हमारी पूरी जिन्दगी के हर मोड़ पर ऎसे दुष्ट और निकम्मे लोगों से हमारा संपर्क होता रहता है जिन्हें इंसान के अलावा किसी भी श्रेणी में रखा जा सकता है मगर इन्हें इंसान मानने को कोई तैयार नहीं होता। हमारे संपर्क और हमारी जानकारी में आने वाले खूब सारे लोगों के बारे में आम धारणा यही होती है कि ये ही वे लोग हैं जिनके कारण से समाज और देश तरक्की नहीं कर पा रहा है। ये ही वे लोग हैं जो स्पीड़ ब्रेकर और ठोकरों के रूप में जहाँ-तहाँ डेरा जमाये हुए अड़े हुए हैं, एक ही स्थान पर बरसों से कुण्डली मारकर ऎसे बैठे हैं जैसे कि इन गोबर गणेशों को किसी ने पीपे भर फेविकोल से वहीं चिपका दिया हो।
कई स्थानों पर ऎसे खूब सारे लोगों का जमावड़ा है जो कोई काम भले न कर सकें, किसी भी काम को अटका देना उनके बाँये हाथ का खेल है। काम अटकाने और बहाने बनाने में ये लोग इतने माहिर होते हैं कि इनका कोई तोड़ नहीं है। कोई काम बिना किसी कायदे-कानूनों के करने भी इनकी मास्टरी है और किसी अच्छे और कायदे-कानून वाले काम को अटका देने में भी महारत हासिल है।
खूब सारे तो एक ही एक प्रकार के कामों को करते हुए, फाइलों के खेतों में बैलों की तरह निगाह दौड़ाते हुए इतने सिद्ध हो गए हैं कि इन्हें लगता है कि विधाता ने इस काम के लिए जिन लोगों को वर्तमान युग के लिए मुकर्रर कर भेजा है , वे उन्हीं में हैं और उनके जाने के बाद ये काम सदा-सदा के लिए बन्द ही हो जाने वाले हैं। इस आत्म महानता की मुग्धकारी स्थितियों में ये लोग इतने अहंकारी और बेशर्म हो जाते हैं कि सामान्य मनुष्यों की इनके आगे कोई गिनती ही नहीं है।
ये अपने आपको अन्तःपुर के उन लोगों में गिनते हैं जिनके बगैर अन्तःपुर अधूरा और खाली-खाली लगता है। जीवन व्यवहार का सम सामयिक सिद्धान्त यह है कि जो लोग चुपचाप और अंधेरे में किए जाने वाले कामों को करने के आदी होते हैं उन सभी अंधेरा पसन्द लोगों का ईष्ट अंधेरा ही होता है और यही कारण है कि अंधेरा सम्प्रदाय वाले इन लोगों के बीच प्रगाढ़ मैत्री, आत्मीयता और एक-दूसरे के लिए जीने-मरने की भावनाओं का वेग चरम पर होता है।
किसी देश को बरबाद करना हो, अस्तित्व मटियामेट करना हो तो भारत से ऎसे लोगों का निर्यात कर किसी भी देश में एक साथ समूहों में भेज दिया जाए तो ये उस देश का नामोनिशान मिटा देने की सारी क्षमताओं को अपने भीतर समाये हुए हैं। इनके इस हुनर को आजमाने की दिशा में आज परीक्षण की जरूरत है।
आजकल कोई से बाड़ें हों, गलियो से लेकर महानगरों तक की यात्रा में एक इंसान को पूरी जिन्दगी में अपने लिए जद्दोजहद करते हुए आगे बढ़ने तथा अपने अस्तित्व की रक्षा करने, अपने भविष्य को सँवारने के लिए किसम-किसम के लोगों से पाला पड़ता है। हममें से भी शायद ही कोई ऎसा प्राणी हो जिसका किसी और से कोई काम न पड़ता हो, अन्यथा सामाजिक प्राणी होने के साथ-साथ हम सभी का जीवन पूरी तरह पराश्रित है और रोजमर्रा की जिंदगी में किसी न किसी से काम पड़ता ही रहता है। इसमें काफी सारे लोग हमें सज्जन और परोपकारी भी मिलते हैं जो बिना किसी इच्छा या ऎषणा के हमारे काम कर दिया करते हैं और इन लोगों को किसी से कभी कोई अपेक्षा भी नहीं होती।
लेकिन आजकल भिखारी किस्म के खूब सारे लोग ऎसे हैं जिन्हें कोई न कोई अपेक्षा बनी रहती है और जब तक यह पूरी न हो, ये काम अटकाऊ संस्कृति को धन्य करते रहते हैं। बेइमानों की सोच यही बनी रहती है कि ये ईमानदार लोग न होते तो कितना अच्छा होता। ईमानदारों की सोच यह बनी रहती है कि ये बेईमान लोग न होते तो कितना अच्छा होता। कर्मयोगी लोगों का मानना होता है कि ये निकम्मे, निठल्ले, नाकारा लोग नहीं होते तो कितना अच्छा होता। सेवाभावी लोग सोचते हैं कि ये काम अटकाऊ, गटकाऊ और महा-खाऊ लोग नहीं होते तो कितना अच्छा होता।
चाहे किसी भी बाड़े का हम चक्कर काट लें या कहीं भी घूम लें, हर तरफ यही संकट बना हुआ है और सभी लोगों की दूसरे लोगों के बारे में एक ही सोच बनी हुई है कि ये लोग नहीं होते तो कितना अच्छा होता। दूसरे लोग हमारे बारे में कितनी गंभीरता से सोचते हैं और हमारे अस्तित्व को ही संदेहों में मान रहे हैं। एक हम हैं जो बार-बार लोगों के तानों, अपने बारे में खुली टिप्पणियों और अपराध बोध से भरे हुए होने के बावजूद कभी नहीं सोचते कि लोग हमारे बारे में ऎसा क्यों सोचते हैं कि हम नहीं होते तो कितना अच्छा होता।
हम थोड़ा सा भी अपने प्रति गंभीर होकर यह विचार करें कि लोगों के मन में हमारे प्रति ऎसी भावना क्यों है? तो हमारी आत्मा की आवाज अपने आप निकलेगी की। यदि हमारी इस छवि के बीच हमें एक क्षण के लिए भी यह लगे कि इससे तो हमारा मन जाना ही श्रेष्ठ है, तो यह मान लिया जाना चाहिए कि हम हैं तो मनुष्य लेकिन दिशा भटक गए हैं। और चिंतन-मनन के बाद भी अपनी गलती नहीं लगे, तब यह जरूर मान लेना चाहिए कि ईश्वर ने हमेंं मनुष्य शरीर देकर गलती ही कर दी है, वरना हम लायक तो किसी और खाल के थे।
जो हमसे मिले, वह यही कह उठना चाहिए कि ऎसे इंसान बहुत कम मिलते हैं, तब समझ लेना चाहिए कि जननी और जन्मभूमि दोनों धन्य हो गई। इसके विपरीत हमारे बारे में यह टिप्पणी होने लगे, लोग मन ही मन सोचने लगें कि ऎसा इंसान किस काम का, इससे तो जानवर अथवा नदी का पत्थर होना चाहिए था, तब मान लें कि हम चेतनाहीन और संवेदनाशून्य अवस्था में ऎसे जी रहे हैं जिसका जीवित रहना या न रहना कोई मायने नहीं रखता है। थोड़े कान बाहर भी लगाएं और देख लें, कहीं हमारे बारे में भी तो कोई ऎसा नहीं कह रहा – ये लोग नहीं होते तो कितना अच्छा होता।
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