प्राय: धरती के तराई वाले क्षेत्रों में अथवा मैदानी इलाकों में बाढ़ आने के समाचार सुनाई देते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में यदा-कदा बादल फटने अथवा भूस्खलन की खबरें ज़रूर आती हैं। परंतु जब कभी कुदरत का कहर बाढ़ के रूप में पहाड़ पर गिरता है तो कभी उत्तराखंड के केदारनाथ जैसी अभूतपूर्व त्रासदी की खबर सुनाई देती है तो कभी जम्मू -कश्मीर के श्रीनगर जैसे हालात बनते नज़र आते हैं। गत् वर्ष उत्तरांचल में आई बाढ़ को धरती पर आई प्रलय का नाम दिया गया था तो श्रीनगर व उसके आस-पास के क्षेत्रों में इन दिनों बाढ़ के चलते तबाही का जो मंज़र देखा जा रहा है उसे राष्ट्रीय आपदा का नाम दिया गया है। बताया जा रहा है कि जम्मू -कश्मीर की धरती ने गत् 110 वर्ष में ऐसी भीषण बाढ़ की कभी कल्पना भी नहीं की। कश्मीर में आई इस बाढ़ की भयावहता तथा इसकी गंभीरता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कश्मीर में बाढ़ आने के फौरन बाद बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया। प्रधानमंत्री ने एक हज़ार करोड़ रुपये की आर्थिक सहायता राज्य सरकार को बाढ़ राहत हेतु प्रदान की। इतना ही नहीं बल्कि संभवत: देश में पहली बार यह देखा जा रहा है कि किसी प्रधानमंत्री द्वारा देश के नागरिकों से बाढ़ पीडि़तों की सहायता हेतु मदद की सार्वजनिक गुहार की गई हो। प्रधानमंत्री ने देश के नागरिकों से की गई अपनी अपील में कहा है कि ‘आप सभी को मालूम है कि अभूतपूर्व बाढ़ की वजह से जम्मू-कश्मीर में तबाही का आलम है। बड़ी तादाद में लोग लापता बताए जा रहे हैं या अस्थायी रूप से विस्थापित हुए हैं। करोड़ों रुपये के जान व माल का नुकसान हुआ है। संकटग्रस्त कश्मीर के हमारे नागरिकेां को मदद की ज़रूरत है ताकि वे इस आपदा से उबर सकें और अपनी जि़ंदगी फिर से बसा सकें। और अपनी इस अपील के साथ प्रधानमंत्री ने भारतीय नागरिकों से प्रधानमंत्री राहत कोष में दान देने की अपील जारी की है।
इसके अतिरिक्त भी देश के तमाम शहरों में समाजसेवी संगठनों द्वारा कश्मीर के बाढ़ पीडि़तों की सहायतार्थ धन व सामग्री एकत्र किए जा रहे हैं। अनेक सरकारी कार्यालयों तथा कर्मचारियों द्वारा अपने वेतन से कश्मीर आपदा पीडि़तों की सहायता किए जाने की घोषणा की गई है। आम आदमी पार्टी के दिल्ली के विधायकों द्वारा तो 20-20 लाख रुपये की सहायता राशि देने का एलान किया गया है। अनेक समाचार पत्रों ने जम्मू -कश्मीर रिलीफ फंड स्थापित कर अपने पाठकों से आपदा पीडि़त कश्मीरियों हेतु सहायता तलब की है। एक अनुमान के अनुसार इस भीषण प्राकृतिक आपदा से लगभग पांच लाख लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। लगभग डेढ़ लाख लोगों को एनडीआरएफ,थल सेना,वायुसेना तथा पुलिस के संयुक्त प्रयास से सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया जा चुका है। हालंाकि बाढ़ की स्थिति में अब सुधार ज़रूर हो रहा है परंतु प्रकृति का यह कहर अपने पीछे तबाही का जो मंज़र छोड़ गया है उस से शीघ्र उबर पाना संभव नहीं है। सैकड़ों मकान मलवे में तबदील हो चुके हैं। इन मलवों में लोगों के जि़ंदा दफन होने की संभावनाएं हैं। सेना के जवान अपनी जान को जोखिम में डालकर मलवे में फंसे लोगों को निकालने में लगे हैं। हज़ारों लोग अब भी लापता बताए जा रहे हैं जबकि इधर-उधर से लाशों के मिलने का सिलसिला भी जारी है। बिजली,टेलीफोन की लाईनें कटी होने की वजह से बाढ़ राहत तथा संचार सेवा प्रभावित हो रही है। कई अस्पतालों में बाढ़ का पानी घुसने के कारण वेंटीलेटर ने काम करना बंद कर दिया जिसके चलते कई बच्चों के मौत की आगोश में चले जाने का समाचार है। बाढ़ की चपेट में एक बारात ले जा रही बस के सभी 50 बाराती सैलाब में बहकर डूब गए।
ऐसी भीषण एवं संकटकालीन परिस्थितियों में कश्मीर के बाढ़ प्रभावित लोगों के लिए सबसे रल1ृबड़े सहारे के रूप में दो ही शक्तियों खड़ी नज़र आईं। एक तो केंद्र सरकार द्वारा कश्मीर में आपदाग्रस्त लोगों की सहायता हेतु मदद के दोनों हाथ आगे बढ़ाना और दूसरे भारतीय थलसेना तथा वायुसेना द्वारा बाढ़ पीडि़तों के लिए फरिश्तों की भूमिका निभाना। हालांकि सेना के जवान प्रत्येक प्रभावित क्षेत्र अथवा प्रभावित व्यक्ति तक नहीं पहुंच सके। उसके बावजूद भारतीय जवानों ने अपनी जान को जोखिम में डालकर जिस प्रकार लगभग डेढ़ लाख लोगों को मौत की आगोश में जाने से बचाया तथा उन्हें सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया इस बात के लिए भारतीय सेना के जवानों की जितनी भी प्रशंसा की जाए वह कम है। सामान्य दिनों में इसी कश्मीर के अलगाववादी विचारधारा रखने वाले नेताओं के इशारे पर इसी कश्मीर के तमाम नागरिक सेना के विरुद्ध प्रदर्शन,धरने व जुलूस आदि निकालते रहते हैं। परंतु भारतीय सेना ने बिना किसी भेदभाव अथवा पूर्वाग्रह के केवल भारतीय नागरिक होने के नाते जिस प्रकार प्रभावित कश्मीरियों की सहायता की है उससे भारतीय सेना की उज्जवल छवि उजागर हुई है। संकट की इस घड़ी में न तो कोई हुर्रियत कान्फ्रेंस संकटग्रस्त लोगों की मदद के लिए साथ खड़ी दिखाई दी न ही कश्मीर के किसी आतंकी संगठन ने आपदा प्रभावित लोगों को बचाने का जि़ मा उठाया। और तो और जो पाकिस्तान कश्मीरजम्मू में अलगाववाद को बढ़ावा देता है तथा कश्मीर को भारत से अलग किए जाने की अपनी मंशा के तहत राज्य में बदअमनी फैलाने की कोशिश में लगा रहता है वह पाकिस्तान भी कश्मीरियों की सहायता तो क्या करनी सहानुभूति के दो शब्द भी नहीं बोल सका। जबकि भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान में आई बाढ़ में पाक अधिकृत कश्मीर सहित पाकिस्तान के बाढ़ पीडि़त लोगों की सहायता करने का भी प्रस्ताव पेश किया। भारत सरकार तथा भारतीय सेना की उदारता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है?
कश्मीर में आई बाढ़ की यह विपदा अपने पीछे सर्वधर्म संभाव तथा सांप्रदायिक सौहार्द का भी एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत कर गई। जहां भारतीय सेना के जवानों ने बिना किसी धर्म-जात का भेद किए हुए समस्त बाढ़ प्रभावित लोगों को एक इंसान के नाते उन्हें बचाने में मदद की वहीं कश्मीर के कई राहत शिविर तथा राहत स्थल भी इस समय सांप्रदायिक सौहाद्र्र का उदाहरण पेश कर रहे हैं। कहीं गुरुद्धारों में हिंदू व मुस्लिम एक साथ पनाह लिए हुए हैं तो कहीं मस्जिदों,मदरसों व दरगाहों के द्वार हिंदुओं व सिख समुदाय के लोगों के लिए खुल गए हैं। कहीं गुरुद्वारों में मस्जिद की ओर से भेजी गई सामग्री से खाने-पीने का प्रबंध किया जा रहा है तो कहीं मंदिरों में मुस्लिम समाज के लोग भोजन ग्रहण करते तथा शरण लेते दिखाई दे रहे हैं। श्रीनगर की मशहूर हैदरपुरा जामा मस्जिद तो इस समय पूरे देश के लिए सांप्रदायिक सौहाद्र्र की एक मिसाल बन गई है। इस मस्जिद में सभी धमो्रं के तीन हज़ार से अधिक लोगों को पनाह मिली है। सभी धर्मों के लोग इस मस्जिद में न केवल उठ-बैठ रहे हैं,खा-पी रहे हैं बल्कि यहां सभी एकसाथ नमाज़ व पूजा-पाठा ाी करते दिखाई दे रहे हैं। पहले भी देश में आ चुकी इस प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं में ऐसे दृश्य देखे गए जबकि धर्म,संप्रदाय तथा जाति की सीमाओं को तोड़कर कुदरत के कहर से जूझने के लिए सभी इंसान एकजुट हुए। सन् 2001 में गुजरात के भुज और कच्छ क्षेत्रों में आए विनाशकारी भूकंप के दौरान भी कुछ ऐसे ही दृश्य देखे गए थे। जबकि धर्म व जाति की सीमाओं को तोड़कर कुदरत के कहर से जूझने के लिए समस्त आपदा प्रभावित लोग एकजुट हो गए थे। उस समय वहां भी एक ही जगह नमाज़-रोज़ा,पूजा-पाठ होता दिखाई दे रहा था।
सवाल यह है कि सांप्रदायिक एकता की इस राह पर हम उसी समय क्यों चलते हैं जब कुदरत का कहर हम पर टूटता है? क्या बिना प्राकृतिक आपदा के हम ऐसे प्रयास नहीं कर सकते कि सभी धर्माेें व संप्रदायों के लोग इसी प्रकार एकजुट होकर एक ही छत के नीचे अपने-अपने ईश की आराधना किया करें? प्रकृति का वह कहर जो हमें एक छत के नीचे नमाज़ व पूजा करने के लिए बाध्य कर देता है इस विपदा को हम प्रकृति के संदेश के नज़रिए से क्यों नहीं देखते? हमारे सभी पूर्वाग्रह, नफरत, सीमा रेखाएं व तथाकथित धार्मिक बंदिशें उस समय कहां चली जाती हैं जब हम ऐसी विपदा के समय मस्जिद में हिंदुओं को पूजा करने की इजाज़त देते हैं तथा मंदिर परिसर में नमाज़ अदा करने के लिए तैयार हो जाते हैं? कश्मीरवासियों को तो खासतौर पर संकट के इस दौर में यह गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है कि आिखर अभूतपूर्व दु:ख व संकट की इस घड़ी में उनके साथ भारत सरकार व भारतीय सेना तथा समस्त देशवासी किस अपनत्व के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हुए हैं। कश्मीर की प्राकृतिक आपदा में कश्मीरियत की एकता का भी जो संदेश उभरकर सामने आया है उसे भी कश्मीर में सांप्रदायिक सौहाद्र्र स्थापित करने की दिशा में एक मील का पत्थर समझा जाना चाहिए। कुदरत ने प्रलयरूपी इस आपदा के बहाने अलगाववादी लोगों को यह सोचने का एक मौका दिया है कि वे अब भी भारत सरकार के हौसले,कश्मीर के प्रति उसकी जि़ मेदारी तथा नेकनीयती को समझने की कोशिश करे।