सुलझाने की कोशिश जरूर करनी चाहिए।
पिछले कुछ दिनों में यह विवाद इतना बड़ा हो गया है कि कर्नाटक सरकार को पूरे प्रदेश के स्कूल-कॉलेजों में छुट्टी घोषित करनी पड़ी है। हालांकि, इस बात की कोई गारंटी नहीं कि जब स्कूल-कॉलेज दोबारा खुलेंगे, तब तनाव फिर से न दिखाई दे। पूरे मामले को जिस तरह से सांप्रदायिक रंग दिया गया है और जिस तरह से इस बहाने एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश की जा रही है, उसमें बात सतही फैसलों से बनने वाली भी नहीं है। अब मामला यह नहीं है कि बात कहां से शुरू हुई थी, अब समस्या इसे लेकर शुरू हुई राजनीति है, जो समाज की पुरानी जटिलताओं के बारे में फैसला सड़कों पर कर लेना चाहती है, भारत की सांझा संस्कृति को आहत करना चाहती है। सह-अस्तित्व एवं समन्वय में विश्वास करने वाले लोगों को संकट में डालना चाहती है। जबकि इस तरह के समन्वय का अर्थ अपने सिद्धान्तों एवं धार्मिक मान्यताओं को ताक पर रखकर अपने आपको विलय करना कतई नहीं है। पांचों अंगुलियों को एक बनाने जैसी काल्पनिक एकता कभी संभव नहीं है। व्यक्तिगत रूचि, आस्था, मान्यता आदि सदा भिन्न रहेंगी, पर उनमें आपसी टकराव न हो, परस्पर सहयोग, सद्भाव एवं आपसी समझ बनी रहे, यह आवश्यक है। राजनीतिक स्वार्थों के लिये इसे खण्डित करने के प्रयास देश तोड़क है। जब ईरान एवं अन्य मुस्लिम देशों में महिलाएं बुर्के के खिलाफ संघर्ष कर रही हैं तो भारत में इसके समर्थन की आंधी उठना सहज ही दर्शाती है कि यह महिलाओं से अधिक तथाकथित कट्टरवादी एवं राजनीतिक शक्तियों की साजिश है।
हिजाब या परदे को लेकर हमारे देश एवं दुनिया में कई समाज सुधारकों ने बहुत से गंभीर प्रयास किए हैं, इसके लिए लंबी लड़ाइयां भी लड़ी गई हैं। इनमें बहुत सारी लड़ाइयों में सफलताएं भी मिली हैं, बहुसंख्यकों में भी और अल्पसंख्यकों में भी। सच तो यह है कि ऐसे ही प्रयासों के कारण लड़कियां और महिलाएं घर की दहलीज से बाहर निकली हैं और अब वे पढ़ाई ही नहीं कर रहीं, बल्कि जीवन के तकरीबन सभी क्षेत्रों में सक्रिय होकर अपने होने का अहसास करा रही हैं। हर देश, समाज एवं वर्ग विकसित होना चाहता है। विकास की दौड़ में महिलाएं भी पीछे क्यों रहे? भले ही वे किसी भी धर्म एवं सम्प्रदाय की हो। बहरहाल, ध्यान देने की बात है कि एक शहर के एक कॉलेज का छोटा सा मामला जो थोड़ी सी समझदारी से सुलझाया जा सकता था, न केवल एक महीने तक जारी रहा बल्कि फैलते हुए पूरे राज्य एवं अब समूचे देश में इतने बड़े बवाल का कारण बन गया। निःसंदेह हर किसी को अपनी पसंद के परिधान पहनने की आजादी है, लेकिन इसकी अपनी कुछ सीमाएं हैं। स्कूल-कालेज में विद्यार्थी मनचाहे कपड़े पहनकर नहीं जा सकते। इसी मनमानी को रोकने के लिए शिक्षा संस्थान ड्रेस कोड लागू करते हैं। इसका एक बड़ा कारण छात्र-छात्रओं में समानता का बोध कराना होता है।
ज्यादातर मुस्लिम लड़कियों का ये कहना है कि इस्लाम धर्म में हिजाब पहनना, धर्म के पालन की सच्ची भावना को दर्शाता है और भारतीय संविधान भी उन्हें इसकी पूरी इजाज़त देता है। लेकिन सवाल है कि क्या ये बात सही है? आपको जानकर हैरानी होगी कि इस्लाम के पवित्र धार्मिक ग्रंथ, कुरान में हिजाब और बुर्के जैसे शब्दों का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया है। इनकी जगह खिमर और जिबाब जैसे शब्द इस्तेमाल किए गए हैं, जिनका अर्थ महिलाओं द्वारा अपना सिर और चेहरा ढंकने से है। ये दुर्भाग्य ही है कि, आज तुनिसिया, मोरोक्को, अजरबेजान, लेबनान, सीरिया और कोसोवो जैसे मुस्लिम देशों में हिजाब को लेकर कड़े नियम मौजूद हैं। जैसे, कोसोवो में लड़कियां हिजाब पहन कर स्कूल नहीं जा सकतीं। लेकिन भारत में इसका ठीक उल्टा हो रहा है। जबकि हमारा देश एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जो अनेकता में एकता और समानता की बात करता है.
अमेरिका के थींक टेंक पीव रिसर्च सेन्टर ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें ये बताया गया था कि मुस्लिम देशों में महिलाएं हिजाब और बुर्के को लेकर क्या सोचती हैं। तब इस रिपोर्ट में तुनिसिया की 56 प्रतिशत, तुर्की की 52 प्रतिशत, लेबनान की 49 प्रतिशत, सऊदी अरब की 47 प्रतिशत और इराक की 27 प्रतिशत महिलाओं ने ये कहा था कि उन्हें क्या पहनना है, ये फैसला उनका होना चाहिए। और उन पर हिजाब और बुर्के की अनिवार्यता को नहीं थोपना चाहिए। लेकिन भारत जैसे देश में संवैधानिक अधिकार के नाम पर लोगों को भ्रमित किया जा रहा है।
महिलाएं विकास की दौड़ में शामिल है, वे घर से निकली हैं, इसीलिए परदा भी खत्म हुआ और उसके तर्क भी। यह ठीक है कि परदा अभी भी कई रूपों में मौजूद है, अधिकतर परंपराओं के कारण है और कुछ जगहों पर कट्टरता के कारण भी। जैसे-जैसे लड़कियां घरों से निकलेंगी, ये आग्रह भी खत्म होंगे ही। वैसे भी, परदा प्रथा को खत्म करने का मामला समाज सुधार का मामला है, राजनीति का नहीं। अगर किसी को जबरदस्ती परदा थोपने की इजाजत नहीं दी जा सकती, तो किसी को जबरन परदा हटाने की इजाजत भी नहीं दी जा सकती। अच्छा होगा, हम लड़कियों को खूब पढ़ाएं और उनके परदे का फैसला उनके विवेक पर ही छोड़ दें। लेकिन अभी तो जो हो रहा है, वह उनमें से कुछ के पढ़ने के रास्ते ही बंद कर सकता है, महिलाओं के जीवन में एक नये अंधेरे का कारण बन सकता है।