मेरे तन में जब तक प्राण हैं…..
कविता — 37
वंदना कर भारती की सबसे बड़ा यह धर्म है,
जग में न कोई इससे बड़ा और पवित्र कर्म है।।
मानवता और धर्म को जो साथ-साथ तोलती,
सुन वेदना मां की तनिक और जान ले क्या मर्म है?
यज्ञीय भाव से जियो यज्ञ सृष्टि का सुंदर कर्म है,
इसी भाव को लेकर खड़े संसार के सब धर्म हैं।
हृदय को अपने सौंप दो सृष्टि के स्वामी ईश को,
वह दृष्टा हमारे कर्म का समझो निकट जगदीश को।।
यह देश ही हमारा देव है और आस्था का केंद्र है ,
युग युगों से इसकी पूजा करते रहे देवेंद्र हैं ।
संस्कृति इसकी मिटाना चाहता रहा है शत्रु सदा,
शर सँधान हेतु अर्जुन बनो, मां का यही आदेश है।।
कर भारतीयता को सुरक्षित हित इसी में देश का,
बंधु ! तभी मिटेगा विश्व से संताप हर क्लेश का।
ऋषियों की पवित्र वेदवाणी गूंजती रहे अविरत सदा,
यही सार हमारे वेद का यही सार ऋषि उपदेश का।।
अहंकारमय संकल्प ही मानव को पतित करते यहां,
अहंकारशून्य हृदय रखो सनातन वेद कहते हैं सदा ।
सदा देवभक्ति और देशभक्ति ह्रदय में मचलती रहे,
द्वंद्वातीत बने मानव ही सदा अमर रहते यहां।।
मेरे तन में जब तक प्राण हैं, हर सांस देशहित चले,
होगा यह सौभाग्य मेरा यदि देशहित मरना पड़े ।
अग्नि हमारा पूज्यदेव है और अग्रणी हमारा देश भी,
इन्हें हर वेद धर्मी करता नमन और साथ में ‘राकेश’ भी।।
यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’- से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत