असामाजिक न रहें ख्याल रखें सभी का

Love In Heaven 01 1280X960 Love Friendship Wallpaperहम सभी सामाजिक प्राणी हैं इसलिए समाज के लिए जीने और कुछ करने का माद्दा हमारे भीतर होना ही चाहिए। हम तभी तक सामाजिक हैं जब तक हमारे भीतर समाज के लिए कुछ करने की भावनाएं बरकरार रहा करती हैं। ऎसा नहीं होने पर हम असामाजिक की श्रेणी प्राप्त कर लेते हैं।

यह अलग बात है कि हमारे भीतर से सामाजिकता समाप्त हो जाने के बाद लोग या तो हमसे भयभीत होने के कारण कुछ नहीं कह पाते अथवा हमसे दूर रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं। हममें से काफी लोग ऎसे हैं जो समाज और देश के लिए जीते हैं। सच में कहा जाए तो इन्हीं लोगों की वजह से सब कुछ टिका हुआ है वरना हम जैसे खूब सारे लोग हैं जिनके लिए समाज, क्षेत्र और देश कोई मायने नहीं रखता।

जो लोग सामाजिकता छोड़ देते हैं उन्हें किसी भी समुदाय का प्रतिनिधित्व करने का कोई अधिकार नहीं रह जाता । यह प्रतिनिधित्व तभी तक रह पाता है जब तक हमारे मन में अपने समुदाय, क्षेत्र या देश के लिए सर्वस्व समर्पण और बलिदान करने की भावनाएं हुआ करती हैं।

सदियों की गुलामी और हमारी तमाम समस्याओं का मूल कारण यही है कि हम लोगों ने अपने आस-पास के लोगों, समुदाय, क्षेत्र और देश के प्रति हद दर्जे की अक्षम्य लापरवाही का परिचय दिया और धर्म, सत्य एवं परंपराओं की अपने-अपने हिसाब से स्वार्थ और लोभ-लालचपरक व्याख्याएं करते हुए भुनाया। और वह सब किया जो हमें परिपुष्ट करता रहा।

इसी वैयक्तिक और स्वार्थी मानसिकता का परिणाम यह रहा कि हम सभी लोग द्वीप की तरह एकान्तिक हो गए हैं जिनका किसी और से कोई वास्ता ही नहीं रहा। हमारा पूरा का पूरा जीवन अपने पर ही केन्दि्रत रहा और दूसरों के बारे में सोचने की फुर्सत हम मरते दम तक नहीं निकाल पाए।

वर्तमान पीढ़ी में यह दुर्गुण कुछ ज्यादा ही है और यह हमारी ही देन हैं।  मौजूदा युग के इसी दुर्भाग्य के कारण हम मानवीय मूल्यों और आदर्शों की दौड़ में कछुवा छाप सिद्ध हो रहे हैं। हम जहाँ कुछ नहीं मिलता है वहाँ भीड़ का रुख कर दिया करते हैं। जहाँ कुछ मिलता है वहाँ अकेले ही अकेले सब कुछ हजम कर लिया करते हैं।

अपने घर भरने और खुद को प्रतिष्ठा के शिखरों का स्पर्श कराने में हमने उन सभी कुटिलताओं और भ्रमों को अपनाया है जिनकी वजह से पुरानी सदियों में इंसानियत कलंकित हुई है। समाज में अब ऎसा वर्ग पनप रहा है जिसका एकमात्र काम रह गया है  अवसरों को पैदा करना, तलाशना और अपने या अपने गिरोह के लिए लाभ पाना। इन लोगों के लिए यही जीवन मंत्र होकर रह गया है जहाँ चुपचाप खा-पी और डकार जाने से लेकर सब कुछ पा जाने की मानसिकता ही लक्ष्य है और इसमें सहयोग देकर परस्पर जयगान करने वाले या लाभ दिलाते रहने वाले ही हमारे कुटुम्बी हो गए हैं।

इन लोगों के लिए हमेशा नए-नए चुग्गाघरों, चरागाहों, आरामगाहों, अन्नक्षेत्रों और भण्डारों की तलाश करना ही अपना एकमात्र एजेण्डा हो गया है। खुद ही खुद को आगे बढ़ाने और समूहों का सृजन कर गिरोहबंदी का खामियाजा पूरा समाज भुगत रहा है क्योंकि इनकी तगड़ी बाड़ेबंदी के कारण वे लोग भी आगे नहीं आ पा रहे हैं जो इनसे अधिक योग्य हैं।

जो लोग जात-जात के बाड़ों में जमा होकर जश्न मनाने के आदी हैं वे हमेशा इस प्रयास में रहते हैं कि वे ही वे छाये रहें, कोई दूसरा इस आकाश में छा न पाए। यही कारण है कि चंद लोगों के गिरोहों का नुकसान पूरे समुदाय और देश को हो रहा है और ये गिरोह कबीलाई संस्कृति का अनुगमन कर समाज की छाती पर मूंग दलने में कामयाब भी हो गए हैंं।

समाज की सुप्तावस्था और पलायनवादी मानसिकता ने इन लोगों को खुला मैदान दे रखा है जहाँ वो जितनी चाहें घुड़दौड़ करने को स्वतंत्र हैं। जिन लोगों के मन से सामाजिक सरोकार और देशज संस्कारों के संवहन का माद्दा खत्म हो जाता है वे लोग समाज में रहते हुए भी समाज के दुश्मन कहे जा सकते हैं।

आज हमारे आस-पास सभी क्षेत्रों में खूब सारी प्रतिभाएं हैं लेकिन चंद लोग हर कहीं ऎसे काबिज हैं कि न हमारी युवा शक्ति को प्रतिभाओं के प्रदर्शन के अवसर प्राप्त हो पा रहे हैं, न ये पहले से जमे जमाये ठेकेदार इन्हें आगे आने दे रहे हैं। आगे वही आ पा रहा है जो इनका दासत्व स्वीकार कर ले, अनुचर हो जाए और वो सारे काम करने का आदी हो जाए, जिन्हें करते हुए ये स्थापित लोग आज इस मुकाम पर हैं।

इंसान वही है जो अपने क्षेत्र के लोगों को मार्गदर्शन देकर आगे लाए, उचित माध्यमों का लाभ दिलाकर उनका जीवन और भविष्य संवारे और खुद प्रेरक या प्रोत्साहक की भूमिका में रहे।

हम सभी को गंभीरता से यह सोचने की आवश्यकता है कि जिस समाज या क्षेत्र में हम रहते हैं उसके लोगों के लिए, उस क्षेत्र के लिए क्या कुछ कर पा रहे हैं या वटवृक्ष की तरह इस कदर छाने की तमन्ना है कि और कोई वनस्पति पनपे ही नहीं।

लोकप्रियता की जिस गाजरघासी संस्कृति और हथकण्डों को हम लोग अपना रहे हैं वह समाज के लिए आत्मघाती है।  पुरस्कारों, सम्मानों, अभिनंदनों,प्रकाशनों से लोकप्रियता नापी नहीं जा सकती, लोकप्रियता का असली पैमाना हमारी वर्तमान पीढ़ी है, अपना क्षेत्र है जिसकी माटी-पानी से हम पले-बढ़े हैं।

हमारा बडप्पन इसमें नहीं है कि हम कितने बड़े कहे जाते हैं, बल्कि हमारा बडप्पन इसमें है कि हमने कितने लोगों को अपने जैसा मुकाम दिया, स्थापित किया और कितने लोगों की जिन्दगी सँवारी। हम सभी को छद्म लोकप्रियता के मोह पाशों से बाहर निकल कर समाज के लिए जीने और अपने विषयों से जुड़े लोगों को आगे लाकर स्थापित करने की दिशा में कुछ करना होगा।

जीवन का अर्थ यह नहीं है कि हमने क्या कुछ पाया है, बल्कि असली जिन्दगी का आनंद इसमें समाहित है कि हमने कितने लोगों को आगे बढ़ाया,प्रोत्साहित और स्थापित किया और अपने क्षेत्र की कितनी निष्काम सेवा की।

—000—

Comment: