ओ३म्
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आर्यावर्त उत्सवों एवं पर्वों का देश है। पर्व का अपना महत्व होता है। होली भी दीपावली, दशहरा, श्रावणी आदि की ही तरह एक सामाजिक एवं धार्मिक पर्व है। यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा व उसके अगले दिन हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इसे मनाने की प्रासंगिकता व महत्व अन्य पर्वों से कुछ अधिक प्रतीत होता है। इस पर्व को चैत्र माह के आरम्भ से एक दिन पूर्व फाल्गुन पूर्णिमा को एक वृहद यज्ञ करके मनाते हैं और अगले दिन सभी लोग एक दूसरे को पर्व की बधाईयां देने के साथ मिष्ठान्न गुजिया व अन्य पदार्थों से स्वागत व आदर देते हैं, साथ हि चेहरे पर गुलाल व रंग लगाते हैं। होली का महत्व किन कारणों से है? इसका मुख्य कारण तो यह है कि होली पर्व के समय शीत बहुत कम हो जाती है जिससे लोग कई महीनों से त्रस्त थे। दिन भी छोटे होते थे। सायं 5.30 बजे ही अन्धकार हो जाता था। होली से लगभग ढाई महिने पहले 22 दिसम्बर से दिनों का बढ़ना आरम्भ हो जाता है। होली को मनाने से कुछ दिन पूर्व शीत ऋतु में पहने जाने वाले वस्त्रों को सुखा व सम्भाल कर अगले वर्ष के लिये सुरक्षित रख देते हैं। होली से कुछ दिन पहले हल्की गर्मी आरम्भ होने के कारण इस ऋतु के अनुकूल वस्त्रों को तैयार करते हैं। यदि पर्यावरण एवं वनस्पति जगत की दृष्टि से देखा जाये तो इस अवसर पर आषाढ़ी फसल तैयार होने को होती है। गेहूं की बालियों व फलियों में नव-अन्न बन जाता है जिसका पकना शेष रहता है।
किसानों ने इस आषाढ़ी फसल को उगाने व तैयार करने में बहुत परिश्रम किया होता है। उसे आरम्भ में कहीं न कहीं डर होता है कि किसी कारण से उसका परिश्रम व्यर्थ न हो जाये। होली के बाद जौं व गेहूं आदि की फसल का कटना आरम्भ होने को होता है। अतः किसान अपनी मेहनत व उससे उत्पन्न फसल को देखकर प्रसन्न होते हंै जिसे वह ईश्वर का धन्यवाद करते हुए उत्सव के रूप में मनाकर अपने परिवार व इष्ट मित्रों को भी प्रसन्नता प्रदान करने का प्रयास करते हैं। प्राचीन काल में आरम्भ परम्परा के अनुसार इस अवसर पर गेहूं के नये दानों को अग्नि में तपा कर उनसे वृहद-यज्ञों में आहुतियां देकर यज्ञ किया जाता है जिससे ईश्वर का धन्यवाद होता है और इसके बाद अन्न का उपभोग करने में सुख व सन्न्तोष का अनुभव होता है। होली के अवसर पर हमारे सब वन-उपवन भी नये पत्तों व पुष्पों से आंखों को अत्यन्त प्रिय लगते हैं और उपवनों में सुगन्ध आदि का वातावरण मन को सुख व आनन्द देता है। अतः यह समय हर दृष्टि से उत्सव के अनुकूल होता है। इस अवसर पर वातावरण में न अधिक शीत होता है न उष्णता। वनस्पति जगत अपने यौवन पर होता है एवं मनभावन होता है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि रंग-बिरंगे पुष्पों की तरह परमात्मा ने मनुष्यों को गोरा, काला, सावंला, गेहूंवा आदि अनेक रंगों व आकृति वाला बनाया है। किसी को परमात्मा ने लम्बा तो किसी को नाटा, किसी को मोटा तो किसी को पतला तथा किसी को गठीला तो किसी को पतला बनाया है। शरीर का बाह्य रूप गोरा व काला आदि है तो अन्दर धमनियों में लोहित या लाल रंग का रक्त बहता है। पुष्पों के रंग भी हमें ईश्वर की महिमा का परिचय देते हैं जो भूमि में मिट्टी से नाना रंगों व मनमोहन आकृतियों के पुष्पों को उगाता, बनाता व संवारता है। पुष्पों में उसकी सर्वोत्तम निर्माण कला के दर्शन होते हैं। ऋषि कहते हैं कि रचना को देखकर रचयिता का ज्ञान होता है। फूलों को देखकर भी ईश्वर का साक्षात् किया जा सकता है। ईश्वर गुणी है और फूल उसकी बनाई हुई रचना।
होली पर्व के अवसर पर फलों के रंगों के अनुरूप हम स्वयं भी एक दूसरे के चेहरों पर रंग लगा कर उन्हें पुष्पों के समान आकर्षक व मनमोहक रूप देना चाहते हैं। खिले पुष्प की हम खुशियों व सुख से उपमा देते हैं और कामना करते हैं कि हमारे सभी इष्ट-मित्र सदैव पुष्पों की तरह हंसते मुस्कराते व खिले-खिले से रहे। यही काम हम अपने मित्रों व कुटुम्बियों के चेहरे पर रंग लगाकर उन्हें शुभकामनायें देते हुए मिष्ठान्न आदि खिला कर करने का प्रयास करते हैं। ऐसी भी किम्वदन्ति है कि इस दिन सभी लोग अपने मतभेद व मनमुटाव भुलाकर परस्पर सद्भाव व प्रेम का परिचय देते हैं। यदि इस दिन लोग इस दिशा में कुछ पग भी आगे बढ़ाते हैं तो यह किसी उपलब्धि से कम नहीं है। इसका कारण ऐसा करने से मन को सुख व शान्ति का मिलना है।
वैदिक धर्म व संस्कृति में ईश्वर की आज्ञा का पालन व परोपकार के पर्याय यज्ञों वा अग्निहोत्र करने का विशेष महत्व है। वैदिक संस्कृति में महाभारत युद्ध के कारण कुछ परिवर्तन व विकार भी आया है। हम इन पर्वों के प्राचीन स्वरूप व मनाने की विधि को प्रायः भूल चुके हैं। अब इस पर्व को मनाने के विकृत रूप से ही अनुमान किया जा सकता है कि होली पर्व का प्राचीन स्वरूप क्या रहा होगा? होली पर पूर्णिमा के दिन बड़ी मात्रा में लकड़ियों व उपलों को एकत्र कर रात्रि के समय उसे मन्त्रोच्चार कर जलाया जाता है और उसमें मन्त्र बोलकर से हवन सामग्री व नवान्न के होलों की आहुतियां दी जाती हैं। इससे अनुमान लगता है कि यह प्रक्रिया व अनुष्ठान वृहद यज्ञों का बिगड़ा हुआ स्वरूप है। ऋषि दयानन्द ने सन् 1875 में आर्यसमाज की स्थापना करके तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों की रचना करके वेद व उनके सत्य अर्थों से देशवासियों का परिचय कराया है। अग्निहोत्र यज्ञ पर्यावरण व वातावरण को शुद्ध व पवित्र करने, दुर्गन्ध का नाश करने, रोग व हानिकारक किटाणुओं को निष्प्रभावी व नष्ट करने, ईश्वर की वेदाज्ञा का पालन करने और अपने हितकर व इष्ट पदार्थों का भेाग करने से पहले उसे ईश्वर के प्रतीक अग्नि व सभी देवताओं के मुख अग्नि को आहुति रूप में समर्पित करने के लिये किया जाता है। ऐसा करके हम इस बृहद यज्ञ में अपने जिन साधनों व सामग्री का व्यय करते हैं उससे कहीं अधिक लाभ हमें अप्रत्यक्ष रूप से भी मिलता है। हमारे जीवन निर्वाह के कारण प्रकृति में वायु, जल, भूमि आदि का जो प्रदूषण होता है तथा चूल्हे व चक्की से जो जीव-जन्तु आदि मर जाते व पीड़ित होते हैं, उस हानि की आंशिक निवृत्ति व पूर्ति भी होली के दिन परिवारों में व्यक्तिगत रूप से किए जाने वाले यज्ञों व सामूहिक वृहद यज्ञों से होती है। होली पर ज्ञान, धन व बल में अपने से न्यून अपने सामाजिक बन्धुओं को अपने गले से लगाकर हम यह जताते हैं कि हम सब एक ईश्वर की सन्तानें हैं और सब परस्पर सहयोगी है। सबको एक दूसरे के हितों का ध्यान रखते हुए परस्पर सहयोग करना है जिससे किसी को किसी प्रकार का दुःख व पीड़ा न हो। ऐसी अभिव्यक्तियां ही इस पर्व को मनाते हुए लोग प्रतीक रूप में करते हुए दीखते हैं।
आर्य पर्व पद्धति में होली के विषय में ‘शब्दकल्पद्रुम कोश’ तथा ‘भाव-प्रकाश’ ग्रन्थों के आधार पर कहा गया है कि तिनकों की अग्नि में भूने हुए अध-पके शमीधान्य (फली वाले अन्न) को ‘होलक’ (होला) कहते हैं। होला स्वल्प-वात है और मेद (चर्बी), कफ और श्रम (थकान) के दोषों को शमन करता है। जिस-जिस अन्न का होला होता है, उस में उसी अन्न का गुण होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि आदिकाल में तृणाग्नि में भुने आषाढ़ी के प्रत्येक अन्न के लिए ‘होलक’ शब्द प्रयुक्त होता था किन्तु पीछे से वह शमीधान्यों (फलीयुक्त) के होलों के लिए ही रूढ़ हो गया था। हिन्दी का प्रचलित ‘‘होला” शब्द इसी का अपभ्रंश है। आषाढ़ी नव-अन्न-इष्टि में नवागत अध-पके यवों के होम के कारण उस को ‘‘होलकोत्सव” कहते थे। उस में होलक या होले हुतशेष रूप से भक्षण किए जाते थे और उन के सत्तू (सक्तु) का प्रयोग भी इसी पर्व के दिवस से प्रारम्भ होता था। सत्तू एक विशेष आहार है और यह पित्तादि दोषों को शमन करता है। भारतीयों के विशेष-विशेष पर्व विशेष-विशेष आहारों के प्रयोगों के आरम्भ के लिए निर्दिष्ट हैं। उसी प्रकार यह होलकोत्सव होलों और उसके बने हुए सत्तुओं के उपयोग के लिए उद्दिष्ट है।
वैदिक धर्मावलम्बियों में प्राचीन काल से यह प्रथा चली आती है कि नवीन वस्तुओं को देवों को समर्पण किए बिना अपने उपभोग में नहीं लाया जाता है। जिस प्रकार मानव देवों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार भौतिक देवों में अग्नि सर्व-प्रधान है। वह अग्नि विद्युत रूप से ब्रह्माण्ड में व्यापक है और भूतल पर साधारण अनल, जल में बड़वानल, तेज में प्रभानल, वायु में प्राणापानानल और सर्व प्राणियों में वैश्वानर के रूप में वास करता है।
देवयज्ञ का प्रधान साधन भौतिक अग्नि ही है क्योंकि वह सब देवों का दूत है। वेद में उस को अनेक बार ‘देवदूत’ कहा गया है। वही अग्नि देवता सब देवों को होमें हुए द्रव्य पहुंचाता है। इसलिए नवागत अन्न सर्वप्रथम अग्नि के ही अर्पण किए जाते हैं और तदन्तर मानव देह द्वारा ब्राह्मणों को भेंट करके अपने उपयोग में लाए जाते हैं। श्रुति कहती है-‘केवलाधो भवित केवलादी।’ इसका अर्थ है कि अकेला खाने वाला केवल पाप खाने वाला है। मनु महाराज इसी का समर्थन करते हुए कहते हैं कि ‘जो पुरुष केवल अपने लिए भोजन पकाता है वह पाप भक्षण करता है। यज्ञशेष वा हुतशेष ही सज्जनों का (भोक्तव्य) अन्न विधान किया गया है।’ इसलिए अब तक भी जन साधारण में यह प्रथा प्रचलित है कि जब तक नवीन अन्नों वा फलों को पूजा के प्रयोग में न लाया जाये तब तक उन को लोक भाषा में ‘‘अछूत वा छूते” कहते हैं। तदनुसार ही आषाढ़ी की नवीन फसल आने पर नये यवों को होमने के लिए इस अवसर पर प्राचीन काल में नवसस्येष्टि, होलकेष्टि वा होलकोत्सव होता था।
जहां प्रत्येक गृह में पृथक्-पृथक् नवसस्येष्टि की जाती थी, वहां प्रत्येक ग्राम में सामूहिक रूप से सम्मिलित नवसस्येष्टि भी होती थी और उस में सब लोग अपने-अपने घरों से यवादि आह्वनीय पदार्थ लाकर चढ़ाते थे। वर्तमान समय में काष्ठ और कण्डों (उपलों) के ढेरों के रूप में होली जलाने की प्रथा प्राचीन सामूहिक नवसस्येष्टियों का विकृत रूप है। उस में आह्वनीय सामग्री का हवन तो कुटिल काल की गति में लुप्त हो गया है और केवल काष्ठ तथा अमेध्य द्रव्यों का जलाना और यवों की बालों का भूनना रूढ़ि वा लकीर के रूप में रह गया है। इस आषाढ़ी नवान्नेष्टि का उपर्युक्त देवयज्ञ द्वारा देवपूजन विद्वत्-समादर, वायु-संशोधन, गृह-परिमार्जन तथा नवीन वस्त्र परिवर्तन धार्मिक और वैज्ञानिक स्वरूप है। इस अवसर पर गान-वाद्य द्वारा आमोद और हर्षोल्लास तथा इष्ट-मित्रों का सप्रेम सम्मेलन उस के आनुषगिक उपयोगी लौकिक अंग हैं। जो समय हमारे लिए वर्ष भर तक अन्न प्रदान करते रहने की व्यवस्था करता उस को मंगलमूल वा सौभाग्यसूचक समझ कर उस पर परमेश्वर के गुणानुवादपूर्वक आन्दोत्सव मनाना स्वाभाविक ही है। परस्पर प्रेम परिवर्धन का भी यह बड़ा उपयुक्त अवसर है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य